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कहानी उस चेलपार्क स्याही की जिसने सिर्फ हाथ ही नहीं, कइयों के करियर में रंग भर दिया

आज कहानी ऐसे एक स्याही की जिसकी डिब्बियां आज के दौर में बेशक गायब हो गई हो लेकिन एक वक्त पर हम सबके घर में हुआ करती थी. आज कहानी चेलपार्क स्याही की...

 45 साल की सुचिता कहती हैं कि हमारे समय में चेलपार्क सियाही बच्चों के लिए गर्व की बात होती थी. उस वक्त यह काफी महंगी आती थी. हम अपने पॉकेट मनी से चेलपार्क स्याही खरीदते और स्कूल में लेकर जाते थे. उस वक्त इससे लिखना बड़ी बात थी.  90 के दशक में स्कूल जाने वालों बच्चों में शायद ही किसी का हाथ नीली स्याही से न रंगा हो...

'मुझे याद है बचपन में मैं और मेरे दोस्त साथ में पढ़ाई करते थे. कभी- कभी हम आपस में लड़ जाते और एक दूसरे पर स्याही फेंक कर चेहरा नीला कर दिया करते थे. इसके बाद क्या था, सारे मिलकर साबुन से उस रंग को छुड़ाने में लग जाते. जिसके चेहरे पर रंग रह जाता उसका अगले स्कूल में खूब मजाक उड़ाया करते थे.' ये कहना है 50 साल के अनुज का. वह फिलहाल एक कॉरपोरेट कंपनी में काम करते है. चेलपार्क सियाही का किस्सा सुनाते हुए ऐसा लग रहा था मानों वह अपने बचपन के दिनों में चले गए हों. 

हम सबने बचपन में रामायण और महाभारत जैसे धार्मिक सीरियल में देखा है कि ऋषि-मुनियों लिखने के लिए मोर के पंख का उपयोग किया करते थे. आपने कभी ना कभी ऐसा चित्र जरूर देखा होगा.


कहानी उस चेलपार्क स्याही की जिसने सिर्फ हाथ ही नहीं, कइयों के करियर में रंग भर दिया

इसी तरह करीब 20 साल पहले तक लोग फाउंटेन पेन का इस्तेमाल करते थे. एक वक्त था जब फाउंटेन पेन का खूब चलन था. स्याही की डिब्बी में पेन को डुबोकर फिर कागज पर उस स्याही की मदद से लिखी जाती थी. उस दौर में हर स्टूडेंट के बैग के कोने में या ऑफिस जाने वाले व्यस्क के पॉकेट के कोने में स्याही का दाग मिलना बहुत आम बात थी. 

90 के दशक तक आते-आते स्याही को एक बड़ा बाजार मिल गया. और उन सबमें चेलपार्क सबसे बड़ा ब्रांड था. आज के दौर में चेलपार्क की शीशी भले ही गायब हो गई हो. लेकिन एक दौर में यह हर घर में मिलती थी. कहानी उसी चेलपार्क स्याही की जिसने न सिर्फ हाथ ही नहीं, कइयों के करियर में रंग भर दिया.

दरअसल 50 के दशक में मशहूर अमेरिकी में पार्कर पेन बनाने वाली कंपनी को भारत में पार्टनर की तलाश में थी. उस वक्त कर्नाटक का चेल्लाराम परिवार पहले से ही अफ्रीका में अमेरिकी कंपनी के साथ कारोबार कर रहा था.

जब पार्कर कंपनी ने भारत में पार्टनरशिप के लिए चेल्लाराम परिवार को संपर्क किया तो वो तैयार हो गए और चेलपार्क की कहानी यही से शुरू हो गई. पार्कर और चेलाराम के पार्टनरशिप में साल 1943 में चेलपार्क स्याही की शुरुआत हुई, जिसका ऑफिस बैंगलोर (अब बेंगलुरु) में बनाया गया.

जल्द ही ये फाउंटेन पेन ऑफिस जाने वाले लोगों से लेकर स्कूल जाने वाले बच्चों की पसंद बन गया. अब हर कोई इसका इस्तेमाल कर रहा था. चेलपार्क स्याही के इतने लोकप्रिय होने में सबसे बड़ा हाथ चेलपार्क स्याही की गुणवत्ता और पेन की निब को दिया जाता है. चेलपार्क स्याही लिखने के बाद फैलती नहीं थी जिसे प्रीमियम स्याही पेन के लिए भी अच्छा माना जाता था. 


