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केशवानंद भारती केस, संविधान के मूल ढांचे से जुड़ा फैसला, 50 साल से नागरिक अधिकारों के लिहाज से मील का पत्थर

भारतीय लोकतंत्र और उसके हर स्तंभ विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के लिए 24 अप्रैल का दिन ऐतिहासिक है. आज से 50 साल पहले ही न्यायपालिका प्रणाली में देश के सर्वोच्च अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट से एक ऐसा फैसला आया था, जो हमेशा-हमेशा के लिए नज़ीर बन कर रहेगा. ये केस न सिर्फ़ भारत बल्कि दुनिया के तमाम देशों के लिए कानूनी अनुसंधान का विषय वस्तु बन चुका है.

भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में 24 अप्रैल 1973 की तारीख इतिहास के सुनहरे अक्षरों में दर्ज है. इस दिन देश की सबसे बड़ी अदालत ने हमारे न्यायिक इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण अध्याय की रचना की थी. केशवानंद भारती मामले में जो ऐतिहासिक फैसला आया था, वो आज भी भारतीय न्यायपालिका के साथ ही विधायिका को भी राह दिखाने का काम कर रहा है.

'केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य' मामले में 24 अप्रैल 1973 को सुप्रीम कोर्ट की 13 सदस्यीय बेंच ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया था. इस फैसले के जरिए संविधान की मूल संरचना या मूल ढांचा या फिर कहे बेसिक स्ट्रक्चर का कॉन्सेप्ट निकलकर सामने आया था. 24 अप्रैल 2023 को इस मामले में आए फैसले के 50 साल पूरे हो गए हैं.

सुप्रीम कोर्ट चाहती है कि इस केस की हर बारीकियों से न सिर्फ कानून की पढ़ाई करने वाले अवगत हों, बल्कि देश-दुनिया के बाकी लोग भी इसे पढ़ सकें, समझ सकें. इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने 24 अप्रैल को केशवानंद भारती मामले से जुड़ी हर बारीकियों  से संबंधित एक वेब पेज शुरू किया है. इस वेब पेज पर संविधान के 'मूल ढांचे' की अहम अवधारणा पेश करने वाले केस से जुड़ी दलीलों, लिखित प्रतिवेदनों और फैसले की जानकारी है.

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ का मानना है कि इस पेज का इस्तेमाल दुनिया लॉ रिसर्च करने के लिए करेगी. उन्होंने कहा है कि हमने एक वेब पेज समर्पित किया है, जिसमें केशवानंद मामले से संबंधित सभी लिखित प्रतिवेदन और अन्य जानकारी है, ताकि विश्व भर के शोधकर्ता इसे पढ़ सकें.

केशवानंद भारती मामला कई मायनों में ऐतिहासिक है. इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में 13 जजों की संवैधानिक पीठ ने की थी. ये भारतीय न्यायपालिका के इतिहास की सबसे बड़ी बेंच है. हमारे लीगल सिस्टम में ये पहला और आखिरी मौका था जब किसी मामले की सुनवाई के लिए इतनी बड़ी जजों की पीठ बनी थी.

इस बेंच में तत्कालीन चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एस. एम. सीकरी, जस्टिस जेएम शेलट, जस्टिस केएस हेगड़े, जस्टिस एएन ग्रोवर, जस्टिस एएन रे, जस्टिस पी जगनमोहन रेड्डी, जस्टिस डीजी पालेकर, जस्टिस एचआर खन्ना, जस्टिस केके मैथ्यू, जस्टिस एमएच बेग, जस्टिस एसएन द्विवेदी, जस्टिस बीके मुखर्जी और जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़ शामिल थे.

