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Explained: संविधान की छठी अनुसूची क्या है? कौन सा स्पेशल स्टेटस मांग रहा लद्दाख, जानिए

Sixth Schedule Of Indian Constitution: आज से 3 साल पहले जब लद्दाख को उसके चाहने के मुताबिक केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मिला था, लेकिन वहां के प्रतिनिधि इसे छठी अनुसूची के दायरे में लाना चाहते हैं.

6th Schedule Of Indian Constitution And Ladakh: आज से 3 साल पहले जब लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश बना था तो इस क्षेत्र के लोगों की मन मांगी मुराद पूरी हुई थी, लेकिन वहां के प्रतिनिधि अब एक संवैधानिक प्रावधान के दायरे में इसे लेकर आना चाहते हैं. वो छठी अनुसूची की मांग कर रहे हैं. ये अनुसूची कुछ विशेष शक्तियों के साथ स्वायत्त परिषदों के निर्माण की अनुमति देती है. दरअसल छठी अनुसूची आदिवासी क्षेत्रों के लिए संवैधानिक सुरक्षा उपायों पर जोर देती है. क्या लद्दाख को इसके तहत शामिल किया जा सकता है? और वह इस अनुसूची में शामिल होने की मांग क्यों कर रहा है.  यही सब यहां जानने की कोशिश करेंगे.

शुरुआत लद्दाख के केंद्रशासित प्रदेश बनने से

दरअसल 5 अगस्त, 2019 को केंद्र सरकार ने एक ऐतिहासिक फैसले लेकर जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को रद्द कर दिया था. इसके बाद जम्मू कश्मीर और लद्दाख दो केंद्र शासित प्रदेश बने थे. जम्मू कश्मीर में विधायिका दी गई, लेकिन लद्दाख में विधायिका नहीं बनाई गई. तब लेह-लद्दाख के नेताओं सहित वहां की धार्मिक संस्थाओं ने केंद्र सरकार के इस फैसले का खुले दिल से स्वागत किया था, क्योंकि कई वर्षों से लद्दाख ये मांग कर रहा था.

दरअसल यहां के लोगों ने लद्दाख को विधायिका के साथ केंद्र शासित प्रदेश बनाने की मांग 1949 में रखी थी. 33 साल पहले 1989 में अलग राज्य की मांग को लेकर यहां आंदोलन भी हुआ था. इसी वजह से लद्दाख को स्वायत्त हिल डेवलपमेंट काउंसिल मिली थी. 70 साल बाद लद्दाख के केंद्र शासित बनने की मांग पूरी हुई, लेकिन लद्दाख को विधायिका नहीं मिली केवल हिल काउंसिल को इसमें रखा गया, लेकिन अब ये भी शक्तिहीन है. 

यहां के लोगों का कहना है कि संवैधानिक सुरक्षा न मिलने से यहां के ज़मीन, रोज़गार, पर्यावरण की सुरक्षा और सांस्कृतिक पहचान सब पर असुरक्षा की भावना घर कर गई है. यही वजह है कि 2019 में तत्कालीन राज्य जम्मू और कश्मीर में संवैधानिक बदलाव के बाद से क्षेत्र के प्रतिनिधि लगातार केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख को बार-बार छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग उठाते आ रहे हैं.

साल 2021 में लद्दाख के बीजेपी सांसद जामयांग त्सेरिंग नामग्याल ने स्थानीय आबादी की भूमि, रोजगार और सांस्कृतिक पहचान की रक्षा के लिए इस क्षेत्र को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग की थी. मशहूर इंजीनियर और सामाजिक कार्यकर्ता सोनम वांगचुक भी इसे लेकर अनशन पर बैठे हैं.आखिर लद्दाख छठी अनुसूची में शामिल होने की मांग क्यों कर रहा है. क्या है ये छठी अनूसूची अब इस बात पर आते हैं. 

