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भारत में संविधान की अवधारणा USA से है बिल्कुल अलग, 400 सीटें पाकर भी आमूलचूल परिवर्तन शायद ही है संभव

भाजपा नेता अनंत हेगड़े ने रविवार (10 मार्च) को एक बयान दिया जिसमें उन्होंने कहा कि भाजपा को 401 सीटें चाहिए, ताकि नरेंद्र मोदी संविधान में परिवर्तन कर सके. हेगड़े के बयान के बाद से ही काफी बवाल मचा हुआ है.  विरोधी दल जहां एक बार फिर फासीवाद और अधिनायकवाद की रट लगाने लगे हैं, वहीं भाजपा ने इस मसले पर चुप्पी साध ली है. सोशल मीडिया पर भले ही जमकर वाद-विवाद में लोग उलझ रहे हैं. 

गत्यात्मक है भारतीय संविधान

भारत का संविधान स्थिर नहीं है, संविधान के अंदर अनुच्छेद 368 का एक प्रावधान है जो कहता है कि यदि कभी भी भारत के संसद को, जो कि लोकसभा और राज्यसभा को मिलाकर बनता है, यदि उसे लगता है कि किसी भी प्रावधान की आवश्यकता नहीं है या फिर किसी प्रावधान को बदलने की जरूरत है, तो वह अनुच्छेद 368 का प्रयोग कर बदलाव कर सकते हैं. ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि संविधान निर्माताओं को यह बात पता थी कि जिस संविधान का निर्माण वे कर रहे थे वो उस समय के परिदृश्य के हिसाब से सही था. ये जरूरी नहीं है कि आने वाली पीढ़ी संविधान के उन्हीं नियमों का पालन करें. आने वाले समय में कई आमूलचूल परिवर्तन हो सकते है जिसकी वजह से संविधान को बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है. इसलिए आर्टिकल 368 का प्रावधान किया गया है. आर्टिकल 368 की वजह से आजतक 106 बार संविधान में संशोधन किया जा चुका है. ऐसा नहीं है कि संशोधन नहीं किया गया है, ऐसा भी नहीं है कि किसी सरकार को विशिष्ट समय चाहिए, संविधान में आमूलचूल बदलाव की आवश्यकता है तो कई बार ऐसा होता है कि साधारण बहुमत से काम नहीं चलता है, पूर्ण बहुमत की आवश्यकता होती है, यानी कि दो-तिहाई बहुमत की आवश्यता होती है तभी संविधान में संशोधन किया जा सकता है. शायद इसी वजह से अनंत हेगड़े द्वारा बीजेपी के 401 सीट जीतने के ऊपर बयान दिया गया होगा. लेकिन सिर्फ संविधान संशोधन के लिए साधारण बहुमत काफी है.

अमेरिकी तर्ज पर हो रहा अबकी चुनाव

इस बार के चुनाव को बहुत हद तक अमेरिका के चुनाव की तरह बना दिया गया है. विपक्षी पार्टी हर बात पर कहती है कि हम संविधान की रक्षा करेंगे, संविधान को मिटने महीं देंगे, संविधान की पूजा करेंगे. ऐसा सिर्फ अमेरिका में ही होता है, यहां पर संविधान बड़ी चीज है क्योंकि वहां लोगों ने संविधान के लिए लड़ाई लड़ी, फिर 50 राज्य मिले, तब जाकर यहां संविधान का निर्माण हुआ था. इसलिए अनेरिकी एक तरह से अपने संविधान की पूजा करते है. लेकिन भारत में ऐसा नहीं है, भारत पहले स्वतंत्र हुआ फिर गणतंत्र हुआ, स्वतंत्रता के बाद गणतंत्रता आई, यदि गणतंत्र का स्वरूप बदल भी जाता है तो स्वतंत्रता कहीं नहीं जा रही है जो कि अमेरिका की उलझन है. भारत में इस तरह की बात करना गलत है, इसका कोई तर्क नहीं है. शायद इसी वजह से भीड़ जुड़ नहीं पाती है कि संविधानवाद (Constitutionalism) होना चाहिए या लोकतंत्रवाद (Democritism) होना चाहिए. वह इन मसलों से कनेक्ट नहीं करती है. 