केशवानंद भारती मामले को समझने से पहले इसकी पृष्ठभूमि जानना जरूरी है. सवाल उठता है कि इतनी बड़ी पीठ की जरूरत क्यों पड़ी थी. इसके लिए हमें उस वक्त के राजनीतिक माहौल पर एक नज़र डालनी होगी. कांग्रेस नेता इंदिरा गांधी जनवरी 1966 में देश की प्रधानमंत्री बनती हैं. प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही उनकी और सुप्रीम कोर्ट के बीच तनातनी शुरू हो जाती है. इंदिरा गांधी कई ऐसे फैसला लेती हैं, जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती मिलती है और सुप्रीम कोर्ट से इंदिरा गांधी के पक्ष में फैसले नहीं आते हैं. हम कह सकते हैं कि कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट की वजह से इंदिरा गांधी के मंसूबों पर पानी फिर जाता है.

संविधान के अनुच्छेद 368 में संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार हासिल है और संविधान लागू होने के एक साल बाद ही इसी से जुड़ा एक सवाल उठने लगा कि क्या संसद मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर सकती है. 1951 के शंकरी प्रसाद मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसद के लिए अनुच्छेद 368 में संशोधन की शक्ति के तहत ही मौलिक अधिकारों में संशोधन की शक्ति निहित है.

लेकिन 1967 में सुप्रीम कोर्ट ने पहले वाली स्थिति बदल दी. 1967 में गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसला दिया. कोर्ट ने 17वें संविधान संशोधन अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती से जुड़े केस में ये फैसला दिया कि संसद मौलिक अधिकार में न तो कटौती कर सकती है और न ही नागरिकों के किसी मौलिक अधिकार को छीन सकती है.

इस फैसले के बाद इंदिरा गांधी की सरकार ने संसद से 24वां संविधान संशोधन अधिनियम 1971 बनवाया. इस अधिनियम के जरिए सरकार ने अनुच्छेद 13 और अनुच्छेद 368 में ही संशोधन कर दिया. दरअसल अनुच्छेद 13 में ही सुप्रीम कोर्ट को ये अधिकार है कि वो संसद के किसी भी कानून की न्यायिक समीक्षा कर सके, जब मामला मौलिक अधिकार की कटौती या उसे कम करने से जुड़ा है. इंदिरा गांधी सरकार ने 24वें संशोधन अधिनियम से ये व्यवस्था बना दी कि संसद को मौलिक अधिकारों को सीमित करने और किसी भी मौलिक अधिकार को वापस लेने की शक्ति है और ऐसा कोई भी कानून अनुच्छेद 13 के दायरे में आने वाला कानून नहीं माना जाएगा. इस तरह से इसके जरिए इंदिरा गांधी की सरकार ने मौलिक अधिकार में कटौती या वापसी से जुड़े हर तरह के कानून को सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक समीक्षा के दायरे से ही बाहर कर दिया.

24वां संविधान संशोधन अधिनियम से पहले  इंदिरा गांधी की सरकार ने एक अध्यादेश के जरिए 19 जुलाई 1969 को पीएनबी समेत देश के 14 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इसे जल्दबाजी में लिया गया फैसला कह कर रद्द कर दिया. उसी तरह जब इंदिरा गांधी ने  रजवाड़ों को मिलने वाले 'प्रिवी पर्स' खत्म करने का फैसला किया तो  उसे भी सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक ठहरा दिया. इंदिरा गांधी की सरकार ने इसके बाद एक-एक कर संविधान में संशोधन कर सुप्रीम कोर्ट के हर फैसले को पलट दिया और फिर उसके बाद 24वें संविधान संशोधन के जरिए सुप्रीम कोर्ट के मौलिक अधिकार से जुड़े कानून की न्यायिक समीक्षा के अधिकार को ही सीमित कर दिया.

