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1946 का भारतीय नौसेना विद्रोह: क्रांतिकारी हड़ताल, ब्रिटेन धराशायी

18 फरवरी 1946 को ‘भड़का’ भारतीय नौसेना विद्रोह (RIN) लंबे समय तक नवंबर 1945 में आजाद हिंद फौज (INA) के अफसरों और सैनिकों पर चलने वाले राजनीतिक मुकदमे की छाया में ढंका रहा. इस मुकदमे ने पूरे देश का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया हुआ था. निश्चित ही इसकी वजह ‘नेताजी’ सुभाष चंद्र बोस का करिश्माई व्यक्तित्व था, जिनकी बहादुरी की चर्चा तब पूरे देश में थी और उन्हें देश के करोड़ों स्त्री-पुरुषों का प्यार मिल रहा था. 1939 में गांधी की इच्छा विरुद्ध कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए दूसरी बार चुनाव लड़ते हुए बोस कुछ ही हफ्तों में समझ गए थे कि पूरी कांग्रेस मशीनरी महात्मा के पीछे है. 

1941 में घर में अंग्रेजों की नजरबंदी को धता बताते हुए बोस पूरी बहादुरी के साथ कलकत्ता से निकल भागे और अफगानिस्तान होते हुए जर्मनी पहुंच गए, जहां वह हिटलर से भेंट करने में सफल रहे. हालांकि यह सब बेहद नाटकीय था, लेकिन इससे भी बढ़ कर बात हुई 1943 में, जब उन्होंने आजाद हिंद फौज (INA) की कमान संभाली. उसी साल अक्टूबर में स्वतंत्र भारत की प्रांतीय सरकार का गठन किया. INA सैन्य कार्रवाई करते हुए मैदान में उतरी और इंफाल, कोहिमा तथा बर्मा ने उसने जंग लड़ी लेकिन युद्ध समाप्त होने से पहले ही INA का अस्तित्व समाप्त हो गया.

युद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटेन जीत गया था और चूंकि बोस दुश्मन की ओर से लड़े थे, इसलिए उनका अपना तात्कालिक अस्तित्व भी अनिश्चित हो गया था, मगर विधि ने बोस के लिए कुछ और ही तय कर रखा था. सितंबर 1945 में ताइवान के नजदीक एक हवाई दुर्घटना में उनके मारे जाने की खबर आई. भारत में बहुत से लोगों ने उनकी मृत्यु की खबर को मानने से इंकार कर दिया और कुछ तो आज तक इसे सच नहीं मानते. ‘नेताजी’ के नाम से बुलाए जाने वाले राष्ट्र के नायक के लिए ऐसी मृत्यु बेहद विचित्र और अकल्पनीय लग रही थी.

अभी देश सुभाष बोस की मृत्यु की खबर के अवसाद में ही झूल रहा था कि ब्रिटेन ने INA के अफसरों के विरुद्ध देशद्रोह, हत्या और ब्रिटिश शहंशाह के खिलाफ गैर-कानूनी युद्ध छेड़ने के मामले में कानूनी कार्रवाई शुरू कर दी. आंशिक रूप से यूं समझा जा सकता है कि क्या भारतीय नौसेना विद्रोह लगभग अंधकार में छुप गया, लेकिन हैरानी की बात है कि कमोबेश INA की गाथा ही भारतीय नौसेना (RIN) की हड़ताल के लिए प्रेरक बनी. जैसा कि भारत के प्रमुख इतिहासकारों में एक सुमित कुमार ने लिखा है, इस बात में कतई संदेह नहीं किया जा सकता कि ‘भले ही इसे बड़े पैमाने पर भुला दिया गया, लेकिन यह हमारे स्वतंत्रता संग्राम के अध्यायों की सबसे वीरतापूर्ण गाथाओं में है.’ खुद विद्रोहियों ने इस बात को अपने स्तर पर कम आंका कि उन्होंने क्या उपलब्धि हासिल की है. ‘हमारे राष्ट्र के जीवन काल में यह हड़ताल एक ऐतिहासिक घटना थी. पहली बार हम सरकारी नौकरीपेशा लोगों और आम आदमी का खून सड़कों पर एक ही उद्देश्य के लिए बहा था. नौकरियां कर रहे हम लोग यह कभी नहीं भूल सकते. हमें पता है कि आप हमारे भाई-बहन भी इस इस बात को नहीं भूलेंगे. हमारे महापुरुषों की जय! जय हिंद!’