बुनियादी संरचना की अवधारणा का इजाद

नरेंद्र मोदी दो बार भारत के प्रधानमंत्री रह चुके है, पूरे विश्व में आज तक के इतिहास में कहीं भी ऐसा नहीं हुआ है कि लगातार दो बार प्रधानमंत्री रह चुका शख्स या कोई राष्ट्राध्यक्ष तीसरी बार चुनाव लड़ने जा रहा हो और वोट प्रतिशत बढ़ा रहे हैं, तो कहां बढ़ाना चाहेंगे या फिर कितनी सीट लाना चाहेंगे, इसके लिए उनके तरफ से संख्या दी गई है. 400 इस वजह से पार करना है क्योंकि पहले भी एक सरकार इतनी संख्या में सीट ला चुकी है. विपक्ष ने संविधान को लेकर एक धारणा बनाई हुई है, इसी पर हेगड़े ने यह कह दिया कि यदि इतनी संख्या आती है तो संविधान में बदलाव किया जायेगा. लेकिन एक प्रश्न यह भी है कि किस हद तक संविधान को बदला जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने केशवा नंद भारती के केस में जब 13 जजों की बेंच बिठाई थी तब बुनियादी संरचना की अवधारणा का ईजाद किया था. तब सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि केंद्र सरकार किसी भी चीज में संशोधन तो कर सकती है लेकिन पूरे संविधान को नहीं पलट सकती. यानी कि संविधान की बुनियादी अवधारणा को नहीं बदल सकती. लेकिन  बुनियादी संरचना में क्या होगा यह सुप्रीम कोर्ट ने परिभाषित नहीं किया था. ये अलग-अलग केस पर छोड़े गए थे कि अलग-अलग मामले में यह तय होगा कि क्या यह बुनियादी संरचना का भाग है या नहीं?

अतीत के 2 उदाहरण रखें याद 

अतीत में भारत सरकार द्वारा कांग्रेस के समय में एक कानून NJAC (National Judicial Appointments Commission ) था, जिसे भाजपा सरकार द्वारा पास किया गया था, जो कि न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनके ट्रांसफर को लेकर थी. एक कमेटी बनाई गई थी जिसे लोकसभा और राज्यसभा द्वारा पूर्ण बहुमत के साथ दोनों सदनों ने पास किया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज हुआ तब जुडिशियल बेंच ने इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया कि ये भारत की बुनियादी संरचना के खिलाफ है क्योंकि यहां जुडिशरी के अंदर सरकार का हस्तक्षेप हो रहा है, जो कि बेसिक स्ट्रक्चर के दायरे में आता है. फिलहाल इलेक्टोरल बॉन्ड की भी चर्चा जोरों से हो रही है, जिसमें कोई भी जिसकी देश में इंडस्ट्रियलिस्ट है या फिर उनकी कंपनी है किसी भी इलेक्टोरल बॉन्ड से गवर्नमेंट को पैसा दे सकती है. हर पार्टी ने इलेक्टोरल बॉन्ड से पैसे लिए है. चाहें वो भाजपा, कांग्रेस की तरह केंद्रीय पार्टी हो या फिर तृणमूल कांग्रेस जैसी क्षेत्रीय पार्टियां हों. कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़कर सब ने इस देश में इलेक्टोरल बांड से पैसे लिए हैं और सबके परसेंटेज बहुत ज्यादा हैं. हालांकि केंद्र में बीजेपी की सरकार है और सबसे ज्यादा स्टेट में बीजेपी की सरकार है तो नंबर ऑफ अमाउंट है वह बीजेपी का ज्यादा हो सकता है, लेकिन परसेंटेज रेशियो देखेंगे कि कितना पैसा अन्य राज्यों से आया और कितना पैसा इलेक्टोरल बॉन्ड से आया, तो बाकी पार्टियां जैसे तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस भी पीछे नहीं हैं.

