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रोहित सरदाना के जाने के बाद दुख के साथ सवाल भी, सरकार से सिस्टम तक-हाशिए पर क्यों है पत्रकार

रोहित तुम जैसे गए तो ऐसा लगा कि शरीर निष्प्राण हो गया है. छाती फटने को है और दिमाग़ जैसे सुन्न... न कुछ कह पा रहा, न ही कुछ लिखने की भी हिम्मत हो रही है. जानता हूँ मृत्यु अटल है, अकाट्य है और प्रकृति में चलने वाला अनवरत क्रम है लेकिन अगर उसका आगमन असमय या अकाल हो तो दुख असहनीय हो जाता है. वही मनस्थिति खिन्न कर रही है. मगर 'ताल ठोककर' अपनी बात कहने वाला वो पत्रकार जो किसी दंगल से नहीं डरा, उसकी मौत की 'दस्तक' हुकूमत को सुनाई देना ज़रूरी है.

महामारी में जैसे मौत का नर्तन चौतरफ़ा है. संवेदनाएं ज़ख़्मी हैं, पूरी सरकारी व्यवस्था एक ऐसे फोड़े की तरह है, जिससे लगातार मवाद रिस रहा है. मौत के ऐसे नंगे नाच से आँखों का पानी भी सूखने लगा है और आत्मा तक कराह रही है. कभी आक्सीजन तो कभी दवाओं की कमी तो कभी आईसीयू और बेड न मिलने से तड़प-तड़प कर मरते लोग. अपनों को सामने प्राण छोड़ते देखना और संसाधनों का अभाव, व्यवस्था के कुप्रबंधन और असंवेदनशीलता के आगे खुद को बेबस चेहरे और निराशा और अवसाद से सनी उनकी पथराई प्रतिक्रिया देखने को सब अभिशप्त हैं. इस वेदना से लगभग हर परिवार या ख़ानदान गुजर रहा है.

उसी कड़ी में रोहित तुम्हारा जाना भी किसी भी सिस्टम के लिए सिर्फ एक आँकड़ा हो सकता है. सरकारों के लिए तो रोहित तुम भी सिर्फ वोटरलिस्ट से हटने वाला बस एक नाम हो जाओगे. मगर तुम्हारा परिवार जो पत्नी और दो बेटियों या ख़ानदान के रिश्तों तक ही सीमित नहीं था, तुम्हारे निधन की सूचना उसकी सहनशक्ति को कमजोर कर रही है. हमने एक तेजतर्रार पत्रकार ही नहीं बल्कि एक सरल और सहज व्यक्तित्व के धनी को खोया है.

ये सच है कि तुमसे मेरा संबध न पुराना था. न ही हमने साथ बहुत समय बिताया. पेशेवर साथी होने के नाते एक दूसरे को जाना और फिर एक दूसरे से गिनती की मुलाक़ातें होने के बावजूद अपनेपन ने कब जगह बना ली पता ही नहीं चला. दरअसल, तुम्हारी शख्सीयत ही ऐसी रही. टीवी के स्क्रीन पर भी मर्यादा में रहकर कैसे सवाल पूछे जाते हैं. गेस्ट को बिना बेइज़्ज़त किए और खुद पर किसी को हावी न होने देने के तुम्हारे हुनर ने हिंदुस्तान के करोड़ों लोगों का अज़ीज़ बना दिया.

जाहिर है कि देश के घर-घर तक पहुंच बनाने वाले शानदार एंकर के निधन से पूरा देश स्तब्ध रहा गया. सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलियों का सिलसिला चल पड़ा. आम लोगों की छोड़िए, देश का हर महत्वपूर्ण व्यक्ति मर्माहत है और शोक संवेदना प्रकट कर रहा है. लेकिन सरदाना के निधन और इन्हीं शोक संवेदनाओं के बीच से एक प्रश्न भी उठता है जिस पर गौर करने की जरूरत हर उस खास व्यक्ति को है जो आज एक युवा और काबिल पत्रकार के निधन पर शोक में डूबे हुए हैं.