सूचीबद्ध नाविकों (जिन्हें नौसेना की भाषा में ‘रेटिंग्स’ कहा जाता था) के पास शिकायतों के भंडार थे. उन्हें झूठे वादों के साथ भर्ती किया गया था, जिनमें अच्छा वेतन, अच्छा भोजन और तरक्की के साथ देश की रक्षा के लिए वर्दीधारी नौकरी की बातें शामिल थीं. हालांकि बदले में उन्हें मिला बासी-सड़ा खाना, खराब कामकाजी स्थितियां, अंग्रेज अफसरों की उदासीनता और ऐसी नस्लभेदी अपमानजनक बातें जो उन्हें बिना सिर झुकाए सुननी होती थीं. आमतौर पर पारंपरिक सोच यही है कि निचले स्तर पर काम करने वाले लोग अपने हितों बारे में नहीं सोच सकते और साथ ही यह भी कि वह अपनी छोटी-सी दुनिया से निकल बाहर संसार को नहीं देख सकते. 

बावजूद इसके रेटिंग्स और विद्रोहियों की मांग का प्रतिनिधित्व करने के लिए गठित नेवल सेंट्रल स्ट्राइक कमेटी ने स्पष्ट रूप से बताया कि उनकी कुछ और भी चिंताएं थीं. युद्ध खत्म होने का मतलब था कि नाविकों को पुनः आम नागरिकों के जीवन में लौटना पड़ेगा, जहां वापसी के बाद रोजगार की संभावनाएं न्यूनतम थीं. इसके अलावा रेटिंग्स को इस बात पर भी आपत्ति थी कि उन्हें इंडोनेशिया में तैनात किया जाएगा, जहां से जापानियों को निकालने के बाद डच लोग स्थानीय राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को कुचलते हुए, उसे अपना उपनिवेश बनाने के लिए दृढ़-प्रतिज्ञ थे. इन तमाम बातों के अलावा एक क्रूर तथ्य यह था कि भारतीय और ब्रिटिश नाविकों के साथ होने वाले बर्ताव में जमीन-आसमान का फर्क था.

18 फरवरी को HMIS तलवार, जहां पर सिगनल ट्रेनिंग का केंद्र था, पर रेटिंग्स ने हड़ताल कर दी. कहा जा सकता है कि इसकी जमीन पिछले कुछ हफ्तों से तैयार हो रही थी. HMIS तलवार का कमांडिंग ऑफिसर रेटिंग्स के साथ दुर्व्यवहार और नस्लीय अपशब्दों का इस्तेमाल करने के लिए कुख्यात था. वह आम तौर पर उन्हें भद्दी गालियों के साथ कुलियों की औलादें और जंगली कह कर संबोधित करता था. एक दिसंबर 1945 को HMIS तलवार और अन्य नौसैनिक जहाजों और समुद्र किनारे के कुछ दफ्तर इत्यादि शहर के प्रतिष्ठित लोगों को दिखाने का कार्यक्रम तय था. उस सुबह ब्रिटिश अफसरों ने देखा की परेड मैदान में जगह-जगह ‘भारत छोड़ो’, ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘उपनिवेशवाद मुर्दाबाद’ जैसे नारे लिखे हुए हैं. बाद में जांच में सुनिश्चित किया गया कि यह सीनियर टेलीग्राफिस्ट बाली चांद दत्त का काम है, जो नौसेना के साथ पांच साल से काम कर रहा था. 

उसके संस्मरणों में नौसेना के इस विद्रोह का सटीक वर्णन और वजहें मिलती हैं. प्रमोद कुमार, जिनकी RIN विद्रोह पर किताब इस निबंध के लिखते वक्त आ चुकी है, ने इस संबंध में कई कीमती और अल्प-ज्ञात तथ्य विस्तार से दर्ज किए हैं. जिनसे पता चलता है कि यह बगावत कितनी भी स्वतःस्फूर्त क्यों न रही हो, इसमें भाग लेने वाले विद्रोही कुछ इस अंदाज में हिस्सा ले रहे थे, जैसे यह क्रांति है. इसे इस घटना से यूं समझें कि भारतीय कृषि पर ब्लॉसम्स इन द डस्ट और इन डिफेंस ऑफ द इर्रेशनल पीजेंट जैसे क्लासिक लिखने वाली तत्कालीन युवा पत्रकार कुसुम नायर ने लिखा कि 17 फरवरी की शाम को उस दाल में कंकड़-पत्थर मिलाए गए, जो रेटिंग्स को परोसी जाने वाली थी. इस खाने को खाना किसी के लिए संभव नहीं था और कमोबेश विद्रोह के दिन भी यही हुआ.