इस तरह से गोलकनाथ केस, बैंकों के राष्ट्रीयकरण और रजवाड़ों को मिलने वाले 'प्रिवी पर्स' के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसले दिए थे, उन्हें संविधान संशोधन करके इंदिरा गांधी ने एक-एक कर रद्द कर दिया था. इतना ही नहीं विधायिका को अब मौलिक अधिकार में संशोधन का अधिकार मिल गया था. धीरे-धीरे इंदिरा गांधी संविधान में संशोधन कर एक तरह से निरंकुशता की ओर बढ़ने लगी थीं. इन परिस्थितियों में 1973 के केशवानंद भारती मामले में आया फैसला बेहद महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक बन गया. हम कह सकते हैं कि इन सभी संशोधन को एक तरह से केशवानंद भारती मामले में चुनौती मिली थी.

दरअसल केशवानंद भारती केरल के एक धार्मिक मठ के प्रमुख थे और केरल की सरकार ने उनके मठ के प्रबंधन के अधिकार को सीमित कर दिया था, जिसके खिलाफ वो सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे.

केशवानंद भारती मामले में 13 जजों की संविधान पीठ को कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर गौर करना था. 70 के दशक के शुरुआती सालों में इंदिरा गांधी की सरकार मे लगातार संविधान में संशोधन किए थे. ये सवाल उठने लग गया था कि क्या संसद के जरिए मनमाने तरीके से संविधान में कुछ भी बदलाव किया जा सकता है. केशवानंद भारती मामले में 13 जजों की पीठ को यही समाधान निकालना था कि क्या संविधान में संशोधन की असीमित शक्ति संसद के पास है.

इस पीठ ने करीब 70  दिनों तक मामले की सुनवाई की थी. फैसला देने से पहले पीठ ने सैकड़ों नजीरों और 70 से ज्यादा देशों के संविधान का अध्ययन किया था. फैसला कितना बड़ा था, ये आप इससे समझ सकते हैं कि ये कुल 703 पन्नों में था.

13 सदस्यीय पीठ ने आम सहमति से ये फैसला नहीं सुनाया था, बल्कि ये फैसला छह के मुकाबले सात के बहुमत से सुनाया गया था, जिसके जरिए संविधान के मूल ढांचे की अवधारणा बनी. मूल ढांचे की अवधारणा से सुनिश्चित किया गया कि संसद को मिले संविधान संशोधन के अधिकार के नाम पर देश के संविधान में हर तरह का बदलाव नहीं किया जा सकता है.. एक तरह से देश की सर्वोच्च अदालत ने संसद की संविधान संशोधन की शक्ति को असीमित नहीं रहने दिया. इस फैसले के बाद ये तय हो पाया कि संसद संविधान में संशोधन को कर सकती है, लेकिन संविधान की मूल संरचना को नहीं छू सकती है, संविधान के मूल ढांचे को भंग नहीं कर सकती है.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के मूल ढांचे की अवधारणा को लाते हुए भी इस फैसले में गोलकनाथ मामले के अपने पुराने फैसले को ओवर रूल कर दिया था. कोर्ट ने 24वें संविधान संशोधन की वैधता को बहाल रखा और ये व्यवस्था दी कि संसद मौलिक अधिकारों को सीमित कर सकती है या किसी अधिकार को वापस ले सकती है. लेकिन जिस वजह से ये मामला ऐतिहासिक बना , वो था सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिया गया नया सिद्धांत- संविधान की मूल संरचना( Basic Structure) का सिद्धांत. इस फैसले और इस अवधारणा के बाद ये तय हो गया कि अनुच्छेद 368 के तहत संसद को हासिल संवैधानिक अधिकार उसे संविधान के मूल ढांचे में बदलाव का अधिकार नहीं देता है. इसी से ये अर्थ निकला कि संसद मौलिक अधिकारों को सीमित नहीं कर सकती या वैसे मौलिक अधिकारों को वापस नहीं ले सकती जो संविधान की मूल संरचना से जुड़े हैं.

