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छात्र संगठन ABVP की पूरी कहानी, जिसका नाम JNU की हिंसा में सामने आया

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद. देश की छात्र राजनीति का एक अहम नाम. अक्सर चर्चा में रहता है. और अब जेएनयू कांड को लेकर फिर चर्चा में है. इस छात्र संगठन का एक लंबा इतिहास रहा है, जिसने 1949 से लेकर 2019 तक का सफर तय किया है और इसका सफर आगे भी जारी है.

नई दिल्ली: अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद. देश की छात्र राजनीति का एक अहम नाम. अक्सर चर्चा में रहता है. और अब जेएनयू कांड को लेकर फिर चर्चा में है. इसलिए हम आपको उस छात्र संगठन की पूरी एबीसीडी बताने की कोशिश कर रहे हैं. भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी कि आरएसएस की स्थापना हुई थी 1925 में. वो विजयादशमी का दिन था. भारत अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहा था और संघ अपने विस्तार में जुटा हुआ था. संघ का विस्तार भी हुआ और देश को आजादी भी मिली. 1947 में आजादी के बाद जम्मू-कश्मीर नया-नया भारत में शामिल हुआ था. संघ ने वहां भी अपनी पैठ बनानी शुरू की. और इस काम को करने की जिम्मेदारी 22 साल के एक नौजवान की थी. नाम था बलराज मधोक. जम्मू से आने वाला लड़का, जिसे साल 1942 में ही जम्मू का प्रचारक बना दिया गया था. उसने घाटी में संघ का विस्तार करना शुरू किया. बंटवारे के बाद पाकिस्तानी सीमा क्षेत्र से भारत के जम्मू में आ रहे लोगों को संघ जॉइन करवाने की जिम्मेदारी बलराज मधोक की ही थी. इतिहास के प्रोफेसर ने शुरू किया था संगठ संघ के काम के साथ ही बलराज मधोक ने एक और काम शुरू किया. और ये था कश्मीर को भारत में पूरी तरह से मिलाने के लिए आंदोलन करना. इसके लिए मधोक ने नवंबर, 1947 में प्रजा परिषद पार्टी बनाई. लेकिन जब शेख अब्दुल्ला और जवाहर लाल नेहरू के बीच कश्मीर पर समझौता हो गया, आर्टिकल 370 की बात मान ली गई, तो फिर शेख अब्दुल्ला ने बलराज मधोक को जम्मू-कश्मीर से बाहर का रास्ता दिखा दिया. मधोक 1948 में दिल्ली आ गए. उस पंजाब यूनिवर्सिटी कॉलेज में पढ़ाने लगे, जो पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब से आए शरणार्थियों की पढ़ाई के लिए बनाया गया था. हालांकि कुछ ही दिनों के बाद बलराज मधोक दिल्ली यूनिवर्सिटी से जुड़े दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज में इतिहास के टीचर हो गए. तब तक नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी थी और उस वक्त देश के गृहमंत्री रहे सरदार वल्लभ भाई पटेल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिए थे. बड़े-बड़े नेताओं को भूमिगत होना पड़ा था. और तब संघ ने तय किया कि छात्रों के जरिए संघ की विचारधारा को आगे बढ़ाया जाए. लेकिन जब तक ये अमल में लाया जाता, संघ पर से प्रतिबंध हट गए. फिर भी रूपरेखा तैयार हो चुकी थी. तब शिक्षण संस्थानों में वामपंथ का दबदबा हुआ करता था. इसे काउंटर करने के लिए बलराज मधोक ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्देश पर एक छात्र संगठन का गठन किया और नाम दिया अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद. आरएसएस से प्रतिबंध हटा तो रुक गया काम 9 जुलाई, 1949 को आधिकारिक तौर पर इस संगठन का रजिस्ट्रेशन हुआ. संगठन का ध्येय वाक्य बना ज्ञान, शील, एकता. लेकिन फिर संगठन कुछ दिनों के लिए नेपथ्य में चला गया, क्योंकि संघ पर से प्रतिबंध हट गए थे. लेकिन 50 के शुरुआती दशक में संघ ने अपने इस नए संगठन का विस्तार करने का मसौदा तैयार कर लिया. तय हुआ कि एक सालाना कॉन्वेंशन के जरिए एबीवीपी को संगठन के तौर पर आगे बढ़ाया जाएगा. इसके लिए संघ के कार्यकर्ता रहे यशवंत राव केलकर को जिम्मेदारी सौंपी गई. अब की मुंबई और तब के बॉम्बे में एबीवीपी की पहली यूनिट बनी. और यशवंत राव केलकर को एबीवीपी