चीन की विस्तारवादी नजर 'कोको आइलैंड' के साथ भारत को घेरने पर भी, भारत को देना होगा रणनीतिक और सामरिक तरीके से जवाब

एक नई रिपोर्ट के बाद कोको द्वीप दोबारा से अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनने की कग़ार पर है. कोको द्वीप भारत के अंडमान-निकोबार द्वीप समूह से केवल 50 किलोमीटर की दूरी पर है और अभी म्यांमार के कब्जे में है. रिपोर्ट के मुताबिक सैटेलाइट तस्वीरें इस द्वीप पर तेज गतिविधियों की ओर इशारा करती हैं, जो भारत के लिए अच्छी ख़बर नहीं है. भारत के लिए अच्छी खबर इसलिए नहीं है क्योंकि यह चीन के दखल की ओर इशारा करती हैं. सैनिक शासन वाले म्यांमार की करीबी चीन से है और चीन इसी का फायदा उठाकर भारत पर दबाव बनाना चाहता है.
म्यांमार का सैनिक शासन चीन के करीब
पिछले कई वर्षों से कोको आइलैंड का मसला भारत और म्यांमार के बीच विवाद का मसला रहा है. यह पहली बार नहीं है कि ऐसी खबरें छन कर आई हों कि वहां चीन के माध्यम से निर्माण कार्य हो रहा है. इससे पहले भी भारत को खबरें मिली हैं कि म्यांमार ने वह आइलैंड चीन को लीज पर दे दिया है. इसके लिए थोड़ा इतिहास में जाना पड़ेगा. म्यांमार में जब पहली बार सैनिक सत्ता आई तो पंडित नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे. सैनिक शासन के पहले जो राष्ट्राध्यक्ष थे- यू नू, उनके साथ पंडित नेहरू के बड़े अच्छे और अनौपचारिक संबंध थे. जब यू नू का तख्तापलट हुआ तो चूंकि नेहरूजी की घनिष्ठ मित्रता थी उनके साथ, तो भारत ने इसको बहुत इमोशनली लिया और म्यांमार से हरेक तरह के संबंध खत्म कर लिए. इसके साथ ही दुनिया के अन्य देशों ने भी म्यांमार से हरेक तरह के संबंध खत्म कर लिए. अब बात यह है कि जब भारत सहित विश्व के अन्य देशों ने भी म्यांमार से जब संबंध खत्म कर लिए, तो उसके पास विकल्प बहुत कम बचे. चीन ने मौके का फायदा उठाया और संबंध तोड़ नहीं, बल्कि म्यांमार में जब भी सैनिक शासन रहा है, तो चीन की अच्छी गलबंहियां चली हैं. म्यांमार इसी बात की वजह से चीन के इशारे पर कई बार काम करता है, क्योंकि चीन अकेला उसके साथ खड़ा रहा है.
1990-95 में ऐसी खबरें आईं कि चीन भारत को घेर रहा है- स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स, जिसे रणनीतिक तौर पर कहते हैं. चीन के पास दरअसल अपना सागर है नहीं. उसने तो बाकी देशों से ठग कर या हड़प कर अपना सागर लिया है. मुख्य बात है कि पूरी दुनिया अभी भी पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों पर निर्भर है. चीन अपनी अबाधित ऊर्जा सप्लाई के लिए वेस्टर्न इंडियन ओशन और इंडियन ओशन से होते हुए श्रीलंका के रास्ते हाइलैंड वाले रास्ते पर ही निर्भर है. हिंद महासागर की अधिकांश सुरक्षा भारत के ही हवाले है. 1962 के युद्ध के बाद से ही चीन-भारत में तनाव है और अभी हालिया मसले भी देखें तो दोनों देशों के बीच 36 का आंकड़ा है. चीन ऊर्जा का भूखा देश है, उसकी विशाल जनसंख्या है और वह इस बात से भी डरा है कि भारत कहीं रिटैलिएट न करे. तो, भारत पर लगाम कसने के लिए वह आसपास के छोटे-छोटे आइलैंड पर निवेश कर रहा है. वह सेशेल्स हो, हरमनतोता हो, ग्वादर हो- चीन के हाथ सभी जगह हैं. पश्चिमी विद्वानों ने इसको स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स का नाम दिया है. भारत की इस पर बराबर नजर है. भारत ने इसको काउंटर करने के लिए डायमंड नेकलेस नाम से स्ट्रेटेजी बनाई है. इसमें सिंगापुर हों या छोटे-छोटे कई आइलैंड, जहां-जहां चीन के मिलिट्री बेस वाले जो आइलैंड्स हैं, उनको काउंटर करने की भारत कोशिश कर रहा है.
भारत चीन की दगाबाजी से वाकिफ
भारत ने आज ही नहीं, पहले भी कोको आइलैंड के मसले पर आपत्ति जताई है. यही वजह थी कि म्यांमार ने भारतीय नौसेना के अधिकारियों को आमंत्रित किया था कि वे कोको आइलैंड का दौरा करें और देखें कि वहां कोई मिलिट्री बेस नहीं है. हालांकि, भारतीय नौसेना के खुफिया विभाग का कहना था कि वह पूरी ट्रिप दरअसल एस्कॉर्टेड थी, यानी जहां म्यांमार के अधिकारियों ने चाहा, वही जगहें दिखाईं. भारत के लाख कहने पर भी वे जगहें नहीं दिखाईं, जहां मिलिट्री बेस का संदेह था. कोको आइलैंड बहुत नजदीक है अंडमान-निकोबार आइलैंड के. यह पहली बार कोई इस तरह की खबर नहीं आई है कि चीन ने वहां कुछ किया है. भारतीय सेना का मानना है कि चीन ने वहां 'लिस्निंग पोस्ट' बनाया था और अब उससे आगे बढ़कर वहां कुछ इंफ्रास्ट्रक्चर भी बना लिया है. कुछ इस तरह की तस्वीरें भी आई हैं, हालांकि म्यांमार इस मामले से इंकार कर रहा है. भारत इस मामले को डिप्लोमैटिकली म्यांमार के पास उठा चुका है और चूंकि हमें पहले से ऐसा कुछ संदेह था तो इसीलिए भारतीय सेना ने अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को अपना तीसरा 'नेवल बेस' घोषित कर दिया है.