कहानी उस चेलपार्क स्याही की जिसने सिर्फ हाथ ही नहीं, कइयों के करियर में रंग भर दिया

दरअसल किसी खास कंपनी का पेन कई बार इतना पसंद किया जाने लगता है कि एक बार इस्तेमाल करने वाले उसके आदी हो जाते हैं. वह कुछ भी लिखने के लिए केवल उसी पेन का इस्तेमाल करते हैं. किसी पेन को पसंद किए जाने की वजह पेन की निब में छिपी है. ऐसे कई लेखक या लोग होते हैं जो अपनी पसंदीदा पेन सालों तक संभाल कर रखते हैं.  

द प्रिंट में छपी एक खबर के अनुसार जब चेलपार्क को भारत में लॉन्च किया गया था तो विज्ञापन में यह दिखाना था कि यह एक नया ब्रांड है. इसलिए उसने एक नया तरीका अपनाया. उस विज्ञापन में एक शख्स पार्कर पेन का स्टीकर हटाता है जिसे हटाते ही चेलपार्क स्याही का लोगो नजर आता है. उस वक्त ये विज्ञापन बहुत हिट हुआ था.

चेलपार्क स्याही कांच की शीशी में आती थी जिसको बंद करने के लिए ढक्कन का इस्तेमाल किया जाता था. चेलपार्क ने अपने ब्रांड के प्रमोशन के लिए टीवी या प्रिंट विज्ञापन में बहुत अधिक इंवेस्टमेंट नहीं करते हुए ऑन-ग्राउंड विज्ञापन पर जोर दिया था.

समय के साथ सूरत बदलती रही कलम

पेन की चर्चा के साथ ये सवाल जेहन में जरूर आता है कि इंसान ने पहली बार किस चीज से लिखना शुरू किया होगा. दरअसल सबसे पहले लोग पत्थरों और धातुओं पर उकेर कर अपना मैसेज एक दूसरे तक पहुंचाते थे. इसके बाद सबसे पहले लिखावट के लिए सही कलम मिस्र में ईजाद की गई थी, सबसे पहले यानी 4200 साल पहले बांस से कलम बनाई गई थी. उस कलम की नोक बांस की बनी थी. उस वक्त बांस के कोने को स्याही से डुबोकर लिखा जाता था. 

इसके बाद छठी सदी में लोगों ने लिखने के लिए चिड़ियों के पंख का इस्तेमाल शुरू किया. उसे क्विल पेन कहा गया. हालांकि ये पेन काफी नाजुक थे. चिड़ियों के पंख से बने होने के कारण इस पेन की नोंक बहुत जल्दी टूट जाती थी. इस पेन का इस्तेमाल राजा-महाराजाओं के फरमान या ग्रंथ लिखने के लिए खूब किया गया. 

क्विल पेन के बाद स्टील डीप पेन की शुरुआत की गई. इस पेन की खोज 1822 में जॉन मिशेल ने की थी. ये पेन मेटल से बनी होती थी जिसे लिखने के लिए स्याही में डुबोना होता था. इस पेन का ये फायदा था कि मेटल से बने होने के कारण पंख या बांस से ज्यादा चलती है. फिर 1827 में आया फाउंटेन पेन का जमाना. 


कहानी उस चेलपार्क स्याही की जिसने सिर्फ हाथ ही नहीं, कइयों के करियर में रंग भर दिया

फाउंटेन पेन को पेट्राचे पोएनारू नाम के शख्स ने बनाया. शुरुआत में इससे लिखने में काफी मुश्किलें आती थी. लिखते वक्त कभी स्याही बहुत ज्याद आ जाती तो कभी बिल्कुल भी नहीं. इसके बाद लुईस एडसन ऐसा फाउंटेन पेन लेकर आए, जिसकी स्याही न बहती थी और न ही पेन रुकता था.

साल बीतते गए और पेन का सफर भी आगे बढ़ता गया. 1888 में जॉन लाउड ने बॉल प्वाइंट पेन का आविष्कार किया. इस पेन के अविष्कार का मतलब था लकड़ी या रैपिंग पेपर पर लिखना. साल 1984 में जापानी कंपनी ‘सकूरा कलर प्रोडॅक्ट्स’ ने जेल पेन बनाया. पहले बॉल पेन का नाम ‘बॉल साइन 208’दिया गया.

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