इतना पैसा लेने के बाद भी और इतने साल के होने के बाद भी अब सुप्रीम कोर्ट ने ऑर्डर दिया है कि यह बेसिक स्ट्रक्चर के खिलाफ है, आर्टिकल 14 का उल्लंघन है. इसलिए सभी को पैसा वापस करना पड़ेगा और एसबीआई को बताना पड़ेगा कि किसने किससे कितना पैसा लिया है इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से. यह बताता है कि भलें ही संसद कोई भी कानून पास कर दे, लेकिन जो ज्यूडिशियल स्क्रूटनी होती है उसको पास होना जरूरी है. भारत में ज्यूडिशियल स्क्रूटिनी सुप्रीम कोर्ट जो कि कॉन्स्टिट्यूशनल बेंच ऑफ कॉन्स्टिट्यूशनल कोर्ट है, सुप्रीम कोर्ट जो कि गार्जियन ऑफ कॉन्स्टिट्यूशन कहलाता है, जिसका काम कॉन्स्टिट्यूशन को देखना है, वही करता है. पिछले कई सालों से देखा है कि जिस तरीके से भारत के सुप्रीम कोर्ट ने भारत के न्याय अधिकारों में जिस तरीके से बढ़ोतरी हुई है और जिस तरीके से ज्यूडिशियल स्क्रूटिनी की बात आ गई है, वह किसी भी बिल, लॉ को इवैल्यूएट कर सकता है. 

भाजपा कर सकती है प्रस्तावना में बदलाव

भारतीय जनता पार्टी की राजनीति, और उसके पहले उनके पुरोधा, जनसंघ जिस तरीके के कार्य करते थे या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, वह जिस तरीके की सोच अपनाती है, कुछ आमूलचूल बदलाव हो सकते हैं या होने चाहिए, उनके विचारधारा के हिसाब से वो एक हो सकते हैं. इस देश के संविधान की प्रस्तावना में बदलाव किए जा सकते है. इस देश के संविधान की प्रस्तावना में चार शब्द हमेशा से लिखे हुए थे. जब इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई थी तब उसमें दो शब्द और डाल दिए. इस देश के संविधान की प्रस्तावना कहता है कि ये देश डेमोक्रेटिक रहेगा, ये देश रिपब्लिक रहेगा, ये देश फेडरल रहेगा और ये देश सॉवराइन यानी संप्रभु रहेगा. ये चार हमेशा से थे, 1977 के आसपास इंदिरा गांधी ने दो शब्द डाले थे, उन्होंने कहा था कि इसमें हम सेक्युलर और सोशलिस्ट को भी शामिल कर देते हैं. सेक्युलर और सोशलिस्ट इस देश में जोड़ा गया था तब देश में इमरजेंसी लगी हुई थी, सांसद अधिकांश जेल में थे. संसद बैठ नहीं रही थी, मनमाने ढंग से उसको डाला गया था. अब कुछ लोग कह सकते हैं कि ये देश तो सेक्युलर है तो सेकुलर वर्ल्ड से क्या दिक्कत है? हालांकि, संविधान सभा में जब चर्चा हो रही थी कि जब संविधान को लागू करना है तो उसमें इन दोनों शब्दों का विरोध किया गया था. अंबेडकर से लेकर डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि सेक्युलर और सोशलिस्ट वर्ल्ड किसी पॉलिटिकल पार्टी का एजेंडा तो हो सकता है. अगर कोई सोशलिस्ट पॉलिटिकल पार्टी होती और वो देश को राजी करने के लिए तैयार है कि आप हमें वोट कर दीजिए, हम इस देश को सोशलिस्ट बनाएंगे तो लोग उनको समर्थन कर सकते हैं. लेकिन क्या कोई राष्ट्र सोशलिस्ट हो सकता अपने आप में?  यहां उन्होंने मना कर दिया था.

