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शिवराज सिंह चौहान का पीड़ित आदिवासी का पैर धोना संवेदनशीलता दिखाता है या फिर है राजनीतिक मजबूरी

जहां एक तरफ बीजेपी, कांग्रेस समेत तमाम पार्टियां मध्य प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुटी हैं, वहीं दूसरी तरफ प्रदेश के सीधी जिले में एक ऐसी घटना हो जाती है, जिससे पूरा देश सन्न रह जाता है. सीधी जिले में प्रवेश शुक्ला का एक वीडियो वायरल होता है, जिसमें वो नशे में धुत होकर एक आदिवासी दशमत रावत के ऊपर पेशाब कर रहा होता है. ये पूरा वाक्या इतना ज्यादा घिनौना था कि जिसने भी देखा कुछ पलों के लिए अवाक रह गया. इस शर्मनाक हरकत को करने वाले शख्स को बीजेपी का कार्यकर्ता बताया जा रहा है.

मानवता को शर्मसार करने वाली घटना

पूरे देश और मानवता के लिए तो ये घटना शर्मसार करने वाली थी ही, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और बीजेपी के वरिष्ठ नेता शिवराज सिंह चौहान के लिए तो ये वाक्या 'काटो तो खून नहीं' मुहावरे के समान था. शिवराज सिंह चौहान सत्ता बरकरार रखने के लिए दिन-रात कड़ी मेहनत कर रहे हैं, ऐसे में इस घटना से उनकी नींद उड़ गई. सोशल मीडिया में वीडियो के वायरल होते ही मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सख्त कार्रवाई का आदेश दिया.  आनन-फानन में आरोपी युवक की गिरफ्तारी हुई और उस पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (NSA) के तहत कार्रवाी शुरू की गई है. अतिक्रमण का हवाला देकर उसके घर पर बुलडोजर चलाया गया.

सीएम शिवराज ने पीड़ित आदिवासी के धोए पैर

इन सबके बावजूद शिवराज सिंह चौहान को ये बात भलीभांति पता है कि इस घटना का आगामी चुनाव पर कितना गंभीर असर पड़ सकता है. आगामी चुनाव को देखते हुए मामला को ज्यादा तूल न मिले, इसलिए शिवराज सिंह चौहान 6 जुलाई को पीड़ित आदिवासी युवक से भोपाल में सीएम आवास पर मुलाकात करते हैं. इतना ही नहीं शिवराज सिंह चौहान कोल समुदाय से आने वाले दशमत रावत के पैर धोते हैं और शॉल और श्रीफल देकर सम्मानित करते हैं.

कमलनाथ ने कैमरे के सामने नाटक बताया

हालांकि कांग्रेस की ओर से सीएम शिवराज सिंह चौहान के इस प्रकरण की आलोचना की जाती है. मध्य प्रदेश में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने इसे कैमरे के सामने सीएम शिवराज सिंह चौहान का नाटक करार दिया. उन्होंने इतना तक कहा कि इससे उनके कार्यकाल के दौरान किए गए पाप धुल नहीं जाएंगे.

प्रवेश शुक्ला ने जो हरकत की, उसकी जितनी निंदा की जाए, वो कम ही है. आजादी के 75 साल बाद भी अगर देश में इस तरह की घटना हो रही है, तो ये देश के हर सरकार के साथ ही समाज के हर लोगों के लिए गंभीर मंथन करने की बात है.

चुनाव को देखते हुए सियासी असर

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जिस तरह की संवेदनशीलता दिखाई, इसमें कोई दो राय नहीं है कि वो काबिले तारीफ है. उन्होंने अपने सहृदयता से प्रदेश के हर लोगों के साथ ही पूरे देशवासियों को भी एक संदेश दिया है. हालांकि शिवराज सिंह चौहान ने जिस तरह से पूरे मामले को संभालने की कोशिश की है, उसके सियासी मायने भी निकाले जा रहे हैं.

एमपी में आदिवासियों की आबादी सबसे ज्यादा

चूंकि मध्य प्रदेश के ऐसा राज्य है जहां देश में आदिवासियों की आबादी सबसे ज्यादा है. यहां 46 मान्यता प्राप्त जनजातियां हैं. विधानसभा चुनाव सिर पर है और ऐसे में सत्ता बरकरार रखने की चुनौती से जूझ रहे शिवराज सिंह चौहान पर इस पेशाब कांड के बाद अनुसूचित जनजातियों की नाराजगी भारी पड़ सकता है.