जानें संविधान की छठी अनुसूची

छठी अनुसूची में संविधान के अनुच्छेद 244(2) और अनुच्छेद 275 (1) हैं. इन दोनों अनुच्छेदों के तहत खास प्रावधान हैं. इसमें असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम सूबों के जनजाति इलाकों के प्रशासन के बारे में उपबंध या व्यवस्था है. छठी अनुसूची पूर्वोत्तर राज्यों असम, मेघालय, मिजोरम (तीन परिषदों में से प्रत्येक) और त्रिपुरा (एक परिषद) पर लागू होती है.

असम केदीमा हसाओ, कार्बी आंगलोंग, बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद, मेघालय के खासी पहाड़ी, जयंतिया पहाड़ी, गारो पहाड़ी, मिजोरम चकमा, लाई, मारा, त्रिपुरा के पुरा जनजातीय इलाकों में छठी अनुसूची लागू होती है. इस अनुसूची के तहत जनजातीय क्षेत्र में स्वायत्त जिले बनाने का प्रावधान किया गया है. राज्‍य के अंदर इन जिलों को विधायी, न्यायिक और प्रशासनिक स्‍वायत्‍ता दी जाती है. अनुसूची में राज्यपाल को स्वायत्त जिलों का गठन करने और पुनर्गठित करने का अधिकार भी दिया गया है.

अनुच्छेद 244 के तहत छठी अनुसूची स्वायत्त प्रशासनिक प्रभागों (जिले) में स्वायत्त जिला परिषदों (Autonomous District Councils-ADCs) के गठन का प्रावधान करती है.जिनके पास एक राज्य के भीतर कुछ विधायी, न्यायिक और प्रशासनिक स्वायत्तता होती है. एडीसी में 5 साल की अवधि के साथ अधिकतम 30 सदस्य होते हैं. इसके तहत किसी जिले में अलग-अलग जनजातियों के होने पर कई ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल बनाए जा सकते हैं. 

एडीसी को भूमि, जंगल, जल, कृषि, ग्राम परिषद, स्वास्थ्य, स्वच्छता, ग्राम और शहर स्तर की पुलिसिंग, विरासत, विवाह और तलाक, सामाजिक रीति-रिवाज और खनन आदि से जुड़े कानून और नियम बनाने अधिकार होता है. इस मामले में केवल असम की बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल को अपवाद के तौर पर लिया जा सकता है, क्योंकि इसमें 40 से अधिक सदस्य हैं और इसे  39 विषयों पर कानून बनाने का हक हासिल है.  2011 की जनगणना आंकड़ों पर गौर किया जाए तो लद्दाख की लगभग 80 फीसदी आबादी आदिवासी है.

लद्दाख क्यों कर रहा छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग?

केंद्र सरकार ने एक ऐतिहासिक फैसले लेकर जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को रद्द कर तो इस फैसले के बाद लद्दाख में उत्सव सा माहौल था. क्योंकि लद्दाख के  केंद्र शासित प्रदेश बनने से यहां के लोगों की लगभग 50 फीसदी मांग पूरी हो गई थी. इसके साथ ही लद्दाख में नागरिक समाज समूह भूमि, संसाधनों और रोजगार की सुरक्षा की मांग कर रहे हैं क्योंकि यहां के स्थानीय लोगों को बड़े कारोबारों और बड़े कंपनियों के अपनी जमीन और नौकरियां छीने जाने का डर है.

लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद से ही यहां के लेह और कारगिल इलाकों में भूमि की सुरक्षा, रोजगार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व को लेकर चिंता की आवाजें भी उठने लगी थीं. इन दोनों इलाके के लोगों में अपनी भाषा-संस्कृति को खो देने की असुरक्षा घर करती गई और धीरे-धीरे ये नाराजगी विरोध प्रदर्शनों के तौर पर सामने आई. बीते 3 साल से इन इलाकों के लोग इस केंद्र शासित प्रदेश के लिए विशेष अधिकारों और सुरक्षा उपायों की मांग कर रहे हैं और अपनी इन मांगों को मनवाने के लिए विरोध प्रदर्शन पर हैं.