सबसे दिलचस्प पहलू है कि संविधान के मूल ढांचे क्या-क्या हैं, ये संविधान में कहीं नहीं लिखा है. केशवानंद भारती मामले के बाद सुप्रीम कोर्ट के ही अब तक के अलग-अलग फैसलों के आधार पर मूल संरचना में आने वाले घटकों की पहचान की जाती है. उदाहरण के तौर पर संविधान की सर्वोच्चता, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति का बंटवारा, संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र, संविधान का संघीय चरित्र, न्यायिक समीक्षा, संसदीय प्रणाली, स्वतंत्र न्यायिक प्रणाली जैसे विषय संविधान के मूल ढांचे में शामिल हैं.

केशवानंद भारती मामले में आए फैसले से ये तय हो गया कि संसद मौलिक अधिकारों में भी संशोधन तो जरूर कर सकती है, लेकिन ऐसा कोई संशोधन करने का अधिकार संसद के पास नहीं रहा, जिससे संविधान के मूल ढांचे (बेसिक स्ट्रक्चर) में कोई बदलाव होता हो या उसका मूल स्वरूप बदलता हो.

केशवानंद भारती केस में आए फैसले ने ये तो स्थापित कर दिया कि देश में संविधान से ऊपर कोई नहीं है, चाहे संसद ही क्यों न हो.  इस फैसले के बाद  भारत की न्यायिक प्रणाली में बहुत उथल-पुथल भी हुआ. इस फैसले से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बौखला गई थीं. फैसला सुनाने वाले जजों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा.

केशवानंद भारती केस में फैसले के अगले ही दिन तत्कालीन चीफ जस्टिस  एस. एम. सीकरी का कार्यकाल खत्म हो रहा था. देश के14वां चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की नियुक्ति होनी थी. इंदिरा गांधी ने एएन रे को चीफ जस्टिस नियुक्त करवा दिया, जबकि उनसे वरिष्ठ तीन जज उस वक्त सुप्रीम कोर्ट में थे. इन तीन जजों ने केशवानंद भारती मामले में सरकार के पत्र का फैसला नहीं दिया था, इस वजह से उनको दरकिनार कर जस्टिस एएन रे को चीफ जस्टिस बना दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट के अब तक के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ था, लिहाजा उन तीनों वरिष्ठ जजों ने तत्काल अपने पद से इस्तीफा दे दिया.

कुछ सालों बाद जस्टिस एचआर खन्ना के साथ भी यही किया गया. वरिष्ठ होते हुए भी उन्हें नज़रंदाज़ करते हुए जस्टिस एमएच बेग को चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया बना दिया गया. जस्टिस एचआर खन्ना ने भी वहीं किया जो उनसे पहले तीन वरिष्ठ जजों ने किया था. उन्होंने भी इस्तीफा दे दिया.

केशवानंद भारती केस के बाद देश ने आपातकाल देखा. ये भी देखा कि इंदिरा गांधी ने कैसे 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के जरिए संविधान में आमूल-चूल बदलाव की कोशिश की. हालांकि बाद में जनता पार्टी की सरकार ने 44वें संविधान संशोधन अधिनियम के जरिए उनमें से बहुतों को बदलकर पहले जैसा करने की कोशिश की.

बाद में भी संसद से कई संविधान संशोधन हुए, लेकिन केशवानंद भारती केस से ही निकली अवधारणा मूल संरचना की वजह से संविधान का मूल ताना-बाना आज भी बरकरार है और उम्मीद की जानी चाहिए कि इसी अवधारणा की वजह से आगे भी ऐसा ही रहेगा. केशवानंद भारती केस के फैसले ने पिछले 50 साल से नागरिक अधिकारों ख़ासकर मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में जितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, वैसा योगदान किसी इकलौते फैसले का नहीं रहा है. इस फैसले की एक खूबी ये हैं कि आने वाले कई सालों तक ये फैसला इसी तरह से नागरिक अधिकारों के संरक्षण के लिहाज से मील का पत्थर बना रहेगा.

(ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)

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