सुप्रीम कोर्ट ने धर्मांतरण रोधी कानून के खिलाफ दाखिल याचिका पर राजस्थान से जवाब तलब किया
राजस्थान के इस कानून में धोखे से सामूहिक धर्मांतरण कराने पर 20 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा और धोखाधड़ी से व्यक्ति का धर्मांतरण कराने पर सात से 14 साल तक के कारावास की सजा का प्रावधान है.

सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान के अवैध धर्मांतरण विरोधी अधिनियम की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर सोमवार (8 दिसंबर, 2025) को सुनवाई करते हुए राज्य सरकार को नोटिस जारी करके जवाब तलब किया.
जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने ‘कैथोलिक बिशप्स कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया’ द्वारा दायर याचिका को राजथान विधिविरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम -2025 के विभिन्न प्रावधानों की वैधता को चुनौती देने वाली अलग-अलग लंबित याचिकाओं के साथ संलग्न कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट इससे पहले इसी तरह के मुद्दों को उठाने वाली कुछ अन्य याचिकाओं पर सुनवाई करने को लेकर सहमति जताई थी और राज्य सरकार से जवाब तलब किया था. पीठ के समक्ष सोमवार को मामला सुनवाई के लिए आने पर सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने शीर्ष अदालत को सूचित किया कि इसी तरह के मामले उसके समक्ष विचाराधीन हैं.
याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट से 2025 के अधिनियम को ‘‘असंवैधानिक’’ घोषित करने का आग्रह किया है. राजस्थान के इस कानून में धोखे से सामूहिक धर्मांतरण कराने पर 20 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान किया गया है, जबकि धोखाधड़ी से व्यक्ति का धर्मांतरण कराने पर सात से 14 साल तक के कारावास की सजा का प्रावधान है.
अधिनियम में प्रावधान किया गया है कि धोखे से नाबालिगों, महिलाओं, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और दिव्यांगों का धर्मांतरण कराने पर 10 से 20 साल तक कारावास की सजा और कम से कम 10 लाख रुपये का जुर्माना होगा.
सुप्रीम कोर्ट की एक अन्य पीठ ने सितंबर में विभिन्न राज्यों से उनके धर्मांतरण विरोधी कानूनों पर रोक लगाने का अनुरोध करने वाली अलग-अलग याचिकाओं पर उनसे रुख स्पष्ट करने को कहा था. कोर्ट ने तब स्पष्ट किया था कि वह जवाब दाखिल होने के बाद ऐसे कानूनों के क्रियान्वयन पर रोक लगाने के अनुरोध पर विचार करेगा.
उस समय पीठ उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, झारखंड और कर्नाटक सहित कई राज्यों द्वारा लागू किए गए धर्मांतरण विरोधी कानूनों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर विचार कर रही थी.
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