इलाकों के लोगों की मांगों को देखते हुए गृह मंत्रालय (MHA) ने केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के लिए एक उच्चाधिकार प्राप्त कमेटी बनाई है, लेकिन इलाकों में विरोध का नेतृत्व कर रहे कारगिल डेमोक्रेटिक एलायंस (केडीए) और लद्दाख बौद्ध संघ (एलबीए) ने कमेटी की बैठकों में शिरकत करने से इनकार कर दिया है. अब सवाल ये है कि आखिर इन इलाकों के लोगों में नाराज़गी क्यों बढ़ रही है और आगे ये क्या रुख अख्तियार करने जा रही है?

दरअसल लद्दाख देश का सबसे बड़ा लोकसभा क्षेत्र है. 2011 की जनगणना के मुताबिक यहां लगभग 3 लाख की जनसंख्या है. इसमें 46.4 फीसदी आबादी मुसलमानों की है. लेह में बौद्ध लोग अधिक हैं तो कारगिल में मुसलमान अधिक संख्या में हैं. लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद ही कारगिल के लोगों को शिकायत रहती है कि उन्हें कम सुना जाता है. जब लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश नहीं था उससे पहले लेह में रहने वालों लोगों का मानना था कि उनकी बात को कम तवज्जो दी जाती है, क्योंकि जम्मू-कश्मीर में मुसलमानों की आबादी अधिक है.

जम्मू और कश्मीर के विशेष दर्जे को रद्द करने और तत्कालीन राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट देने से बौद्ध बहुल लेह में खुशी और कुछ पाने का एहसास था, लेकिन मुस्लिम बहुल कारगिल कुछ हद तक आशंका से घिर गया. लेह की तरफ से श्रीनगर और जम्मू में केंद्रित जम्मू-कश्मीर के प्रशासनिक सेटअप से अलग होकर लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाने की मांग लंबे वक्त से की जा रही थी. लेह में सबसे अधिक फिक्र स्थानीय लोगों की जमीन की सुरक्षा की थी तो दूसरी तरफ कारगिल में अहम मांग राज्य के दर्जे दिए जाने की थी.

कारगिल के लोग मांग करते हैं कि केंद्र सरकार लेह और कारगिल में दोनों में बराबर विकास करें क्योंकि दोनों की जनसंख्या लगभग बराबर है. कारगिल के लोगों को इस बात को लेकर भी एतराज है कि जब केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख की बात की जाती है तो उसमें केवल लेह-लद्दाख का जिक्र होता है कारगिल का नहीं.

यही वजह रही कि जब लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश बना था तो कारगिल में नाराजगी थी. तब यहां हुए विरोध प्रदर्शनों की गंभीरता को देखकर राज्यपाल सत्यपाल मलिक कारगिल पहुंचे थे. जॉइंट एक्शन कमेटी ने तब उन्हें 14 सूत्रीय ज्ञापन दिया था. ये कमेटी कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ्रेंस और अन्य धार्मिक संगठनों ने मिलकर बनाई थी. तब इस कमेटी ने लद्दाख के प्रशासनिक मुख्यालय को 6 महीने लेह और 6 महीने लद्दाख में रखे जाने की मांग की थी. यह भी तय हुआ था कि कारगिल और लेह दोनों जिलों में राजभवन, सचिवालय और पुलिस मुख्यालय बनेंगे.

यही वजह रही कि लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद लेह और कारगिल दोनों में ही सबसे ताकतवर राजनीतिक संगठन लद्दाख ऑटोनॉमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल (एलएएचडीसी) के 2020 के चुनावों का बहिष्कार किया गया था. इस बहिष्कार में राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक संगठन और पार्टियां एकजुट हो गए थे. ये सभी लद्दाख के लिए संविधान में अधिक सुरक्षा की चाहते थे. इनकी मांग लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की थी. 

