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ब्रेड बनाकर घर में ही खा लेने से क्या बढ़ती है देश की GDP? समझिए पूरा गणित

What is GDP: जीडीपी की वृद्धि दर 13.5 प्रतिशत रही है यानी भारतीय अर्थव्यवस्था 13.5 प्रतिशत की दर से बढ़ी है. 

कोरोना महामारी के कारण अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर दुनियाभर से निराशाजनक तस्वीरों के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था की चमकती तस्वीर सामने आई है. चालू वित्त वर्ष 2022-23 की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में जीडीपी की वृद्धि दर 13.5 प्रतिशत रही है यानी भारतीय अर्थव्यवस्था 13.5 प्रतिशत की दर से बढ़ी है. 

इन आंकड़ों को देखने के कई अलग-अलग पहलू हैं. एक तरफ सरकार और बहुत से विशेषज्ञ इसे अर्थव्यवस्था में सुधार और तेजी की बानगी मान रहे हैं, तो दूसरी तरफ कांग्रेस व विपक्षी दलों का कहना है कि आंकड़े उतने सुखद नहीं हैं, जितना सरकार बताना चाह रही है.

कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने कहा कि कमजोर बेस के दम पर हासिल विकास दर को दिखाकर सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है. असल में विकास दर अभी 2018 से नीचे है. उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि मोदी सरकार में कोरोना से पहले ही अर्थव्यवस्था जिस तरह कमजोर हो गई थी, उससे उबरने में बहुत वक्त लगेगा. 

निसंदेह, न तो जीडीपी के आंकड़े गलत हैं और न ही कांग्रेस की बात को पूरी तरह से नकारा जा सकता है. असल में जीडीपी के आंकड़े जब भी आते हैं, हमें अक्सर इस तरह की विरोधाभासी बातें सुनने को मिलती ही हैं. सत्ता पक्ष अपनी पीठ थपथपा रहा होता है और विपक्ष उसे आईना दिखाने की कोशिश करता है.

इसे समझने के लिए हमें यह जानना होगा कि असल में जीडीपी है क्या और इसकी गणना कैसे होती है. इस पर जाने से पहले हम बुधवार को जारी आंकड़ों के बारे में दो अहम तथ्यों को जान लेते हैं.

पहली बात, पिछले वित्त वर्ष यानी 2021-22 की पहली तिमाही में विकास दर 20.1 प्रतिशत रही थी. मोटे तौर पर ऐसा दिख रहा है कि पिछले साल की समीक्षाधीन तिमाही के मुकाबले में अर्थव्यवस्था में रिकवरी धीमी हुई है. जबकि ऐसा बिलकुल नहीं है. असल में मार्च, 2020 में कोरोना के कारण देश को लॉकडाउन का सामना करना पड़ा था. ऐसे में वित्त वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही यानी अप्रैल-जून, 2020 में लगभग सभी आर्थिक गतिविधियां बाधित रहने के कारण अर्थव्यवस्था में 23.9 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी.
 
इस गिरावट के कारण जब 2021-22 की पहली तिमाही यानी अप्रैल-जून, 2021 की विकास दर की गणना की बारी आई, तो बेस ईयर बहुत कमजोर था. उस कमजोर बेस ईयर की तुलना में अर्थव्यवस्था में थोड़ी रिकवरी होते ही विकास दर ने 20.1 प्रतिशत का आंकड़ा छू लिया था. उस समय 20.1 प्रतिशत की विकास दर के बाद भी अर्थव्यवस्था पूरी तरह से गिरावट से उबर नहीं पाई थी. लिहाजा इस बार भी बेस ईयर कमजोर ही रहा.  इसी कमजोर बेस ईयर पर जीडीपी ने 13.5 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की है. यही वह बात है, जिसे आधार बनाकर कांग्रेस सरकार पर निशाना साध रही है. 

