चित्रमंदिर: आज उसकी आंखों से पहले-पहल आंसू भी गिरे
वसन्त बीत चुका था. प्रचण्ड ग्रीष्म का आरम्भ था. पहाड़ियों से लाल और काले धातुराग बहने लगे थे. युवती जैसे उस जड़ प्रकृति से अपनी तुलना करने लगी. उसकी एक आंख से हंसी और दूसरे से आंसू का उद्गम हुआ करता, और वे दोनों दृश्य उसे प्रेरित किए रहते.

चित्रमंदिर
जयशंकर प्रसाद
रजनी का अन्धकार क्रमश: सघन हो रहा था. नारी बारम्बार अँगड़ाई लेती हुई सो गयी. तब भी आलिंगन के लिए उसके हाथ नींद में उठते और गिरते थे. जब नक्षत्रों की रश्मियां उज्ज्वल होने लगीं, और वे पुष्ट होकर पृथ्वी पर परस्पर चुम्बन करने लगीं, तब जैसे अन्तरिक्ष में बैठकर किसी ने अपने हाथों से उनकी डोरियाँ बट दीं और उस पर झूलती हुई दो देवकुमारियाँ उतरी.
एक ने कहा—‘‘सखि विधाता, तुम बड़ी निष्ठुर हो. मैं जिन प्राणियों की सृष्टि करती हूँ, तुम उनके लिए अलग-अलग विधान बनाकर उसी के अनुसार कुछ दिनों तक जीने, अपने संकेत पर चलने और फिर मर जाने के लिए विवश कर देती हो.’’
दूसरी ने कहा—‘‘धाता, तुम भी बड़ी पगली हो. यदि समस्त प्राणियों की व्यवस्था एक-सी ही की जाती, तो तुम्हारी सृष्टि कैसी नीरस होती और फिर यह तुम्हारी क्रीड़ा कैसे चलती? देखो न, आज की ही रात है. गंधमादन में देव-बालाओं का नृत्य और असुरों के देश में राज्य-विप्लव हो रहा है. अतलान्त समुद्र सूख रहा है. महामरुस्थल में जल की धाराएँ बहने लगी हैं, और आर्यावर्त के दक्षिण विन्ध्य के अञ्चल में एक हिरण न पाने पर एक युवा नर अपनी प्रेयसी नारी को छोड़कर चला जाता है. उसे है भूख, केवल भूख.’’
धाता ने कहा—‘‘हाँ बहन, इन्हें उत्पन्न हुए बहुत दिन हो चुके; पर ये अभी तक अपने सहचारी पशुओं की तरह रहते हैं.’’
विधाता ने कहा—‘‘नहीं जी, आज ही मैंने इस वर्ग के एक प्राणी के मन में ललित कोमल आन्दोलन का आरम्भ किया है. इनके हृदय में अब भावलोक की सृष्टि होगी.’’
धाता ने प्रसन्न होकर पूछा—‘‘तो अब इनकी जड़ता छूटेगी न?’’ विधाता ने कहा—‘‘हाँ, बहुत धीरे-धीरे. मनोभावों को अभिव्यक्त करने के लिए अभी इनके पास साधनों का अभाव है.’’
धाता कुछ रूठ-सी गयी. उसने कहा—‘‘चलो बहन, देवनृत्य देखें. मुझे तुम्हारी कठोरता के कारण अपनी ही सृष्टि अच्छी नहीं लगती. कभी-कभी तो ऊब जाती हूँ.’’
विधाता ने कहा—‘‘तो चुपचाप बैठ जाओ, अपना काम बन्द कर दो, मेरी भी जलन छूटे.’’ धाता ने खिन्न होकर कहा—‘‘अभ्यास क्या एक दिन में छूट जायगा, बहन?’’
‘‘तब क्या तुम्हारी सृष्टि एक दिन में स्वर्ग बन जायगी? चलो, सुर-बालाओं का सोमपान हो रहा है. एक-एक चषक हम लोग भी लें.’’—कहकर विधाता ने किरण की रस्सी पकड़ ली और धाता ने भी! दोनों पेंग बढ़ाने लगीं. ऊँचे जाते-जाते अन्तरिक्ष में वे छिप गयीं.
नारी जैसे सपना देखकर उठ बैठी. प्रभात हो रहा था. उसकी आंखों में मधुर स्वप्न की मस्ती भरी थी. नदी का जल धीरे-धीरे बह रहा था. पूर्व में लाली छिटक रही थी. मलयवात से बिखरे हुए केशपाश को युवती ने पीछे हटाया. हिरणों का झुण्ड फिर दिखाई पड़ा. उसका हृदय सम्वेदनशील हो रहा था. उस दृश्य को नि:स्पृह देखने लगी.
ऊषा के मधुर प्रकाश में हिरणों का दल छलाँग भरता हुआ स्रोत लांघ गया; किन्तु एक शावक चकित-सा वहीं खड़ा रह गया. पीछे आखेट करनेवालों का दल आ रहा था. युवती ने शावक को गोद में उठा लिया. दल के और लोग तो स्रोत के संकीर्ण तट की ओर दौड़े; किन्तु वह परिचित युवक युवती के पास चला आया. नारी ने उसे देखने के लिए मुंह फिराया था कि शावक की बड़ी-बड़ी आँखों में उसे अपना प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ा. क्षण-भर के लिए तन्मय होकर उन निरीह नयनों में नारी अपनी छाया देखने लगी.
नर की पाशव प्रवृत्ति जग पड़ी. वह अब भी सन्ध्या की घटना को भूल न सका था. उसने शावक छीन लेना चाहा. सहसा नारी में अद्भुत परिवर्तन हुआ. शावक को गोद में चिपकाये जिधर हिरण गये थे, उसी ओर वह भी दौड़ी. नर चकित-सा खड़ा रह गया.