दरअसल लद्दाख के जम्मू-कश्मीर से अलग होने के साथ ही विधान परिषद में लद्दाख का प्रतिनिधित्व खत्म हो गया और केवल हिल डेवलपमेंट काउंसिल लेह और कारगिल के माध्यम से ही जनता का प्रतिनिधित्व रह गया. कैबिनेट के बराबर शक्तियां रखने वाली  एलएएचडीसी वहां केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद केवल नाम की रह गई है. एलएएचडीसी के पास केंद्र, राज्य और अन्य जगहों से आने वाले फंड को रखने का हक था. फ़ाइनेंशियल कंट्रोल का हक काउंसिल ले लिया गया. इस वजह से लेह और कारगिल दो जिलों के विकास के फैसले लेने वाला ये काउंसिल बेजान हो गया है.

लद्दाख को विधायिका के साथ केंद्र शासित प्रदेश बनाने 1949 की मांग साल 2019 में पूरी हुई, लेकिन लद्दाख को विधायिका नहीं मिली केवल हिल काउंसिल को इसमें रखा गया, लेकिन ये भी पावरलेस है. यही वजह रही कि केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के बनने के एक साल से अधिक वक्त बीत जाने के बाद भी दोनों इलाकों में भूमि की सुरक्षा, रोजगार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व को लेकर चिंताएं बढ़ती गईं.

इन चिंताओं को दूर करने और अपनी मांगों को लेकर तब कारगिल में धार्मिक और नागरिक समाज के प्रतिनिधियों ने कारगिल डेमोक्रेटिक एलायंस-केडीए (KDA) का गठन किया.  इसी तरह से लेह में लद्दाख बौद्ध संघ एलबीए (LBA) बनाया गया. ये इलाके का सबसे मजबूत धार्मिक मंच है. ये लेह की सर्वोच्च संस्था (एबीएल) का हिस्सा है और गैर-बीजेपी पार्टियों का गठबंधन है. इसने क्षेत्र की मांगों को उठाने का बीड़ा उठाया.

जब केडीए और एबीएल के मिले सुर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जून 2021 में  जम्मू और कश्मीर के मुख्यधारा के राजनीतिक नेतृत्व से मुलाकात की थी. इसके  तुरंत बाद गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने केडीए के 11 सदस्यों के साथ मुलाकात की थी. हालांकि इन दोनों मुलाकातों का कोई असर नहीं पड़ा. गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय  अगस्त 2021 के आखिर में लेह का दौरा पर भी गए थे, लेकिन हालातों में कोई बदलाव नहीं आया.

इस दौरान एक बात हैरानी वाली हुई जब 1 अगस्त 2021 को  केडीए और एबीएल लेह के ग्रैंड ड्रैगन होटल में मिले.जबकि ये दोनों संगठन एक साल से अपने इलाकों में अलग-अलग मांग उठाते रहे थे.तब  लद्दाख के अकादमिक और इस्लामिक यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी, अवंतीपोरा के पूर्व कुलपति डॉ सिद्दीक वाहिद ने बैठक को अप्रत्याशित आश्चर्य कहा था.

दोनों की ये बैठक 5 घंटे से अधिक चली थी. बाद में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के जरिए दोनों संगठनों ने मिलकर एक 4 सूत्रीय एजेंडा रखा. इसमें  लद्दाख के लिए राज्य का दर्जा, संविधान की छठी अनुसूची के तहत सुरक्षा, लद्दाख के युवाओं के लिए नौकरियों का आरक्षण और क्षेत्र के दो हिस्सों के लिए अलग संसदीय निर्वाचन क्षेत्र बनाना शामिल था. इस एजेंडे ने लद्दाख में आंदोलन में तेजी ला दी.

बढ़ता जा रहा है आक्रोश क्यों?

जमीनी स्तर पर अधिक से अधिक आवाजें अब लद्दाख में ये कहने लगी हैं कि निरस्त किए गए अनुच्छेद 370 के तहत सुरक्षा उपायों ने लद्दाखियों के हितों की रक्षा के लिए उतना ही काम किया था जितना कि कश्मीरियों ने. मतलब 370 के होने के वक्त उनके हित सुरक्षित थे. जम्मू-कश्मीर के पूर्व मंत्री और लेह में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता नवांग रिगज़िन जोरा के मुताबिक केंद्र शासित प्रदेश बनने की चाहत में लद्दाख ने अपने राजनीतिक प्रतिनिधित्व के नुकसान के लिए सौदेबाजी नहीं की थी.