2011 की जनगणना के मुताबिक मध्य प्रदेश में अनुसूचित जनजातियों की संख्या 1.53 करोड़ से ज्यादा थी. प्रदेश की कुल जनसंख्या में आदिवासियों की संख्या 21 फीसदी से ज्यादा है. मध्य प्रदेश देश का एक ऐसा राज्य है, जहां हर पांचवां आदिवासी समुदाय से आता है. यहां आदिवासियों में सबसे ज्यादा संख्या भील की है, उसके बाद गोंड और कोल का नंबर आता है.

विधानसभा में 47 सीटें एसटी के लिए आरक्षित

जहां तक चुनावी गणित की बात है तो मध्य प्रदेश विधानसभा में कुल 230 सीटें हैं, जिनमें से 47 सीटें आदिवासियों (ST) के लिए और 35 सीटें अनुसूचित जातियों (SC) के लिए आरक्षित हैं. देश में मध्य प्रदेश ऐसा राज्य हैं जहां सबसे ज्यादा विधानसभा सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं.

वहीं मध्य प्रदेश में कुल 29 लोकसभा सीटें हैं, जिनमें से 6 सीटें आदिवासियों के लिए और 4 सीटें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित हैं. देश में मध्य प्रदेश ऐसा राज्य है जहां सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं. ये तो सिर्फ अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों की बात है. इनके अलावा भी यहां विधान सभा और लोकसभा की बहुत सीटें ऐसी हैं, जिन पर जीत-हार में आदिवासियों का वोट निर्णायक होता है.

आदिवासी वोट बैंक है सत्ता की कुंजी

ये आंकड़े बताने के लिए काफी है कि मध्य प्रदेश एक जनजातीय राज्य है. इसी वजह से यहां का आदिवासी वोट बैंक किसी भी पार्टी के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. मध्य प्रदेश में सत्ता में कौन आएगा और किसके हाथ से सत्ता जाएगी, ये बहुत कुछ यहां के आदिवासियों के समर्थन पर टिका रहता है.

पिछले कई विधानसभा चुनाव से आदिवासियों का भरपूर समर्थन बीजेपी को मिलता रहा था, लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी का प्रदर्शन आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों पर उतना अच्छा नहीं रहा था. यही वजह है कि 2018 के चुनाव में बीजेपी बहुमत से दूर रह गई थी और शिवराज सिंह चौहान को सत्ता से हाथ धोना पड़ा था. ये तो ज्योतिरादित्य सिंधिया का कमाल था कि बाद में मध्य प्रदेश में बीजेपी फिर से सरकार बनाने में कामयाब हो पाई.

2018 में आदिवासियों का नहीं मिला था साथ

2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को एसटी समुदाय के लिए आरक्षित 47 में से सिर्फ़ 16 सीटों पर ही जीत मिल पाई थी. जबकि 2008 और 2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी इनमें से 31-31 सीटों पर जीतने में कामयाब रही थी. इसके बावजूद विंध्य रीजन में जहां कोल आदिवासियों की संख्या 2011 की जनगणना के मुताबिक 12 लाख है, उस रीजन में  2018 में 30 में से 24 सीटें बीजेपी जीतने में कामयाब रही थी. विध्य रीजन में सीधी, सिंगरौली, अनूपपुर, सतना और रीवा का इलाका आता है.

आदिवासियों के साथ अगर एससी के लिए आरक्षित सीटें मिला दें तो विधानसभा में आरक्षित सीटें 82 हो जाती हैं. मध्य प्रदेश में करीब 36% विधानसभा सीटें एससी और एसटी के लिए आरक्षित हैं. बीजेपी ने आरक्षित सीटों में से 2003 में  67 सीटें  और 2008 में 54 सीटें जीती थी. वहीं कांग्रेस को 2003 में सिर्फ 5 और 2008 में 26 आरक्षित सीटों पर जीत मिली थी.