दूसरी बात, भले ही बेस ईयर कमजोर रहा हो, लेकिन 13.5 प्रतिशत की विकास दर अर्थव्यवस्था में अच्छी रिकवरी दिखा रही है. दुनियाभर में जिस तरह की स्थिति देखी जा रही है, उस हिसाब से यह विकास दर उल्लेखनीय है. कोरोना काल के कमजोर बेस ईयर के बावजूद इस समय दुनिया के बहुत से देशों की अर्थव्यवस्था में रिकवरी नहीं दिख रही है. अमेरिका तो औपचारिक रूप से मंदी की चपेट में है. वहां पिछली दो तिमाही से अर्थव्यवस्था में गिरावट देखी जा रही है. 

किसी देश में लगातार दो तिमाही तक अर्थव्यवस्था में गिरावट दर्ज किए जाने का अर्थ है कि वह अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में आ चुकी है.  ब्रिटेन की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है.  वहां मार्च तिमाही में अर्थव्यवस्था में गिरावट रही थी और शुरुआती आंकड़े यही संकेत दे रहे हैं कि जून तिमाही में भी गिरावट रहेगी.जब दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में गिरावट आ रही है, ऐसे में 13.5 प्रतिशत की विकास दर को किसी भी तरह से नकारा नहीं जा सकता है.

करीब नौ दशक पहले आई थी जीडीपी की अवधारणा
असल में विभिन्न देशों की आर्थिक विकास दर को मापने के लिए जिस जीडीपी यानी ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट (सकल घरेलू उत्पाद) के पैमाने का प्रयोग किया जाता है, इसका उल्लेख सबसे पहले अमेरिकी अर्थशास्त्री साइमन कुजनेट्स ने 1934 में किया था। सहमति और असहमति के दौर के बाद 1944 में ब्रेटन वुड्स कॉन्फ्रेंस के दौरान इसे देश की अर्थव्यवस्था को मापने का पैमाना मान लिया गया। धीरे-धीरे आईएमएफ ने इसका प्रयोग शुरू किया और फिर लगभग सभी देश इस प्रणाली को अपनाते चले गए.

क्या है जीडीपी? 
जीडीपी असल में किसी समयावधि (तिमाही या सालाना) में किसी देश में उत्पादित उन सभी वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्य है, जिन्हें किसी द्वारा खरीदा जाता है. जीडीपी की गणना के समय बाजार में बिक्री के लिए उत्पादित सभी वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य को आंका जाता है. इसमें रक्षा एवं शिक्षा में सरकार द्वारा दी जाने वाली सेवाओं के मूल्य को भी जोड़ा जाता है, भले ही उन्हें बाजार में न बेचा जाए.
 
सरल शब्दों में जीडीपी को एक उदाहरण से समझ सकते हैं. एक व्यक्ति यदि ब्रेड बनाकर बाजार में बेचे, तो उसका जीडीपी में योगदान होगा, लेकिन यदि वह ब्रेड बनाकर अपने ही परिवार में उसकी खपत कर ले, तो उस ब्रेड के उत्पादन का जीडीपी में कोई योगदान नहीं होगा. कालाबाजारी का जीडीपी में योगदान नहीं होता है, क्योंकि उसकी कोई गणना नहीं की जा सकती है. इसीलिए तस्करी और ब्लैक मार्केटिंग से अर्थव्यवस्था को नुकसान होता है, क्योंकि संबंधित देश की मुद्रा का लेनदेन तो होता है, लेकिन उन उत्पादों की गणना जीडीपी में नहीं हो पाती है.

अर्थव्यवस्था में एक जीएनपी यानी ग्रॉस नेशनल प्रोडक्ट टर्म का भी प्रयोग होता है. इसमें किसी देश के नागरिक द्वारा उत्पादित सभी वस्तुओं एवं सेवाओं को जोड़ा जाता है, भले ही उनका उत्पादन उस देश से बाहर हुआ हो. अर्थात यदि जापान की एक कंपनी भारत में कारखाना खोलकर कुछ उत्पादन करे, तो वह उत्पाद भारत की जीडीपी में जुड़ेगा, जबकि जापान के जीएनपी में उसकी गणना होगी. 