जोरा का कहना था, “हमने जो मांगा वह पुद्दुचेरी की तर्ज पर एक केंद्र शासित प्रदेश था-एक निर्वाचित विधानसभा वाला केंद्र शासित प्रदेश, दरअसल नौकरशाही लोगों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करती है. शक्ति मौजूदा वक्त में श्रीनगर और लेह दोनों में एलजी के कार्यालय में केंद्रित है.

डॉ वाहिद ने द इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि यूटी की कम आबादी के बावजूद अलग संसदीय क्षेत्रों की मांग जायज थी. कारगिल और लेह के दो जिलों में अलग-अलग जनसांख्यिकीय रचनाएं हैं, जिनमें बौद्धों का लेह और मुस्लिम कारगिल पर वर्चस्व है. लद्दाख की कुल 3 लाख की आबादी में ईसाई छोटा अल्पसंख्यक समुदाय हैं.

क्यों है लेह-कारगिल के लोगों को कमेटी पर एतराज?

गृह मंत्रालय (MHA) ने 2 जनवरी 2023 को केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के लिए गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय की अध्यक्षता में एक उच्चाधिकार प्राप्त कमेटी का गठन किया है. ये कमेटी भौगोलिक स्थिति और सामरिक महत्व को ध्यान में रखते हुए इलाके की अनूठी संस्कृति और भाषा की रक्षा के उपायों पर चर्चा करेगी. 

कमेटी लद्दाख के लोगों के लिए भूमि और रोजगार की सुरक्षा सुनिश्चित करने, समावेशी विकास की रणनीति बनाने और लद्दाख के लेह और कारगिल की स्वायत्त पहाड़ी जिला परिषदों के सशक्तिकरण से संबंधित मुद्दों पर काम करेगी. कमेटी बनने तक सब ठीक था, लेकिन मसला यहां आकर उलझ गया है कि गृह मंत्रालय की गठित कमेटी के लिए एक स्पष्ट जनादेश के अभाव में कारगिल डेमोक्रेटिक एलायंस (केडीए) और लद्दाख बौद्ध संघ (एलबीए) दोनों नेतृत्व ने इसकी बैठकों में भाग लेने से इनकार कर दिया है. यही दोनों नेतृत्व लद्दाख में विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व कर रहे हैं. 

द हिंदू की रिपोर्ट ने इस कमेटी के दो सदस्यों के हवाले से लिखा है कि लद्दाख पर उच्चाधिकार प्राप्त समिति के सदस्यों का कहना है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय का आदेश साफ नहीं है और इसमें छठी अनुसूची का जिक्र नहीं है. छठी अनुसूची आदिवासी क्षेत्रों के लिए संवैधानिक सुरक्षा उपायों पर जोर देती है, जबकि 2011 की जनगणना आंकड़ों पर गौर किया जाए तो लद्दाख की लगभग 80 फीसदी आबादी आदिवासी है. 

यही वजह रही कि लेह के लिए प्रभावशाली शीर्ष निकाय एलएबी और कारगिल डेमोक्रेटिक एलायंस (केडीए) ने 7 जनवरी को गृह मंत्रालय (एमएचए) की तरफ से गठित हाई पावर कमेटी की प्रस्तावित बैठक में शिरकत नहीं की. दोनों का कहना है कि इसमें उनकी मांगों को शामिल नहीं किया गया है. इनकी मांग थी कि  भारतीय संविधान की छठी अनुसूची में उन्हें शामिल किया जाए ताकि स्थानीय अवाम के रोज़गार, ज़मीन, उनकी पहचान,संस्कृति को सुरक्षा मिले.