बीजेपी ने 2013 विधानसभा चुनाव में आरक्षित 82 में से 59 पर जीत हासिल की थी. जबकि उस वक्त कांग्रेस को इनमें से महज़ 19 सीटें ही मिली थी. 2013 में बीजेपी ने एसटी के लिए आरक्षित 47 में से 31 और एससी के लिए आरक्षित 35 में  28 सीटों पर जीत हासिल की थी.

2018 में कांग्रेस को मिला था आदिवासियों का साथ

इसके विपरीत 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को इन 82 आरक्षित सीटों में से सिर्फ 34 पर ही जीत मिली थी और कांग्रेस इनमें से 47 सीटें जीतने में कामयाब रही थी. इससे जाहिर है कि आरक्षित सीटों पर खराब प्रदर्शन की वजह से पिछली बार बीजेपी बहुमत हासिल करने से चूक गई थी और उसे बहुमत के आंकड़े 116 से 7 कम यानी 109 सीटों पर जीत मिली थी. वहीं इन आरक्षित सीटों पर बीजेपी को पछाड़कर कांग्रेस बहुमत के बेहद नजदीक पहुंचते हुए 114 सीटें जीत गई थी.

इन बातों से स्पष्ट है कि पिछली बार विधानसभा चुनाव में आदिवासियों और दलितों का भरोसा जीतने में बीजेपी उस तरह से सफल नहीं रही थी, जिस तरह से पहले होते आ रहा था. अब जब चुनाव के 3-4 महीने ही रह गए हैं, तो सीधी में हुई घटना से आदिवासियों में बीजेपी को लेकर नाराजगी और भी बढ़ सकती है, इस आशंका से कोई भी इनकार नहीं कर सकता.

ऐसे भी ये दिलचस्प पहलू है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में वोट शेयर ज्यादा होने के बावजूद बीजेपी को कांग्रेस से कम सीटें हासिल हुई थी. ऐसे में आदिवासियों के वोट का मायने बीजेपी के लिए और भी बढ़ जाता है.

एसटी के लिए 6 लोकसभा सीट भी आरक्षित

लोकसभा के नजरिए से भी मध्य प्रदेश बीजेपी के लिए उन राज्यों में शामिल है, जहां पार्टी शत-प्रतिशत सीटें जीतने का लक्ष्य लेकर चलती है. 2009 के लोकसभा चुनाव में  बीजेपी को कुल 29 में से 25 सीटों पर जीत मिली थी. वहीं 2014 में 27 और 2019 के लोकसभा चुनाव में 28 सीटों पर जीत मिली थी. यहां की शहडोल, मंडला, रतलाम, धार, खरगौन और बैतूल  लोकसभा सीट एसटी के लिए आरक्षित हैं. 2014 और 2019 दोनों ही लोकसभा चुनाव में बीजेपी को इन सभी 6 सीटों पर जीत मिली थी. वहीं 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी इनमें से सिर्फ दो सीट बैतूल  और खरगौन ही जीत पाई थी, जबकि कांग्रेस को शहडोल, मंडला, रतलाम और धार लोकसभा सीट पर जीत मिली थी. ये आंकड़े बताते हैं कि 2014 से लोकसभा में आदिवासियों का भरपूर समर्थन बीजेपी को मिल रहा है.

मध्य प्रदेश में सत्ता हासिल करने की कुंजी आरक्षित सीटें ही हैं. उसमें भी आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या ज्यादा होने से एसटी वोट बैंक का महत्व और बढ़ जाता है. यही वजह है कि सीधी की घटना के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जिस तरह से पीड़ित आदिवासी को सीएम आवास में बुलाकर सम्मानित किया, उसके सियासी मायने भी निकाले जा रहे हैं.

आदिवासियों की नाराजगी पड़ सकती है महंगी

विधानसभा चुनाव और आगामी लोकसभा चुनाव के नजरिए से सीधी की घटना से मध्य प्रदेश में आदिवासियों की नाराजगी का खामियाजा नहीं भुगतना पड़े, इसका बीजेपी के शीर्ष नेताओं को बखूबी आभास होगा.