का ऑर्गनाइजर बना दिया गया. इसके बाद शुरू हुआ एबीवीपी के विस्तार का काम. महाराष्ट्र के बाद मध्य प्रदेश और बिहार में एबीवीपी की यूनिट खुलीं, जिसमें दत्ताजी दिदोलकर, मोरोपंत पिंगले जैसे संघ के प्रचारकों ने अहम भूमिका निभाई. एबीवीपी लगातार बढ़ने लगा. साल 1961 में जब गोवा मुक्ति का आंदोलन अपने चरम पर था, एबीवीपी के लोग भी उसमें शामिल थे. चीन से हुई लड़ाई के दौरान भी एबीवीपी लोगों के बीच रहा. और इतनी पैठ बना ली कि 1970 में हुए छात्रसंघ चुनाव में एबीवीपी पहली बार मैदान में उतरा. शुरुआत उत्तर प्रदेश से हुई. और जीत के साथ ही एबीवीपी का दायरा बढ़ता गया. जनवरी, 1974 में जब गुजरात के छात्रों ने गुजरात के मुख्यमंत्री रहे चिमनभाई पटेल के खिलाफ आंदोलन शुरू किया, तो एबीवीपी को नई दिशा मिल गई. एबीवीपी ने लीड किया गुजरात का छात्र आंदोलन एबीवीपी ने गुजरात के छात्रों के आंदोलन को लीड किया, जिसने बाद में चलकर बड़ा रूप ले लिया. इतना बड़ा कि गुजरात में राष्ट्रपति शासन लग गया. ये एबीवीपी की पहली सबसे बड़ी सफलता थी. इसके बाद एबीवीपी ने इसे बिहार में दोहराने की कोशिश की. बिहार में भी छात्रों ने आंदोलन शुरू किया. ये आंदोलन हिंसक हुआ. 18 मार्च, 1974 को आंदोलन के दौरान तीन लोगों की मौत हो गई. और तब छात्रों ने जय प्रकाश नारायण को अपना नेतृत्व करने के लिए मनाना शुरू किया. वो मान गए और फिर पूरे देश के छात्र जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ सड़क पर उतरे. लेकिन इन आंदोलनों ने एबीवीपी को नई ताकत दे दी थी. इसके बावजूद एबीवीपी ने खुद को छात्र संघ चुनाव से अलग कर लिया. 1978 में हुए छात्रसंघ चुनाव में एबीवीपी की ओर से कोई प्रत्याशी चुनावी मैदान में नहीं उतरा. तब भारतीय जनता पार्टी नहीं थी. तब था जनसंघ, जिसका जनता पार्टी में मर्जर हो चुका था. और जनता पार्टी ने तब छात्र राजनीति के लिए एक नए मोर्चे का गठन किया, जिसका नाम है जनता युवा मोर्चा. राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र इसके पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष थे. पांच साल तक चुनावी राजनीति से दूर रहा एबीवीपी एबीवीपी पांच साल तक चुनावी राजनीति से दूर रहा और इसकी जगह पर जनता युवा मोर्चा काम करता रहा. इस बीच एबीवीपी बांग्लादेशी घुपैठियों का मुद्दा उठाता रहा. लेकिन 1982 में एबीवीपी फिर से चुनावी राजनीति में उतरा. और तब तक एबीवीपी की ताकत बढ़ गई थी. आपातकाल से पहले जिस एबीवीपी के पास देशभर के 790 कॉलेज कैंपस में 1 लाख 70 हजार सदस्य थे, वो आपातकाल के खत्म होने के बाद बढ़कर करीब ढाई लाख तक पहुंच गई. जब राम मंदिर आंदोलन शुरू हुआ, तो इसके पक्ष में मोमेंटम बनाने में एबीवीपी ने अहम भूमिका निभाई. बोफोर्स के मुद्दे पर जब वीपी सिंह जनसभाओं में राजीव गांधी को घेर रहे थे, एबीवीपी छात्रों के बीच इस मुद्दे को लेकर गया. जब वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू कीं, एबीवीपी इसके खिलाफ सड़क पर उतर गया. हालांकि एबीवीपी से जुड़े कुछ लोग इन बातों को खारिज करते हैं और कहते हैं कि एबीवीपी ने आरक्षण का समर्थन किया था. कश्मीरी पंडितों के पलायन पर भी एबीवीपी ने स्टैंड लिया था. जब बीजेपी के दिग्गज नेता मुरली मनोहर जोशी ने श्रीनगर के लाल चौक पर झंडा फहराने की बात कही, तो एबीवीपी ने बढ़-चढ़कर इस आंदोलन में हिस्सा लिया था. लगातार बढ़ते गए सदस्य देश की राजनीति के अहम पहलुओं पर एबीवीपी और बीजेपी की राय एक रही है. और यही वजह है कि जब बीजेपी सत्ता में आई, एबीवीपी का वर्चस्व और भी बढ़ गया. बीजेपी के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का मई 2004 में जब कार्यकाल खत्म हुआ तो एबीवीपी के पास करीब 11 लाख सदस्य थे. 