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Explosive Eruptions: फट जाएगा धरती का कलेजा, फूटेंगे ज्वालामुखी, मचेगी तबाही, साइंटिस्ट ने किया डराने वाला दावा
Explosive Eruptions: दुनिया भर में ग्लेशियरों के पिघलने से ज्वालामुखी विस्फोट की आशंका बढ़ रही है. इसको लेकर वैज्ञानिकों की शोध ने कई सारे चौंकाने वाले खुलासे किए हैं.

ग्लेशियरों के पिघलने और ज्वालामुखीय गतिविधियों के बीच संबंध ने वैज्ञानिकों को एक नई चिंता में डाल दिया है. यह जलवायु परिवर्तन का एक और भयावह पहलू है, जिससे पृथ्वी पर जीवन अस्थिर हो सकता है.
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ग्लेशियर और ज्वालामुखी दो प्राकृतिक शक्तियां आपस में जितनी दूर दिखाई देती होती हैं, उतनी ही निकटता से ये धरती की संरचना को प्रभावित करती हैं. दुनियाभर में करीब 245 सक्रिय ज्वालामुखी ऐसे क्षेत्रों में स्थित हैं, जहां उनके नीचे या पास ग्लेशियर मौजूद हैं. इनमें अंटार्कटिका, रूस, न्यूज़ीलैंड और उत्तरी अमेरिका शामिल हैं.
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एक नए अध्ययन के अनुसार, ग्लेशियरों के पिघलने से ज्वालामुखी अधिक बार और अधिक विस्फोटक रूप से फट सकते हैं, जिससे जलवायु परिवर्तन और गंभीर हो सकता है. यह शोध 8 जुलाई 2025 को प्राग में आयोजित गोल्डश्मिट कॉन्फ्रेंस 2025 में पेश किया गया.
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ग्लेशियर, जो लाखों टन बर्फ का भार लेकर बैठे हैं, पृथ्वी की सतह और उसके नीचे की मैग्मा परतों पर दबाव डालते हैं. यह दबाव मैग्मा को ऊपर उठने से रोकता है, लेकिन जैसे ही ग्लेशियर पिघलते हैं, यह दबाव घट जाता है और नीचे की ऊर्जा बाहर आने को आतुर हो जाती है.
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रिसर्चर पाब्लो मोरेनो येगर और उनकी टीम ने दक्षिणी चिली के मोचो-चोशुएंको ज्वालामुखी का अध्ययन करते हुए पाया कि जब-जब ग्लेशियर पिघले हैं, वहां ज्वालामुखीय गतिविधियां और अधिक तेज हुई हैं.
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जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, उनकी सतह के नीचे दबा हुआ ज्वालामुखीय दबाव अब खुलने लगा है. पिघलने की इस प्रक्रिया में बर्फ का दबाव हटता है. मैग्मा और गैसें बिना रुकावट सतह की ओर बढ़ती हैं. आखिर में एक जोरदार विस्फोट होता है.
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इस प्रक्रिया को आइस-अनलोडिंग वोल्कैनिज्म कहा जाता है, जिसे वैज्ञानिक एक पॉज़िटिव फीडबैक लूप मानते हैं. ग्लेशियर पिघलते हैं, जिससे विस्फोट होते हैं, जो और गर्मी पैदा करते हैं, जिससे और ग्लेशियर पिघलते हैं.
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आइसलैंड में 10,000 साल पहले हिमयुग के अंत में ग्लेशियरों के पिघलने के बाद ज्वालामुखी विस्फोटों की दर 30 से 50 गुना बढ़ गई थी. यह इसलिए हुआ क्योंकि आइसलैंड दो टेक्टोनिक प्लेटों यूरेशियन और नॉर्थ अमेरिकन के बीच स्थित है. वहां की सतह पहले बर्फ के भार से दबी थी. जैसे ही वह पिघली, विस्फोटों की श्रृंखला शुरू हो गई.
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दक्षिणी चिली के ज्वालामुखी का अध्ययन बताता है कि 26000 से 18000 साल पहले बर्फ की मोटी चादरों के कारण ज्वालामुखीय गतिविधियां दब गई थीं. जैसे ही बर्फ पिघली, जमी हुई मैग्मा और गैसें बाहर निकलने लगीं, जिससे एक नए ज्वालामुखी का निर्माण हुआ. शोधकर्ताओं ने रेडियोएक्टिव आर्गन गैस और मैग्मा क्रिस्टल्स के विश्लेषण से यह साबित किया कि बर्फ पिघलने के तुरंत बाद विस्फोट और तेज हुए. इससे यह साबित होता है कि भविष्य में भी ऐसा हो सकता है.
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नए आंकड़ों के अनुसार अंटार्कटिका, रूस, न्यूज़ीलैंड काफी खतरे में है, जहां बर्फ की चादरें सबसे मोटी हैं और पिघलने के बाद जोरदार विस्फोट होने की आशंका है.
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भारत में भले ही ग्लेशियरों के नीचे सक्रिय ज्वालामुखी न हों, लेकिन हिमालयी ग्लेशियरों का पिघलना उत्तराखंड और हिमाचल जैसे राज्यों में—भूस्खलन और बाढ़ जैसी आपदाओं को जन्म दे रहा है.
Published at : 09 Jul 2025 07:30 AM (IST)

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