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बिहार की बाढ़ और सुखाड़ को जानने में मदद करेगी जमींदारी बांध की समझ, सरकार यहीं रही है चूक

बिहार की समस्याओं की बात करते ही सबसे पहले बाढ़-सुखाड़ की बात होती है. विकास, रोजगार, पलायन, और अपराध आदि सब इससे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जुड़े मुद्दे हैं, जिनकी बात बाद में भी की जाये तो चलेगा. बिहार को नक़्शे पर अगर बीचोबीच गंगा नदी के ऊपर और नीचे के उत्तरी बिहार और दक्षिणी बिहार में बांट लिया जाए तो उत्तर बिहार सरकारी भाषा में बाढ़ का शिकार होता है और दक्षिणी बिहार सूखा पीड़ित होता है. वैसे, सरकार इसके लिए बाढ़ और सूखा प्रवण शब्द का प्रयोग करती है. प्रवण शब्द का अर्थ होता है जहां इतनी बार बाढ़-सूखा या कोई आपदा आ चुकी हो कि उसे आपदा संभावित और ग्रस्त दोनों एक साथ मान लिया जाए. बाढ़-सुखाड़ प्रवण इन क्षेत्रों में सरकारी नीतियां कैसे काम करती हैं, उनका एक उदाहरण जमींदारी बांधों की कहानियों से मिलता है. 

जमींदारी बांध को जानिए

अगर आपने पहले कभी जमींदारी बांध नाम न सुना हो, तो भी कोई बात नहीं क्योंकि नाम से ही आपने अंदाजा लगा लिया होगा कि पुराने दौर में अपनी रैयत को बाढ़-सुखाड़ इत्यादि से बचाने के लिए कभी जमींदारों ने ये बांध बनवाए होंगे. सामंत और जमींदार हमेशा अत्याचारी नहीं होते थे, वो जनहित के भी कई काम करवाते थे. और हां, जिस दौर में भारत में अकाल पड़ा हुआ था उस समय मुगल लोग ताजमहल भले बनवा रहे थे, बांधों के मामले में थोड़े कच्चे ही थे. मुगलों के बनाए नहर-बांध कौन से थे, ये ढूंढने के लिए आईने-अकबरी से लेकर रोमिला थापर तक की किताबें कुछ खास नहीं पता पाती हैं. बहरहाल, आजादी के बाद जमींदारी व्यवस्था बंद कर दी गयी और सबकुछ सरकार के कब्जे में आ गया. जब बांध इत्यादि बनवाने की व्यवस्था समाजवाद ने ले ली तो जमींदारी बांध भी सरकारी कब्जे में आ गए. 

इस दौर में नेताओं ने शायद मान लिया कि नदी जो है, वो तो पीडब्ल्यूडी का खुदवाया हुआ नाला है! आज यहां नाला बना है तो कल भी वहीं रहेगा, परसों भी और पचास साल बाद भी. मतलब अगर “वेल डन अब्बा” फिल्म वाले कुंए की तरह सिर्फ कागजों पर न बना हो तो वहीं रहेगा. दिक्कत ये है कि नदी एक प्राकृतिक व्यवस्था है और उसका मन ऐसे सरकारी नियमों को मानने का बिलकुल नहीं होता. सिर्फ कोसी नदी का नक्शा ढूंढेंगे तो दिख जायेगा कि ये नदी सौ वर्षों में सौ किलोमीटर तो खिसक ही गयी है. यानी कि नयी समस्या थी बार-बार तटबंधों को अलग-अलग जगह बनवाना और बार-बार उनकी मरम्मत करना. इन तटबंधों की मरम्मत की जिम्मेदारी दी गयी बिहार के जल संसाधन विभाग को लेकिन जमींदारी बांध जब सरकार ने बनवाए ही नहीं थे, केवल उन पर मालिकाना लिया था तो उनकी मरम्मत जल संसाधन विभाग क्यों करवाता?

गाद है बड़ी समस्या

इस तरह जमींदारों से अधिकार तो ले लिए गए, मगर उनके कर्तव्य कौन पूरे करेगा, यह नहीं सोचा गया. जब सरकार का ध्यान इस पर गया तो 2014 में नीतीश कुमार ने जल संसाधन विभाग को जमींदारी बांधों की भी मरम्मत करने का आदेश दिया. ये केवल अस्थायी व्यवस्था थी, कोई स्थायी मरम्मत का प्रबंध नहीं था. इसके कारण क्या होता है वो बाढ़ की खबरों को एक बार देखते ही पता चल जायेगा. इतने वर्ष बाद होश में आने पर क्या होगा? जमींदारी बांधों को चौड़ा करने और उनकी उंचाई बढ़ाने की जरूरत पड़ती है. जब सरकारी या जमींदारी तटबंध बने थे, तब नदियाँ जितनी गहरी थीं, अब गाद जमने के कारण वो उतनी गहरी नहीं रहीं. यानि नदी चौड़ाई में बढ़ रही है। जमींदारी बांध का तो अधिग्रहण हो गया लेकिन अब उन्हें ऊँचा करने के लिए जो अगल बगल की जमीन से मिट्टी खोदनी होगी, वो तो ग्रामीण किसानों की है. किसानों की जमीन लेकर उसमें खुदाई करने की हिम्मत कौन दिखायेगा?

इतने पर कहीं अगर ये सोचने लगे हैं कि जमींदारी बांध केवल बाढ़ प्रवण क्षेत्रों में बनते थे तो भोजपुर इलाके में देखना चाहिए. इस क्षेत्र में कोहड़ा बांध नाम से कम और “बाहुबली बाँध” नाम से अधिक जाना जाने वाला एक बांध विख्यात है. भोजपुर के उदवंतनगर प्रखंड में स्थित ये बांध इलाके का प्रसिद्ध पिकनिक स्पॉट भी है. करीब ढाई सौ वर्ष पुराने इस बांध को बाबू कुंवर सिंह के पूर्वजों ने बनवाया था. करीब चार किलोमीटर लम्बे इस बांध से इलाके के 7000 एकड़ में सिंचाई होती थी. जमींदारी समाप्त होने के बाद जनसहयोग से इसकी मरम्मत होती रही. सरकारी मरम्मत 1970 में हुई थी.

इन बांधों की अभी वाले बांध से जब तुलना की जाती है तो तीन मुख्य कमियां बताते हैं. पहली कि बांध में लगे मुरम-मिट्टी की गुणवत्ता कम होती है, दूसरी कि सामग्री के अनुपात में गड़बड़ी होती है और तीसरी वजह है नदियों में गाद के भरने के साथ बांधों और नदी के किनारों पर अवैध निर्माण.  नदी को नाला मान उस पर अपना मालिकाना समझ लेना, जमींदारी बांधों पर अधिकार जमाते समय उसके रखरखाव का कर्तव्य भूल जाना, ये सब असंतुलित सोच है. कर्तव्य पूरे किये बिना, सिर्फ अधिकार मांगने की बीमारी जबतक छूटेगी नही, बाढ़-सुखाड़ से दिक्कत तो होती रहेगी!

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.] 

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