13 साल के अंदर साल 2017 में एबीवीपी ने दावा किया कि उसके सदस्यों की संख्या 32 लाख हो गई है, जिसमें 9 लाख सदस्य अकेले साल 2014 में जुड़े हैं. हालांकि एबीवीपी खुद को बीजेपी का नहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का छात्र संगठन मानता है. लेकिन संघ और बीजेपी के क्या रिश्ते हैं, इसे बताने की ज़रूरत शायद ही हो. फिलहाल तो एबीवीपी खुद को दुनिया का सबसे बड़ा छात्र संगठन बताता है. लेकिन जब ताकत मिलती है, तो उस ताकत को पचाने की चुनौती और भी बड़ी हो जाती है. एबीवीपी के साथ भी यही हुआ. बढ़ते जनाधार ने एबीवीपी को विवादों में भी ला दिया. एबीवीपी से जुड़े रहे बड़े-बड़े विवाद 11 जुलाई, 2003 को कर्नाटक में कॉमन एंट्रेस टेस्ट के दौरान हुए विरोध प्रदर्शन में 12 पुलिसवाले घायल हो गए थे. आरोप लगा कि एबीवीपी के 300 कार्यकर्ताओं ने पुलिसवालों पर हमला कर दिया था. उस वक्त केंद्र में बीजेपी की सरकार थी और राज्य में एसएम कृष्णा के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी. साल 2005 में एबीवीपी के लोगों पर आरोप लगा कि उन्होंने आंध्रप्रदेश के सेक्रेटरिएट में जबरन घुसने की कोशिश की है. पहला बड़ा आरोप लगा साल 2006 में. मध्यप्रदेश के उज्जैन के माधव कॉलेज में प्रोफेसर हरभजन सिंह सभरवाल और दो दूसरे प्रोफेसर्स की पिटाई कर दी गई. इलाज के दौरान प्रोफेसर सभरवाल की मौत हो गई, जिसका आरोप एबीवीपी के लोगों पर ही लगा. हालांकि बाद में उन्हें बरी कर दिया गया. अगले ही साल कर्नाटक के चेतना प्री यूनिवर्सिटी कॉलेज में पत्थर फेंकने के आरोप में 20 लोगों को गिरफ्तार किया गया था, जिसमें कई लोग एबीवीपी से जुड़े थे. 10 दिन बाद ही कर्नाटक के ही मरिमलप्पा कॉलेज में तोड़फोड़ करने के आरोप में एबीवीपी के छह सदस्यों को गिरफ्तार किया गया था. फरवरी, 2008 में एके रामानुजम की किताब को दिल्ली यूनिवर्सिटी के सिलेबस से हटाने के लिए आंदोलन हुआ. इस दौरान एबीवीपी पर प्रोफेसर्स की पिटाई के आरोप लगे. 27 अप्रैल, 2009 को मध्यप्रदेश में एबीवीपी के एक पदाधिकारी हितेश चौहान ने तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर जूता फेंक दिया था. पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया था, लेकिन प्रधानमंत्री के कहने पर उसे रिहा कर दिया गया. खांडवा के भगवंत राव मंडलोई कॉलेज में दो प्रोफेसर्स सुंदर सिंह ठाकुर और अशोक चौधरी पर हमला हुआ, जिसमें एबीवीपी पर आरोप लगे. बाद में प्रो. सुंदर सिंह की मौत हो गई. फिल्म की स्क्रिनिंग भी रोकने लगी एबीवीपी इसके अलावा एबीवीपी के लोगों ने फिल्मों की स्क्रीनिंग पर भी रोक लगाने की कोशिश की. फिल्म डायरेक्टर संजय काक की फिल्म जश्न-ए-आजादी को पुणे में दिखाने से रोक दिया गया. पुणे के ही एफटीटीआई में जय भीम कॉमरेड फिल्म की स्क्रिनिंग के बाद कबीर कला मंच के लोगों पर हमला हुआ और इसके पीछे भी एबीवीपी का नाम आया. कबीर कला मंच के लोगों को नक्सली कहा गया और उनपर नरेंद्र मोदी की जय बोलने के लिए दबाव बनाया गया. हद तो तब हो गई, जब साल 2017 में रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स ने केरला के कालीकट में 18 लोगों को बेटिकट गिरफ्तार कर लिया और वो सभी लोग एबीवीपी के सदस्य थे. उनपर 11,250 रुपये का जुर्माना लगा और उन्हें छोड़ दिया गया. दिल्ली के रामजस कॉलेज में हुई गुंडागर्दी को सबने देखा था, जिसमें शहीद की बेटी गुरमेहर कौर तख्ती लिए एबीवीपी के खिलाफ लगातार बोल रही थीं. ये सभी आरोप अलग-अलग अखबारों में तारीखवार दर्ज हैं. कई मुकदमे अब भी चल रहे हैं. और भी कई विरोध प्रदर्शनों के दौरान एबीवीपी पर हिंसा के आरोप लगते रहे हैं. और अब ताजा आरोप जेएनयू का है. जेएनयू के छात्रसंघ अध्यक्ष और तमाम लोग एबीवीपी पर सीधे तौर पर आरोप लगा रहे हैं. वहीं एबीवीपी इसके लिए लेफ्ट विंग को जिम्मेदार ठहरा रहा है. दोषी कौन है, ये तय करना कोर्ट का काम है. हमारा काम था तथ्यों को बताना. वो हमने आपके सामने रख दिए हैं.
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