सीधी की घटना इतनी ज्यादा शर्मनाक है कि इसका असर बाकी के राज्यों में भी देखने को मिल सकता है. आरोपी को कांग्रेस, बीजेपी का कार्यकर्ता बता रही है. कांग्रेस की ओर से कहा जा रहा है कि आरोपी प्रवेश शुक्ला सीधी से बीजेपी विधायक केदारनाथ शुक्ला का पूर्व प्रतिनिधि है. चुनावों में कांग्रेस इसे बीजेपी के खिलाफ इस्तेमाल करेगी, इसकी भी पूरी संभावना है.

बाकी राज्यों पर भी पड़ सकता है असर

मध्य प्रदेश के अलावा इस साल पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना में भी विधानसभा चुनाव होना है, जहां आदिवासियों की संख्या निर्णायक साबित होती है. छत्तीसगढ़ की आबादी में आदिवासियों की संख्या 30 फीसदी से ज्यादा है, तो राजस्थान में 13 फीसदी से ज्यादा आदिवासी आबादी है. वहीं तेलंगाना के लिए ये आंकड़ा 9 फीसदी से ज्यादा है. ये तीनों राज्य में फिलहाल बीजेपी की सत्ता नहीं है. छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल की अगुवाई में कांग्रेस का दावा बेहद मजबूत नज़र आ रहा है. वहीं राजस्थान में भी कांग्रेस से सत्ता छीनने के लिए बीजेपी को कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी. जबकि दक्षिण भारत में अपने पैर पसारने के मंसूबे से बीजेपी इस बार तेलंगाना पर नज़र टिकाए हुए है.

5वीं बार मुख्यमंत्री बनने का मंसूबा

दिसंबर 2018 से मार्च 2020 के 15 महीनों को छोड़ दिया जाए, तो शिवराज सिंह चौहान 29 नवंबर 2005 से मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं. मुख्यमंत्री के तौर पर उनका 17वां साल है. ऐसे में इस बार विधानसभा चुनाव में उनकी सबसे बड़ी चुनौती एंटी इनकंबेंसी यानी सत्ता विरोधी लहर है. उसके साथ ही इतने सालों से सत्ता संभालने के बाद पार्टी के भीतर भी उनके खिलाफ कई गुट सक्रिय हैं. इन हालातों में सीधी में आदिवासी युवक के साथ इस तरह की शर्मनाक घटना से पार्टी की जीत के साथ ही उनके 5वीं बार मुख्यमंत्री बनने के मंसूबे पर कोई आंच न आए, इस लिहाज से भी ये जरूरी हो गया था कि शिवराज सिंह चौहान को आरोपी के खिलाफ सख्त कार्रवाई के साथ ही प्रदेश की जनता के बीच सामाजिक समरसता का संदेश देना था. उससे भी जरूरी ये बात थी कि आदिवासियों को ये मैसेज देना था कि बीजेपी की शिवराज सरकार आदिवासियों के खिलाफ किसी भी अमानवीय कार्रवाई को कतई बर्दाश्त नहीं करेगी.

देश के शीर्ष नेतृत्व से भी मिले संदेश

ये तो राजनीतिक समीकरण की बात थी, लेकिन सीधी की घटना को सिर्फ राजनीतिक नजरिए तक ही सीमित नहीं किया जा सकता. ऐसे तो देश के अलग-अलग हिस्सों से एससी-एसटी समुदाय के लोगों के साथ भेदभाव और उत्पीड़न की खबरें अक्सर आते रहती हैं, लेकिन सीधी की घटना अपने आप में रूह कंपा देने वाली है. ये सभ्य समाज के ऊपर एक तमाचा सरीखा है. ये ऐसी घटना नहीं है, जो सिर्फ सीधी या मध्य प्रदेश तक ही सीमित हो. ये हम सबके इंसान होने दावे पर सवालिया निशान लगाने वाली घटना है.

सीधी की घटना जीवन की गरिमा और सम्मान के साथ जीने के मौलिक अधिकार के साथ ही नैसर्गिक नियमों के भी खिलाफ है. मानवता के खिलाफ है. यही वजह है कि इस तरह की घटनाओं के खिलाफ न सिर्फ राजनीतिक और सामाजिक प्रतिबद्धता दिखनी चाहिए बल्कि देश के शीर्ष नेतृत्व की ओर से भी ऐसे मसलों पर बड़े ही सख्ती से बोले जाने की जरूरत है. तभी शायद भविष्य में इस तरह की घटनाओं पर पूरी तरह से रोक लग सकती है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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