इनका कहना है कि गृह मंत्रालय ने मनमाने ढंग से कमेटी में सदस्यों को शामिल और बाहर रखा है. उनका कहना है इस कमेटी के गठन के लिए मंत्रालय ने 2021 में पैनल के लिए नाम मांगे थे, लेकिन उन नामों को कमेटी शामिल नहीं किया गया. गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय की अध्यक्षता वाली 17 सदस्यीय कमेटी में लद्दाख के लेफ्टिनेंट गवर्नर आरके माथुर, लद्दाख बौद्ध संघ (एलबीए) के सदस्य, शिया निकाय अंजुमन-ए-इमामिया, केडीए और अन्य सदस्य शामिल हैं. कमेटी में सुन्नी मुस्लिम समुदाय का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है.

लेह के लिए एपेक्स बॉडी एलबीए और कारगिल की केडीए  लद्दाख के दोनों संगठनों की फरवरी के तीसरे हफ्ते में नई दिल्ली के जंतर मंतर पर धरना विरोध करने की योजना भी है. साल 2023 में आंदोलन में तेजी लाने को लेकर भी ये संगठन एकमत हुए हैं.

केडीए के सज्जाद कारगिली ने कहा, "जब तक हमारी मांगों को एजेंडे में साफ तौर से पहचाना नहीं जाता है और चर्चा में नहीं लिया जाता है, तब तक हम इस प्रक्रिया में शिरकत नहीं लेंगे." लद्दाख के नेताओं ने यह भी बताया है कि केंद्र की कमेटी में इस इलाके के सुन्नी मुसलमानों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है, और कई सदस्यों को एबीएल और केडीए की मंजूरी के बगैर शामिल किया गया है.

क्या लद्दाख छठी अनुसूची में शामिल हो सकता है?

सितंबर 2019 में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने छठी अनुसूची के तहत लद्दाख को शामिल करने की सिफारिश की. आयोग ने ये सिफारिश इस नए केंद्र शासित प्रदेश में 97 फीसदी से अधिक आबादी के जनजाति या आदिवासी होने को लेकर की थी. यहां देश के अन्य हिस्सों के लोगों के जमीन खरीदने या अधिग्रहण करने पर भी प्रतिबंध लगाया गया है क्योंकि इस प्रदेश की खास सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण की जरूरत महसूस की गई.

दरअसल खास तौर से  पूर्वोत्तर के बाहर के किसी भी क्षेत्र को छठी अनुसूची में शामिल नहीं किया गया है. वास्तव में, यहां तक कि मणिपुर में जहां कुछ स्थानों पर मुख्य रूप से जनजातीय आबादी है वहां कि स्वायत्त परिषदों को  भी छठी अनुसूची में शामिल नहीं किया गया है.  पूरी तरह से आदिवासी आबादी वाले नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश भी छठी अनुसूची में  नहीं हैं.

“गृह मंत्रालय के एक अधिकारी के मुताबिक "इस तरह से देखा जाए तो लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल करना मुश्किल होगा. संविधान बहुत साफ तौर पर छठी अनुसूची को पूर्वोत्तर के लिए रखा गया है. भारत के अन्य हिस्सों में आदिवासी क्षेत्रों के लिए पांचवीं अनुसूची है." हालांकि यह सरकार का विशेषाधिकार है यदि वह ऐसा फैसला लेती है, तो इस उद्देश्य के लिए संविधान में संशोधन करने के लिए एक विधेयक ला सकती है. 

केंद्र सरकार अब लद्दाख की चिंताओं को लेकर संजीदा तब हुई जब अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के एक साल बाद लेह में बीजेपी सहित सभी राजनीतिक दलों ने एलएएचडीसी-लेह चुनावों के बहिष्कार का ऐलान कर डाला था. उन्होंने ये  ऐलान नई दिल्ली में गृहमंत्री अमित शाह के साथ एक बैठक के बाद किया. इस बैठक में उन्हें "छठी अनुसूची जैसी" सुरक्षा का वादा किया गया था.

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