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इस मुगल बादशाह की बदौलत घर-घर में मशहूर हुई बनारसी साड़ी, जानें इसका इतिहास

Banarasi Saree History: बनारसी साड़ी सिर्फ एक कपड़ा नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का वो सुनहरा धागा है, जो मुगलों से लेकर आधुनिक भारत तक चमकता रहा है. चलिए इसका इतिहास जानते हैं.

Banarasi Saree History: बनारसी साड़ी सिर्फ एक कपड़ा नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का वो सुनहरा धागा है, जो मुगलों से लेकर आधुनिक भारत तक चमकता रहा है. चलिए इसका इतिहास जानते हैं.

कभी आपने किसी बनारसी साड़ी को हाथों में थामा है? वो चमकते सुनहरे धागों की जादूगरी, रेशम की कोमलता और उस पर उकेरे गए नक्काशीदार डिजाइन सिर्फ कपड़ा नहीं, बल्कि इतिहास की एक जिंदा कहानी हैं. यह कहानी शुरू होती है बनारस की गलियों से, जहां हर करघे की आवाज में सदियों की मेहनत और पीढ़ियों का हुनर गूंजता है. राजाओं के दरबार से लेकर आज की दुल्हन की अलमारी तक, बनारसी साड़ी ने वक्त को पीछे छोड़ दिया है.

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आप देश के किसी भी कोने में चले जाइए उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम. हर जगह की संस्कृति अलग होगी, खाना बदलेगा, भाषा बदलेगी, लेकिन एक चीज जो हर जगह आपको मिल जाएगी, वह है बनारसी साड़ी. यह साड़ी सिर्फ एक परिधान नहीं, बल्कि भारत की विरासत की पहचान है.
आप देश के किसी भी कोने में चले जाइए उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम. हर जगह की संस्कृति अलग होगी, खाना बदलेगा, भाषा बदलेगी, लेकिन एक चीज जो हर जगह आपको मिल जाएगी, वह है बनारसी साड़ी. यह साड़ी सिर्फ एक परिधान नहीं, बल्कि भारत की विरासत की पहचान है.
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बनारस की बुनकरी कला, जिसके धागों में इतिहास की खुशबू और मुगलों के दौर की झलक अब भी महसूस होती है, आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी सदियों पहले थी.
बनारस की बुनकरी कला, जिसके धागों में इतिहास की खुशबू और मुगलों के दौर की झलक अब भी महसूस होती है, आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी सदियों पहले थी.
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कहते हैं, अगर किसी लड़की की शादी में बनारसी साड़ी नहीं है, तो उसकी पेटी अधूरी मानी जाती है. और यह बात यूं ही नहीं कही जाती, क्योंकि इस साड़ी के हर धागे में मेहनत, परंपरा और कारीगरी की वो चमक होती है जो पीढ़ियों से चली आ रही है.
कहते हैं, अगर किसी लड़की की शादी में बनारसी साड़ी नहीं है, तो उसकी पेटी अधूरी मानी जाती है. और यह बात यूं ही नहीं कही जाती, क्योंकि इस साड़ी के हर धागे में मेहनत, परंपरा और कारीगरी की वो चमक होती है जो पीढ़ियों से चली आ रही है.
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बनारस में रेशम का यह जादू कब शुरू हुआ, इसका कोई सटीक दस्तावेज नहीं है, मगर यह तय है कि बुनकरी यहां की नस-नस में बसती है. एक वक्त था जब बुनकरों का बेटा बुनकर बनता था, रंगरेज का बेटा रंगरेज. यह कला सिखाई नहीं जाती थी, बल्कि विरासत में मिलती थी. और यही विरासत आज भी बनारसी साड़ी को जीवित रखे हुए है.
बनारस में रेशम का यह जादू कब शुरू हुआ, इसका कोई सटीक दस्तावेज नहीं है, मगर यह तय है कि बुनकरी यहां की नस-नस में बसती है. एक वक्त था जब बुनकरों का बेटा बुनकर बनता था, रंगरेज का बेटा रंगरेज. यह कला सिखाई नहीं जाती थी, बल्कि विरासत में मिलती थी. और यही विरासत आज भी बनारसी साड़ी को जीवित रखे हुए है.
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मुगल बादशाह अकबर को अगर कला का सबसे बड़ा संरक्षक कहा जाए, तो गलत नहीं होगा. उनके दौर में बनारसी साड़ी को शाही दर्जा मिला. कहते हैं कि अकबर और उनके बेटे जहांगीर ने इस कला को संरक्षण दिया. कहा तो यह भी जाता है कि मुगल हरम की महिलाएं बनारसी साड़ी पहनती थीं, जिन पर सोने-चांदी के बारीक धागों से जरी का काम किया जाता था.
मुगल बादशाह अकबर को अगर कला का सबसे बड़ा संरक्षक कहा जाए, तो गलत नहीं होगा. उनके दौर में बनारसी साड़ी को शाही दर्जा मिला. कहते हैं कि अकबर और उनके बेटे जहांगीर ने इस कला को संरक्षण दिया. कहा तो यह भी जाता है कि मुगल हरम की महिलाएं बनारसी साड़ी पहनती थीं, जिन पर सोने-चांदी के बारीक धागों से जरी का काम किया जाता था.
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यही कारण है कि आज भी बनारसी साड़ी पर इस्लामी पैटर्न और फारसी जाली का असर दिखाई देता है. फिर आया अंग्रेजों का दौर. मशीनों की दौड़ में इस कला को भारी नुकसान पहुंचा. कई बुनकरों के करघे खामोश हो गए. मगर बनारस ने हार नहीं मानी. बुनकरों ने अपने हुनर से इसे जिंदा रखा.
यही कारण है कि आज भी बनारसी साड़ी पर इस्लामी पैटर्न और फारसी जाली का असर दिखाई देता है. फिर आया अंग्रेजों का दौर. मशीनों की दौड़ में इस कला को भारी नुकसान पहुंचा. कई बुनकरों के करघे खामोश हो गए. मगर बनारस ने हार नहीं मानी. बुनकरों ने अपने हुनर से इसे जिंदा रखा.
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धीरे-धीरे यही साड़ी आम लोगों तक पहुंची. कभी सिर्फ रानियों और बेगमों की शान रही यह साड़ी आज हर वर्ग की महिला के वॉर्डरोब का हिस्सा है. आज बनारसी साड़ियां चार प्रमुख श्रेणियों में आती हैं- प्योर सिल्क (कतन), ऑरगेंजा (कोरा), जॉर्जेट और शात्तिर. इनमें से प्योर सिल्क सबसे ज्यादा लोकप्रिय है.
धीरे-धीरे यही साड़ी आम लोगों तक पहुंची. कभी सिर्फ रानियों और बेगमों की शान रही यह साड़ी आज हर वर्ग की महिला के वॉर्डरोब का हिस्सा है. आज बनारसी साड़ियां चार प्रमुख श्रेणियों में आती हैं- प्योर सिल्क (कतन), ऑरगेंजा (कोरा), जॉर्जेट और शात्तिर. इनमें से प्योर सिल्क सबसे ज्यादा लोकप्रिय है.

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