एक सवाल
रोहित सरदाना ने देश से जुड़े हर महत्वपूर्ण सवाल पर दंगल किया और उन्हीं रोहित के कोरोना से निधन के बाद एक सवाल मैं उठा रहा हूं. सवाल ये कि कोरोना महामारी के इस भयानक दौर रोहित सरदाना के साथ ही साथ हमने कई युवा, अनुभवी और वरिष्ठ पत्रकारों को खोया है. ऐसे तमाम पत्रकारों के कोरोना की वजह से कालकलवित हो जाने की न तो चर्चा हुई और न ही किसी जनप्रतिनिधि की शोक संवेदना.

प्रश्न ये है कि फ्रंटलाइन पर अपने जान को जोखिम में डालकर देश को जागरुक करने वाला पत्रकार, सरकार से लेकर सिस्टम तक हाशिए पर क्यों है?  आखिर क्या वजह है कि हर महत्वपूर्ण सरकारी कदम और फैसले का प्रसार जनता तक करने वाल पत्रकार व्यवस्था की नजरों में गौण है? आखिर क्यों पत्रकार को फ्रंटलाइन वर्कर की श्रेणी में नहीं  रखा गया?  क्या सत्ता के शीर्ष पर विराजमान रोहित के दुखद निधन पर केवल इसलिए संवेदनशील हुए क्योंकि वो देश का चेहरा थे और उनका डिबेट घर घर देखा जाता था?

रोहित ने जिस दंगल को सवालों के साथ नंबर पायदान पर पहुंचाया उन्हीं के जाने के बाद सवालों का दंगल उठ खड़ा हुआ है. सीधा सा सवाल की पत्रकारों की पूछ क्या केवल प्रेस कॉन्फ्रेंस और बाइट्स तक ही सीमित है? आखिर क्या वजह है कि पत्रकारों को बिना बेड, ऑक्सीजन और इलाज के दम तोड़ना पड़ा? हर पत्रकार रोहित सरीखा दिलों पर राज करे ये जरूरी नहीं, लेकिन अगर वो रोहित नहीं तो वो कुछ नहीं है....ये भाव खतरनाक है और विचारणीय है.

एक बात और कचोट रही है. वो है कि रोहित की मौत के बाद जिस तरह से कुछ ख़ास लोगों ने टिप्पणी की. उनकी बेहद असंवेदनशील और अश्लील टिप्पणी पर जिस तरह से पत्रकारों के एक ख़ास वर्ग की ओढ़ी हुई उदासीनता दिखी, वह बेहद त्रास देने वाली है.

रोहित के निधन के बाद सोकॉल्ड बुद्धिजीवी गैंग का मौन ऐसी बेहूदी टिप्पणियों पर भी आश्चर्यचकित करने वाला है. लेफ्ट की लालिमा से सने वो मष्तिष्क जो अपने अलावा किसी को राइट नहीं मानते, वो एक निधन पर निर्लज्जता की सीमाओं को पार करके टिप्पणी कर रहे हैं. रोहित सरदाना के निधन पर ऐसी लेखनी तोड़ी जा रही है मानों संस्कारों की मैय्यत न जाने कब इनके जीवन से निकल गई थी. और इन्हीं संकीर्ण मानसिकताओं का समर्थन करने वाले पत्रकार गैंग का मौन रहना और खतरनाक है.
मानवीय दृष्टिकोण से भरी पत्रकारिता के स्वघोषित मसीहाओं को एक मनुष्य की मृत्यु पर किए गए अपशब्द कठोर और गलत नहीं लगते. छोटी छोटी बातों पर गाल बजा देने वाले ये पत्रकार .....मौन है. ऐसे में मन पूछता है कि आखिर ये कौन हैं?

आज मन वाकई व्यथित है, रोहित के यू असमय जाने से. मन व्यथित है रोहित की पत्नी और दोनों बेटियों टूटे दुखों के पहाड़ के गिर जाने से. मन व्यथित है पत्रकारों के हाशिए पर चले जाने से. आज मन वाकई व्यथित है बौद्धिक पलटन की मानवीयता मर जाने से. भारी मन के साथ रोहित को श्रद्धांजलि और श्रद्धाजलि उस सिस्टम को भी जिसमें जान को जोखिम में डालकर देश की सेवा करने वाले पत्रकारों का कोई मोल नहीं. समाज में एक रोहित को आने में दशकों का इंतजार करना पड़ता है और जो रोहित नहीं हो सकते उनकी विपदा और मृत्यु नगण्य है. आखिर क्यों?

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ओपिनियन

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