अंतरराष्ट्रीय मानक पर होती है गणना
विभिन्न देश जीडीपी की गणना के लिए विभिन्न स्रोतों से आंकड़े एकत्र करते हैं. इसके लिए अंतरराष्ट्रीय मानकों का अनुपालन किया जाता है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ), यूरोपीय कमीशन, ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी), यूनाइटेड नेशंस और वर्ल्ड बैंक द्वारा तैयार सिस्टम ऑफ नेशनल अकाउंट्स, 1993 में इन मानकों को परिभाषित किया गया है. 

महंगाई पर भी रखी जाती है नजर
वास्तविक जीडीपी की गणना करते समय महंगाई पर भी नजर रखी जाती है. इसी से यह सुनिश्चित होता है कि वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य में जो वृद्धि हुई है, असल में वह वृद्धि उत्पादन बढ़ने से हुई, न कि कीमतें बढ़ने से. जब महंगाई व अन्य मानकों को नजरअंदाज करते हुए, केवल वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य का आकलन किया जाता है, तो उसे नॉमिनल जीडीपी कहते हैं. इसमें से महंगाई के कारक को हटाने के बाद वास्तविक जीडीपी का पता चलता है.  

दिखती है अर्थव्यवस्था की तस्वीर
जीडीपी से किसी देश की आर्थिक स्थिति का अनुमान लगता है. जीडीपी के बढ़ने का अर्थ है कि संबंधित देश में आर्थिक गतिविधियां बढ़ रही हैं. मजबूत आर्थिक विकास से संकेत मिलता है कि कंपनियां बड़े पैमाने पर लोगों को रोजगार दे रही हैं. वहीं जीडीपी में गिरावट का अर्थ है कि वहां रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं. कई बार अर्थव्यवस्था में विकास हो रहा होता है, लेकिन विकास दर उतनी नहीं होती कि रोजगार के नए अवसर बन सकें. अर्थव्यवस्था की स्थिति चक्र की तरह होती है. कभी अर्थव्यवस्था में तेजी का दौर होता है, तो कभी इसमें गिरावट देखी जाती है. उदाहरण के तौर पर, अमेरिका में 1950 से 2011 के बीच छोटी-बड़ी अवधि की कुल छह मंदी आ चुकी है. और अब एक बार फिर अमेरिका ने औपचारिक तौर पर मंदी में कदम रख दिया है. विभिन्न देशों की जीडीपी की गणना वहां की मुद्रा में की जाती है. ऐसे में दो देशों के बीच तुलना के लिए उनकी जीडीपी को अमेरिकी डॉलर में बदलकर तुलना की जाती है. 

जीडीपी नहीं है विकास का अंतिम सत्य
जीडीपी से किसी देश की आर्थिक स्थिति का पता तो लगता है, लेकिन इससे पूरी तस्वीर साफ नहीं होती है. जीडीपी से किसी देश में रहन-सहन के स्तर और लोगों के स्वास्थ्य व कल्याण की स्थिति का आकलन नहीं किया जा सकता है. उदाहरण के तौर पर कई बार विकास से संबंधित गतिविधियां पर्यावरण की कीमत पर होती हैं. ऐसे में जीडीपी के आंकड़े तो बढ़ते हैं, लेकिन लोगों के जीवन में प्रदूषण व अन्य समस्याएं भी बढ़ जाती हैं. बढ़ती अर्थव्यवस्था के कारण हो सकता है कि लोगों के पास आराम का समय कम हो रहा हो. इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए यूनाइटेड नेशंस ने ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स यानी मानव विकास सूचकांक की गणना प्रारंभ की है. इसमें केवल प्रति व्यक्ति जीडीपी की ही नहीं, बल्कि जीवन प्रत्याशा, साक्षरता, स्कूल में प्रवेश जैसे कई अन्य मानकों को भी परखा जाता है.

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