एक बात ध्यान देने की बात है कि साउथ ईस्ट एशिया के जितने देश हैं, यानी- इंडोनेशिया, लाओस, थाइलैंड, म्यांमार, कंबोडिया इत्यादि, उन सभी के साथ हमारे पुराने सांस्कृतिक संबंध थे. यहां तक कि जो मंत्रपाठ हम करते हैं, संकल्प लेते हुए- ..भारतवर्षे, जंबूद्वीपे, भरतखंडे...तो जंबूद्वीप ये ही सारे देश तो हैं. ये आज के आसियान देश हैं. हमारी सांस्कृतिक धरोहर आज भी यहां बिखरे पड़े हैं, लेकिन कई वजहों से हम इनसे दूर हो गए. यहां तक कि हमारे जो दक्षिण भारतीय हिंदू राजाओं ने जो इन पर विजय पाई थी, तो खून बहाए बिना इनको सांस्कृतिक तौर पर जीता था. आजादी के बाद जब 1967 में इन देशों ने आसियान बनाया तो इन्होंने बाकायदा भारत को आमंत्रित किया था. वह आमंत्रण इसीलिए था कि सांस्कृतिक तौर पर ये देश भारत से नजदीक थे. हालांकि, ये संगठन बहुत सफल रहा और उसी से प्रेरित होकर हमने 1985 में सार्क का निर्माण किया, जो उतना सफल नहीं रहा. चीन इस बीच लगातार इनके करीब आता रहा. आखिर, 1991 में हमने अपनी भूल सुधारी और आसियान के सदस्य बने.
'लुक ईस्ट' से 'एक्ट ईस्ट' तक की यात्रा
एक बार भूल सुधार के बाद बाकायदा भारत ने साउथ ईस्ट एशिया के देशों से बरतने की पॉलिसी को नाम दिया. वह नाम था- लुक ईस्ट पॉलिसी. नरेंद्र मोदी के शासनकाल में उसी को एक्ट ईस्ट पॉलिसी का नाम दिया गया. भारत की चिंताएं बहुत हैं. वह केवल चीन को काउंटर करने के लिए नहीं है. हमारी पॉलिसी तो अपने कल्चरल हेरिटेज को फिर से इस्टैब्लिश करने के लिए, ग्लोबलाइजेशन के प्रभावों को पूरी तरह से निचोड़ने के लिए काम करने की है. भारत ने नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में बहुत कुछ हो रहा है, लेकिन धरातल पर बहुत कुछ किया जाना बाकी है. चीन की विस्तारवादी नीति तो पूरी रफ्तार से चल ही रही है. हमारी घोषणाएं साउथ ईस्ट देशों के लिए कितना अमली जामा पहन पाती हैं, यह देखने की बात होगी.
चीन बीते कुछ सालों में एक्सपोज भी हुआ है और दक्षिण-पूर्व एशिया के कई देशों में चीन-विरोधी सरकार भी देखने को मिली है. वियतनाम में चीन का विरोध हो रहा है और भारत के साथ संबंध सुधरे हैं. मलेशिया की तो पिछली सरकार इसी मसले पर आई ही कि उससे पहले की सरकारों ने चीन के सामने घुटने टेक दिए थे. इंडोनेशिया आसियान का सबसे बड़ा मुल्क है. उसकी स्वायत्तता पर भी सवाल है, तो इंडोनेशिया भी चीन से तबाह है. ये सभी देश भारत के साथ इंगेज्ड हो रहे हैं, भारत की ओर कहें तो टकटकी लगा कर देख रहे हैं. भारत इनके साथ केवल व्यावसायिक या व्यापारिक तौर पर नहीं, रणनीतिक तौर पर भी काम कर रहा है. मलेशिया के पास सुखोई विमान है औऱ उसे ट्रेनिंग हम दे रहे हैं, वियतनाम की नौसेना को भारत प्रशिक्षित कर रहा है, थाईलैंड के साथ अच्छा-खासा नौसैनिक संबंध है, सिंगापुर हमारा रणनीतिक साझीदार है और जो क्वाड की बात है, जिसमें जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर अमेरिका कहीं न कहीं चीन को लगाम लगाना चाहता है.
भारत के अपने राष्ट्रीय हित हैं. एशिया में चीन की ताकत अगर सबसे अधिक हो गई तो पहला दर्द भारत को ही मिलेगा. अभी चूंकि भारत में एक राष्ट्रवादी सरकार है, तो चीन भी पूरी तरह चौकस है, इसीलिए कहीं वह सीपेट पर पैसा लगा रहा है, कहीं कोको आइलैंड पर, पाकिस्तान औऱ श्रीलंका की बदहाली भी हमने देखी है. म्यांमार को चूंकि पता है कि चीन पर आंखें मूंदकर भरोसा करना गलत होगा, इसलिए वह भी सावधान है. धीरे-धीरे जिस तरह का चीन विरोधी माहौल बन रहा है, उसमें जरूरत इस बात की है कि भारत इन सभी देशों का भरोसा भी जीते और अपना रुतबा भी कायम करे. अगर दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से यह यात्रा शुरू हुई तो 2047 का जो सपना हम देख रहे हैं, वह पूरा होने में कसर नहीं रहेगी.
[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]