'शादी पर दिया गया कैश और गोल्ड वापस करे पति', तलाक में मुस्लिम महिलाओं के हक पर सुप्रीम कोर्ट ने कही अहम बात
सुप्रीम कोर्ट ने कलकत्ता हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें पति के पक्ष में फैसला सुनाया गया था और उसे समान वापस करने से राहत दी गई थी.

सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम महिला के तलाक के मामले में कहा है कि पति को सारा गोल्ड और कैश लौटाना होगा जो महिला के पिता ने शादी के वक्त उसको दिया था. मंगलवार (2 दिसंबर, 2025) को कोर्ट ने कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए 1986 में बनाए गए कानून में समानता, गरिमा और स्वायत्तता को सर्वोपरि रखा जाना चाहिए और महिलाओं को होने वाले अनुभवों पर ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि खासकर छोटे शहरों व ग्रामीण इलाकों में अंतर्निहित पितृसत्तात्मक भेदभाव अब भी आम है.
जस्टिस संजय करोल और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की बेंच ने कलकत्ता हाईकोर्ट का आदेश रद्द कर दिया. महिला ने शादी के समय उसके पूर्व पति को दिए गए सात लाख रुपये कैश और गोल्ड पर दावा किया था, जिसे हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया, जिसके बाद महिला ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है.
याचिकाकर्ता महिला का कहना है कि साल 2005 में उसकी शादी हुई और 2009 में पति-पत्नी अलग हो गए. 2011 में दोनों ने तलाक ले लिया. महिला ने शादी के समय पति को दिए गए कैश और गोल्ड वापस लेने के लिए अपील की, जिसकी उन्होंने कुल कीमत 17.67 लाख रुपये बताई है. महिला ने मुस्लिम वुमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डिवोर्स) एक्ट, 1986 के सेक्शन 3 के तहत अपील दायर की थी.
हाईकोर्ट ने इस आधार पर महिला के दावे को मानने से इनकार कर दिया कि याचिकाकर्ता के पिता और शादी करवाने वाले काजी के बयानों में असामनता है. काजी का कहना है कि मैरिज रजिस्टर में प्राप्तकर्ता को निर्दिष्ट किए बिना रकम दर्ज की गई थी, जबकि पिता का कहना है कि राशि दूल्हे को सौंप दी गई थी.
सुप्रीम कोर्ट ने कलकत्ता हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें पति के पक्ष में फैसला सुनाया गया था और उसे समान वापस करने से राहत दी गई थी. बेंच ने कहा कि इस मामले में दो व्याख्याओं की संभावना है और यह स्थापित नियम है कि यह कोर्ट संविधान के अनुच्छेद-136 के तहत प्राप्त अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए सिर्फ इस आधार पर हाईकोर्ट के फैसले में हस्तक्षेप नहीं करता कि दो अलग-अलग दृष्टिकोण संभव हैं.
कोर्ट ने कहा कि यह अपवाद इस मामले में लागू नहीं होता, क्योंकि हाईकोर्ट उद्देश्यपरक व्याख्या के सिद्धांत पर विचार करने में विफल रहा और उसने इस मामले का केवल एक दिवानी विवाद के रूप में निपटारा किया.
कोर्ट ने कहा, 'भारत का संविधान सभी के लिए एक आकांक्षा यानी समानता निर्धारित करता है, जिसे वास्तव में प्राप्त किया जाना अभी बाकी है. अदालतों को इस दिशा में अपना योगदान देते हुए अपने तर्क को सामाजिक न्याय से प्रेरित निर्णय पर आधारित करना चाहिए.'
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, 'संदर्भ दिया जाए तो 1986 के अधिनियम का उद्देश्य एक मुस्लिम महिला को तलाक के बाद गरिमा और आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना है, जो संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत प्रदत्त उसके अधिकारों के अनुरूप है.' पीठ ने कहा, 'लिहाजा इस अधिनियम की व्याख्या करते समय समानता, गरिमा और स्वायत्तता को सर्वोपरि रखना आवश्यक है और इसे महिलाओं के जीवन के वास्तविक अनुभवों के प्रकाश में देखा जाना चाहिए, क्योंकि खासकर छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में अंतर्निहित पितृसत्तात्मक भेदभाव आज भी व्यापक रूप से मौजूद है.'
सुप्रीम कोर्ट ने महिला की अपील को स्वीकार कर लिया और हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया. बेंच ने महिला के वकील से कहा कि वह फैसले की तारीख से तीन कार्यदिवस के अंदर उसके बैंक खाते की डिटेल और अन्य संबंधित जानकारी उसके पूर्व पति के वकील को उपलब्ध कराएं.
कोर्ट ने कहा, 'राशि सीधे अपीलकर्ता (पत्नी) के बैंक खाते में भेजी जाए. प्रतिवादी (पूर्व पति) को निर्देश दिया जाता है कि वह छह हफ्ते के अंदर इस अदालत की रजिस्ट्री में अनुपालन का शपथपत्र दाखिल करे. उक्त अनुपालन प्रमाणपत्र अभिलेख का हिस्सा बनाया जाएगा.अगर आवश्यक कार्रवाई समय पर नहीं की गई, तो प्रतिवादी को नौ प्रतिशत वार्षिक ब्याज के साथ राशि चुकानी होगी.'
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Source: IOCL






