यह असंतोष कितनी तेजी से फैला, यह भी जल्दी ही साफ हो गया. तीन दिन से भी कम में हड़ताल के रूप में इस विद्रोह ने अपने शिखर को छू लिया, जिसमें 75 से ज्यादा जहाज, समुद्र किनारे के करीब 20 नौसैनिक केंद्र और 26 बरस से कम आयु के बीस हजार से ज्यादा युवा इसके साथ खड़े हो गए. ब्रिटिश इसका जवाब पूरी ताकत से देना चाहते थे और खास तौर पर इसलिए कि जैसा भारत के तत्कालीन वायसराय फील्ड मार्शल मावेल ने प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली को टेलीग्राम में लिखा, ‘रॉयल एयर फोर्स के उदाहरण को देखते हुए, जो ऐसी परिस्थितियों से साफ निकल आई, वर्तमान स्थिति में उसकी कुछ जिम्मेदारी बनती है.’ सत्ता में खतरे में घंटी इस तथ्य से भी सुनाई देती है कि आश्चर्यजनक रूप से एडमिरल जॉन हेनरी गॉडफ्रे ने कहा कि उन्हें नौसेना को नष्ट होते देखना मंजूर है, लेकिन वह इस तरह का राजद्रोह बर्दाश्त नहीं करेंगे. जिस बात को कम करके नहीं आंका जा सकता, वह थी कि हड़ताल पर गए रेटिंग्स को बॉम्बे के नागरिकों और साथी कर्मचारियों का समर्थन. ये सभी नेवल सेंटर स्ट्राइक कमेटी के आह्वान के साथ शहर भर में पूरे उत्साह के साथ हड़ताल में शामिल हो गए. 

यद्यपि उस समय की दो प्रमुख राजनीतिक पार्टियों, कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने अपनी दूरंदेशी का परिचय न देते हुए हड़ताल को अपना समर्थन नहीं दिया, जबकि आम आदमी यहां अप्रत्याशित रूप से खुल कर अपने भाईचारे का प्रदर्शन कर रहा था. कई रेटिंग्स भूख-हड़ताल कर रहे थे, जबकि अन्य को ब्रिटिश सेनाओं ने घेर कर उन तक भोजन पहुंचने के रास्ते बंद कर दिए थे. जैसा कि उस समय के अखबारों से पता चलता है और लोगों के बयान भी मिलते हैं, लोग रेटिंग्स तक खुद खाना पहुंचा रहे थे और दुकानदार उनका यह कहते हुए स्वागत कर रहे थे कि जो चाहिए ले जाएं और बदले में उन्हें कोई कीमत भी नहीं चाहिए. इस बीच देश के तमाम नौसैनिक ठिकानों तक यह हड़ताल फैल गई और कराची में अंग्रेज बंदूकों की लड़ाई के बाद एचएमआईएस हिंदुस्तान पर कब्जा कर सके. 23 फरवरी को मुंबई के अखबारों पर फैलाकर लगाई गई हेडलाइंस से उस वक्त के हालात का पता चलता है कि देखते ही देखते यह शहर औपनिवेशिक नियंत्रण से बाहर हो गया. हिंदुस्तान टाइम्स ने लिखा, ‘बॉम्बे इन रिवोल्टः सिटी अ बैटलफील्ड’. मुंबई से प्रकाशित डॉन की हेडिंग थी, ‘नाइटमेयर ग्रिप्स बॉम्बे’. जबकि द स्टेट्समैन ने शीर्षक लगाया, ‘रायटर्स मशीन-गन्ड इन बॉम्बे.’

पूरे संघर्ष में करीब 400 लोग मारे गए. इन सबके बाद आखिरकार यह हड़ताल 23 फरवरी को अचानक, बिल्कुल एकाएक खत्म हो गई. कहा जाता है कि स्ट्राइक कमेटी को इस तथ्य के साथ आत्मसमर्पण के लिए मजबूर किया गया कि अरुणा आसफ अली को छोड़कर कोई राजनेता हड़ताल के साथ नहीं खड़ा है. कोई तार्किक रूप से गांधी से यह अपेक्षा कर सकता है कि भले ही वह अपने हिंसा के विरुद्ध सिद्धांतों के साथ खड़े रहते, लेकिन रेटिंग्स को हथियार डालने के लिए मनाते. हालांकि इस परिस्थिति में यह कितना कारगर होता है, इस बारे में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता. बावजूद इसके इस नौसैनिक विद्रोह के इतिहास लेखन में कई राजनीतिक हस्तियों की भूमिका जांच के दायरे में हैं, जिनकी आलोचना भी हो सकती है. कहा जाता है कि नेहरू नाविकों के पास जाकर उन्हें अपना समर्थन देना चाहते थे, लेकिन आम धारणा है कि पटेल, जिन्हें कांग्रेस ने स्ट्राइक कमेटी के सदस्यों से बातचीत का जिम्मा दिया था. उन्हें हड़बड़ी में कोई कदम न उठाने को कहा. पटेल ने रेटिंग्स को आश्वासन दिया कि उनकी शिकायतों पर ध्यान दिया जाएगा और वे आत्मसमर्पण करते हैं तो उन्हें कोई सजा नहीं दी जाएगी, इसके बाद ही रेटिंग्स ने अपनी हड़ताल वापस ली.