नारी हिरणों का अनुसरण कर रही थी. नाले, खोह और छोटी पहाडिय़ां, फिर नाला और समतल भूमि. वह दूर हिरणों का झुण्ड, वहीं कुछ दूर! बराबर आगे बढ़ी जा रही थी. आखेट के लिए उन आदिम नरों का झुण्ड बीच-बीच में मिलता. परन्तु उसे क्या? वह तो उस झुण्ड के पीछे चली जा रही थी, जिसमें काली पीठवाले दो हिरण आगे-आगे चौकड़ी भर रहे थे.
एक बड़ी नदी के तट पर जिसे लाँघना असम्भव समझकर हिरणों का झुण्ड खड़ा हो गया था, नारी रुक गयी. शावक को उनके बीच में उसने छोड़ दिया. नर और पशुओं के जीवन में वह एक आश्चर्यपूर्ण घटना थी. शावक अपनी माता का स्तन-पान करने लगा. युवती पहले-पहल मुस्कुरा उठी. हिरणों ने सिर झुका दिये. उनका विरोध-भाव जैसे नष्ट हो चुका था. वह लौटकर अपनी गुफा में आयी. चुपचाप थकी-सी पड़ रही. उसके नेत्रों के सामने दो दृश्य थे. एक में प्रकाण्ड शरीरवाला प्रचण्ड बलशाली युवक चकमक के फल का भाला लिये पशुओं का अहेर कर रहा था. दूसरे में वह स्वयं हिरनों के झुण्ड में घिरी हुई खड़ी थी. एक में भय था, दूसरे में स्नेह. दोनों में कौन अच्छा है, वह निश्चय न कर सकी. भाग 3
नारी की दिनचर्या बदल रही थी. उसके हृदय में एक ललित भाव की सृष्टि हो रही थी. मानस में लहरें उठने लगी थीं. पहला युवक प्राय: आता, उसके पास बैठता और अनेक चेष्टाएँ करता; किन्तु युवती अचल पाषाण-प्रतिमा की तरह बैठी रहती. एक दूसरा युवक भी आने लगा था. वह भी अहेर का मांस या फल कुछ-न-कुछ रख ही जाता. पहला इसे देखकर दाँत पीसता, नस चटकाता, उछलता, कूदता और हाथ-पैर चलाता था. तब भी नारी न तो विरोध करती, न अनुरोध. उन क्रोधपूर्ण हुँकारों को जैसे वह सुनती ही न थी. यह लीला प्राय: नित्य हुआ करती. वह एक प्रकार से अपने दल से निर्वासित उसी गुफा में अपनी कठोर साधना में जैसे निमग्न थी.
एक दिन उसी गुफा के नीचे नदी के पुलिन में एक वराह के पीछे पहला युवक अपना भाला लिये दौड़ता आ रहा था. सामने से दूसरा युवक भी आ गया और उसने अपना भाला चला ही दिया. चोट से विकल वराह पहले युवक की ओर लौट पड़ा, जिसके सामने दो अहेर थे. उसने भी अपना सुदीर्घ भाला कुछ-कुछ जान में और कुछ अनजान में फेंका. वह क्रोध-मूर्ति था. दूसरा युवक छाती ऊँची किये आ रहा था. भाला उसमें घुस गया. उधर वराह ने अपनी पैनी डाढ़ पहले युवक के शरीर में चुभो दी. दोनों युवक गिर पड़े. वराह निकल गया. युवती ने देखा, वह दौड़कर पहले युवक को उठाने लगी; किन्तु दल के लोग वहाँ पहुँच गये. उनकी घृणापूर्ण दृष्टि से आहत होकर नारी गुफा में लौट गयी.
आज उसकी आंखों से पहले-पहल आंसू भी गिरे. एक दिन वह हंसी भी थी. मनुष्य-जीवन की ये दोनो प्रधान अभिव्यक्तियां उसके सामने क्रम से आयीं. वह रोती थी और हंसती थी, हंसती थी फिर रोती थी.
वसन्त बीत चुका था. प्रचण्ड ग्रीष्म का आरम्भ था. पहाड़ियों से लाल और काले धातुराग बहने लगे थे. युवती जैसे उस जड़ प्रकृति से अपनी तुलना करने लगी. उसकी एक आंख से हंसी और दूसरे से आंसू का उद्गम हुआ करता, और वे दोनों दृश्य उसे प्रेरित किए रहते.
नारी ने इन दोनों भावों की अभिव्यक्ति को स्थायी रूप देना चाहा. शावक की आंखों में उसने पहला चित्र देखा था. कुचली हुई वेतस की लता को उसने धातुराग में डुबोया और अपनी तिकोनी गुफा में पहली चितेरिन चित्र बनाने बैठी. उसके पास दो रंग थे, एक गैरिक, दूसरा कृष्ण. गैरिक से उसने अपना चित्र बनाया, जिसमें हिरनों के झुण्ड में स्वयं वही खड़ी थी, और कृष्ण धातुराग से आखेट का चित्र, जिसमें पशुओं के पीछे अपना भाला ऊंचा किये हुए भीष्म आकृति का नर था.
नदी का वह तट, अमंगलजनक स्थान बहुत काल तक नर-सञ्चार-वर्जित रहा; किन्तु नारी वहीं अपने जीवनपर्यन्त उन दोनों चित्रों को देखती रहती और अपने को कृतकृत्य समझती.
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(जयशंकर प्रसाद की कहानी का यह अंश प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित)
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