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Kapal Kriya: कपाल क्रिया क्या होती है, ये कब की जाती है?

Kapal Kriya: हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद विधिपूर्वक अंतिम संस्कार होता है, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण और अनिवार्य रस्म कपाल क्रिया मानी जाती है, जो आत्मा की मुक्ति के लिए की जाती है.

Kapal Kriya: हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद विधिपूर्वक अंतिम संस्कार होता है, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण और अनिवार्य रस्म कपाल क्रिया मानी जाती है, जो आत्मा की मुक्ति के लिए की जाती है.

Kapal Kriya

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गरुड़ पुराण में कपाल क्रिया को मृत्यु के बाद की सबसे महत्वपूर्ण और अनिवार्य प्रक्रिया माना गया है. हिंदू धर्म में जब किसी व्यक्ति का दाह संस्कार किया जाता है, तो केवल शरीर का जलना पर्याप्त नहीं होता. आत्मा की पूरी मुक्ति के लिए विशेष विधियां अपनाई जाती हैं, जिनमें कपाल क्रिया प्रमुख है. यह आत्मा को शारीरिक बंधन से मुक्त करने का मार्ग बताती है.
गरुड़ पुराण में कपाल क्रिया को मृत्यु के बाद की सबसे महत्वपूर्ण और अनिवार्य प्रक्रिया माना गया है. हिंदू धर्म में जब किसी व्यक्ति का दाह संस्कार किया जाता है, तो केवल शरीर का जलना पर्याप्त नहीं होता. आत्मा की पूरी मुक्ति के लिए विशेष विधियां अपनाई जाती हैं, जिनमें कपाल क्रिया प्रमुख है. यह आत्मा को शारीरिक बंधन से मुक्त करने का मार्ग बताती है.
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कपाल क्रिया का अर्थ है मृतक की खोपड़ी को तोड़ना. जब चिता पर शव जल रहा होता है और मुखाग्नि दी जा चुकी होती है, तब लकड़ी के डंडे से सिर पर तीन बार प्रहार किया जाता है. ऐसा करने का उद्देश्य यह है कि सिर के ऊपरी भाग में स्थित ब्रह्मरंध्र खुल सके. यह ब्रह्मरंध्र जीवन और मोक्ष का द्वार माना जाता है, जिससे आत्मा निकलती है.
कपाल क्रिया का अर्थ है मृतक की खोपड़ी को तोड़ना. जब चिता पर शव जल रहा होता है और मुखाग्नि दी जा चुकी होती है, तब लकड़ी के डंडे से सिर पर तीन बार प्रहार किया जाता है. ऐसा करने का उद्देश्य यह है कि सिर के ऊपरी भाग में स्थित ब्रह्मरंध्र खुल सके. यह ब्रह्मरंध्र जीवन और मोक्ष का द्वार माना जाता है, जिससे आत्मा निकलती है.
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गरुड़ पुराण में वर्णित है कि मृत्यु के बाद आत्मा 13 दिनों तक प्रेत योनि में रहती है. इस समय किए गए संस्कार, विशेष रूप से कपाल क्रिया, आत्मा को गति प्रदान करते हैं. यदि यह प्रक्रिया नहीं की जाए, तो आत्मा अधर में अटक सकती है और उसे शांति नहीं मिलती. इसलिए इसे केवल रस्म नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक आवश्यकता माना जाता है.
गरुड़ पुराण में वर्णित है कि मृत्यु के बाद आत्मा 13 दिनों तक प्रेत योनि में रहती है. इस समय किए गए संस्कार, विशेष रूप से कपाल क्रिया, आत्मा को गति प्रदान करते हैं. यदि यह प्रक्रिया नहीं की जाए, तो आत्मा अधर में अटक सकती है और उसे शांति नहीं मिलती. इसलिए इसे केवल रस्म नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक आवश्यकता माना जाता है.
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कपाल क्रिया धार्मिक मान्यता के अनुसार आत्मा की यात्रा को आसान बनाती है. माना जाता है कि अगर ब्रह्मरंध्र नहीं खुला, तो आत्मा का बंधन छूटता नहीं और वह बार-बार जन्म-मरण के चक्र में फंसी रहती है. इस प्रक्रिया के जरिए आत्मा को पंचतत्वों में विलीन किया जाता है, जिससे वह मोक्ष की दिशा में अग्रसर हो पाती है.
कपाल क्रिया धार्मिक मान्यता के अनुसार आत्मा की यात्रा को आसान बनाती है. माना जाता है कि अगर ब्रह्मरंध्र नहीं खुला, तो आत्मा का बंधन छूटता नहीं और वह बार-बार जन्म-मरण के चक्र में फंसी रहती है. इस प्रक्रिया के जरिए आत्मा को पंचतत्वों में विलीन किया जाता है, जिससे वह मोक्ष की दिशा में अग्रसर हो पाती है.
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वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो मानव खोपड़ी बहुत मजबूत होती है और सामान्य चिता की आग में आसानी से नहीं जलती. अगर खोपड़ी अधजली रह जाए, तो धार्मिक मान्यता के अनुसार आत्मा की मुक्ति में बाधा आ सकती है. कपाल क्रिया इस अधूरी जलन को समाप्त करती है, जिससे यह सुनिश्चित हो कि शरीर पूरी तरह पंचतत्वों में मिल जाए.
वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो मानव खोपड़ी बहुत मजबूत होती है और सामान्य चिता की आग में आसानी से नहीं जलती. अगर खोपड़ी अधजली रह जाए, तो धार्मिक मान्यता के अनुसार आत्मा की मुक्ति में बाधा आ सकती है. कपाल क्रिया इस अधूरी जलन को समाप्त करती है, जिससे यह सुनिश्चित हो कि शरीर पूरी तरह पंचतत्वों में मिल जाए.
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आजकल शहरों में आधुनिक इलेक्ट्रिक या गैस श्मशान में दाह संस्कार होते हैं, जहां तापमान अधिक होता है और खोपड़ी पूरी तरह जल जाती है, इसलिए वहां कपाल क्रिया की जरूरत नहीं पड़ती. फिर भी, परंपरागत चिता संस्कार में यह आज भी अनिवार्य मानी जाती है. गरुड़ पुराण के अनुसार, यह अनादि परंपरा धर्म, श्रद्धा और आत्मिक मुक्ति का प्रतीक है, जिसे निभाना पवित्र कर्तव्य माना जाता है.
आजकल शहरों में आधुनिक इलेक्ट्रिक या गैस श्मशान में दाह संस्कार होते हैं, जहां तापमान अधिक होता है और खोपड़ी पूरी तरह जल जाती है, इसलिए वहां कपाल क्रिया की जरूरत नहीं पड़ती. फिर भी, परंपरागत चिता संस्कार में यह आज भी अनिवार्य मानी जाती है. गरुड़ पुराण के अनुसार, यह अनादि परंपरा धर्म, श्रद्धा और आत्मिक मुक्ति का प्रतीक है, जिसे निभाना पवित्र कर्तव्य माना जाता है.

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