भारत एक धार्मिक राज्य 

अशोक चक्र में जो धर्मचक्र बना हुआ है वह दिखाता है कि यह देश धर्म से जुड़ा हुआ है. सुप्रीम कोर्ट का मोटो है 'यतो धर्मः ततो जय', जो महाभारत से लिया गया है, जिसका पूरा वाक्य है कि 'यतो कृष्णो ततः धर्म यतो धर्म तत्वो जयः', जो सीधा महाभारत से लिया गया या फिर कई जगह लिखा हुआ है 'सत्यमेव जयते'. इस देश का राष्ट्रीय गीत है वो 'वंदे मातरम' है, जहां भारत को माता की तरह पूजते हैं और कहते हैं वंदे मातरम्. भारत की आर्मी का स्लोगन जय हिंद है. इस तरीके की चीजें और अलग-अलग रेजिमेंट्स है, कहीं पर वीर छत्रपति शिवाजी महाराज कहते हैं, कहीं पर वीर बजरंगी कहते हैं, कहीं पर शिवजी की जय, राजा रामचंद्र की जय कहते हैं. यह देश काफी ज्यादा कल्चरल और काफी ज्यादा धार्मिक है. इस देश में सेकुलरिज्म उस तरीके से लागू नहीं कर सकते जिस तरीके से यूरोप में होता है. यह शब्द गलत थे और आरएसएस या भारतीय जनता पार्टी उसी आइडियोलॉजी को फॉलो करती है और शायद अगर उस तरीके की मेजॉरिटी रहेगी तो ये दो शब्द हट सकते हैं. सोशलिस्ट शब्द जोड़ा गया था, उसमें बाद में कई जगह अलग-अलग लोगों ने दावा किया है कि रूस की वजह से तब की भारत सरकार ने सोशलिस्ट शब्द जोड़ा. इसके अलावा भारत का संविधान, उसमें एक जो चीज जो संघ के नजरों में बहुत पास है, वह है कि इस देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड होना चाहिए जो कि डायरेक्टिव प्रिंसिपल का हिस्सा है. या गायों का बीफ बैन होना चाहिए. 

देश में चेक्स एंड बैलेंसेंज बराबर हैं

यह भी देखना जरूरी होगा कि जिस देश में सुप्रीम कोर्ट इतना ताकतवर है, लेकिन संविधान ने अधिकतर शक्ति संसद को दी है तो क्या इस देश में अगले चुनाव के बाद अगर इतने नंबर आ जाए तो क्या उस पर एक अकाउंटेबिलिटी बनाने की कोई चेष्टा की जाएगी? वह ज्यादा जरूरी है. क्योंकि जिस तरीके से जुडिशरी के पास आज इतना अथाह शक्ति है कि एक जज....किसी भी हाईकोर्ट का या सुप्रीम कोर्ट का जज दोनों सदनों में कंपलीट मेजॉरिटी से पास हुई बिल को रोकने में सक्षम है और वह जनता को लेकर जवाबदेह भी नहीं है. क्या ऐसे मामले में कुछ कर सकता है, क्योंकि आज के देश में आज की तारीख में भारत सरकार या भारत के पास वह ताकत भी नहीं हैं कि न्यायाधीशों को नियुक्त कर सके या उनका स्थानांतरण कर सके. यह भी बेसिक स्ट्रक्चर का हिस्सा नहीं था, न ही मूल संविधान का हिस्सा था, जिसमें यह कहा गया कि न्यायाधीश खुद ही न्यायाधीश की नियुक्ति करें. बीआर अंबेडकर ने साफ-साफ विरोध किया था कि न्यायाधीशों के हाथ में इतनी शक्ति नहीं दे सकते कि वही न्यायाधीशों का ट्रांसफर और उनका एप्वाइंटमेंट कर सकें और अभी हाल में ही में देखा जाए तो जिस तरीके से कॉन्स्टिट्यूशन को ट्रीट किया गया. सुप्रीम कोर्ट ने जजमेंट पास किया और कहा कि अब से इलेक्शन कमीशन कौन चुनेगा, उस कमेटी में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया को खुद एक रोल मिला. बाद में भारत सरकार ने एक नया कानून लाकर उसको हटाया और कहा कि नहीं, प्रधानमंत्री, एक कैबिनेट मिनिस्टर और एक अपोजिशन लीडर होगा वह उसका हिस्सा होंगे. तो, ये देखने की बात होगी कि अगर...अगर यह इतना बड़ा बहुमत मिलता है तो फिर सरकार क्या करती है?

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.

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