जैसा कि कपूर ने अपनी किताब ‘1946 द लास्ट वार ऑफ इंडिपेंडेंसः रॉयल इंडियन नेवी म्यूटिनी’ में विस्तार से लिखा है, रेटिंग्स के साथ हुई दगाबाजी हमारे इतिहास में भारतीय राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय नेतृत्व की नाकामी का एक दुखदायी और मनहूस अध्याय है. नाविकों को कैद किया गया, उन्हें कैंपों में रखा गया, उनके बकाये का भुगतान किए बगैर नौकरी से निकाल दिया गया और फिर गांवों में भेज दिया गया. उन्हें इतिहास ने भी गायब कर दिया गया. यहां ‘नाकामी’ जैसा शब्द उस पत्थर जैसी कठोर हकीकत को बयान करने के लिए नाकाफी है, जिसने पटेल, आजाद, नेहरू और जिन्ना को रेटिंग्स को भेड़ियों के सामने फेंकने को प्रेरित किया. जो लोग कांग्रेस को सिर्फ सत्ता के लिए ताम-झाम करने वाले संगठन के रूप मे देखते हैं, उनके नजरिये से निश्चित ही यह तार्किक व्याख्या है. उस समय एक देश की विरासत हाथों में आने वाली थी, जिसका एक हिस्सा कांग्रेस और दूसरा मुस्लिम लीग को मिलना था और ऐसे में जो स्वतंत्रता क्षितिज पर उभर रही थी, उसमें देश की सशस्त्र सेनाओं में विद्रोह बर्दाश्त नहीं किया जा सकता था. पटेल की जिस फौलादी व्यावहारिकता और दृढ़ संकल्प शक्ति के लिए आज नेता उनकी प्रशंसा करते हैं, उन्होंने रेटिंग्स को आत्मसमर्पण कराने के फैसले पर अपनी कार्रवाई के बचाव में लिखा, ‘सेना में अनुशासन से कोई छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए... हमें आजाद भारत में भी सेना की जरूरत पड़ेगी.’

1946 में हुए रॉयल भारतीय नौसेना विद्रोह से जुड़े कई और रोचक प्रश्न उभरते हैं, जिन्हें यहां नहीं उठाया जा सकता, लेकिन निष्कर्ष में दो बिंदुओं को पाठकों के सामने कुछ अधिक चिंतन के लिए रखा जा सकता है. पहली बात, रेटिंग्स को पूरा समर्थन देने का श्रेय केवल वामपंथियों के हिस्से में जाता है, लेकिन हमें यह भी याद रखना होगा कि भारत छोड़ो आंदोलन को अपना समर्थन न देने के साथ उन्होंने जमीन खो दी थी, लेकिन उन्होंने अभी उम्मीद नहीं छोड़ी है. कई मायनों में भारतीय वामपंथ के बारे में एक रोचक तथ्य यह है कि यहां इसकी विभिन्न किस्में हैं और कई वामपंथी संवैधानिक दायरों के भीतर मेल-मिलाप के रास्ते तलाश रहे हैं. कुछ लोग विद्रोह को मिले कम्युनिस्ट समर्थन को आज भी संदेह से देखते हुए इसकी गंभीर विवेचना की अपेक्षा करते हैं, क्योंकि कई साम्यवादी राष्ट्रों में सेना के भीतर विद्रोह के स्वरों को निर्ममता से कुचला गया है.

दूसरी बात, जिसकी ओर हर व्याख्याकार ने ध्यान दिलाया और खुद रेटिंग्स ने इसे बहुत स्पष्टता से मुखर किया कि इस विद्रोह में हिंदू-मुस्लिम एक लक्ष्य के लिए कंधे से कंधा मिला के लड़े और एक-दूसरे के लिए अपनी भाईचारे की भावनाओं का खुल कर इजहार किया. अगर वास्तव में ऐसा था तो अन्य और ऐसे कारण नजर आते हैं कि भारत में कुछ लोग इस देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की राह पर धकेलना चाहते हैं, ताकि वे धार्मिक रूप से विभाजित करने की अपनी क्षमता का जश्न मना सकें. जो सोचते हैं कि इस विद्रोह ने ब्रिटिश राज के अंत की तरफ बढ़ने की गति बढ़ा दी थी, उनके अलावा भी इस विद्रोह में सभी के लिए कुछ न कुछ है, लेकिन यह अफसोसजनक है कि विद्रोह का यह अध्याय हमारे लंबे स्वतंत्रता संग्राम की आखिरी पंक्तियों में दर्ज होता है और इतिहास में लगभग छुपा हुआ है.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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