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पवार की मौजूदगी, पार्टी नेताओं का ट्रस्ट...., PM मोदी को मिल रहे तिलक सम्मान ने कांग्रेस की क्यों बढ़ा दी टेंशन?

पीएम मोदी को लोकमान्य तिलक राष्ट्रीय पुरस्कार 1 अगस्त को दिया जाएगा. लोकमान्य तिलक को कांग्रेस को जन-जन तक पहुंचाने वाला नेता माना जाता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक अगस्त को पुणे में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के अध्यक्ष शरद पवार की मौजूदगी में लोकमान्य तिलक राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा. यह पुरस्कार तिलक स्मारक मंदिर ट्रस्ट द्वारा राष्ट्रवादी 'लोकमान्य' बाल गंगाधर तिलक की स्मृति में स्थापित किया गया है.

महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और अजित पवार भी समारोह में मौजूद रहेंगे. आयोजक तिलक स्मारक मंदिर ट्रस्ट (हिंद स्वराज संघ) ने कहा है कि यह पुरस्कार पीएम मोदी के सर्वोच्च नेतृत्व को मान्यता देता है, जिसके तहत भारत प्रगति की सीढ़ियां चढ़ रहा है.

इस ट्रस्ट में रोहित तिलक और पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे जैसे कांग्रेस नेता ट्रस्टी के रूप में जुड़े हैं. इसकी अध्यक्षता लोकमान्य के प्रपौत्र और रोहित के पिता दीपक तिलक कर रहे हैं.

लोकमान्य  तिलक पारंपरिक रूप से कांग्रेस के समर्थक रहे हैं. लोकमान्य तिलक को कांग्रेस को जन-जन तक पहुंचाने वाला व्यक्ति माना जाता है. इससे पहले यह पुरस्कार प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह को उनकी सार्वजनिक सेवा के लिए दिया जा चुका है.

एक मायने में इस अवार्ड को पीएम मोदी को दिए जाने पर ये सोचा जा रहा है तिलक और उनकी विरासत को धीरे-धीरे हिंदू दक्षिणपंथियों द्वारा कब्जा किया जा रहा है.  

तिलक अपने शरुआती दिनों में सुधारवादी और ब्राह्मणवादी विरोधी थे. बाद के वर्षों में वो बोल्शेविकों की विचारधारा की तरफ आकर्षित हुए. बोल्शेविकों ने 1917 में रूस में सत्ता पर कब्जा कर लिया था. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होने के बावजूद वे कांग्रेस के नरमपंथी रवैये के खिलाफ बोलने लगे थे.

क्या सामाजिक रूप से रूढ़िवादी थे तिलक?

तिलक जाति और महिला मुक्ति जैसे मुद्दों को सामाजिक रूप से रूढ़िवादी माने जाते थे. वो ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण सुधारकों के प्रयासों का समर्थन नहीं करते थे. तिलक को बाल विवाह के खिलाफ कानून और सहमति की आयु विधेयक के विरोध जैसे मुद्दों पर रूढ़िवादी ब्राह्मणों के बीच मजबूत समर्थन मिला.

तिलक और उनके समर्थक नहीं चाहते थे कि औपनिवेशिक सरकार धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करे और उन्हें लगा कि यह हिंदुओं का आंतरिक मुद्दा है, जिसे उन्हें स्वेच्छा से सुधारने की जरूरत है.

अंग्रेजी पत्रिका इंडिया टुडे से बात करते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज की परिमाला वी. राव ने बताया- तिलक सुधारों के विरोधी थे, लेकिन रूढ़िवादी नहीं थे.

वहीं तिलक के सहयोगी से विरोधी बने समाज सुधारक गोपाल गणेश अगरकर का ये दावा था कि ' तिलक प्रतिक्रियावादी नहीं थे. तिलक के साथ तीखी झड़प करने वाले अगरकर का ये भी दावा था तिलक एक सुधारक थे, लेकिन उन्होंने अपना नेतृत्व स्थापित करने के लिए रूढ़िवादी रुख अपनाया था.

तिलक पुणे से ताल्लुक रखते थे जो चितपावन ब्राह्मण पेशवाओं की पूर्ववर्ती राजधानी थी. इसे कट्टर ब्राह्मण क्षेत्र था. तिलक को आज महाराष्ट्र में जातिगत दरार, ब्राह्मणों और मराठों (क्षत्रियों) के बीच विभाजन के लिए दोषी ठहराया जाता है'.

लेनिन ने की थी तिलक की सराहना

हालांकि, तिलक का समर्थन आधार रूढ़िवादी ब्राह्मणों से आगे बढ़ा . उनके सहयोगियों और अनुयायियों में जोसेफ 'काका' बैप्टिस्टा जैसे महाराष्ट्रीयन रोमन कैथोलिक, एमए जिन्ना जैसे मुस्लिम और पारसी और गुजराती व्यापारी शामिल थे.

उनके बारे में एक किस्सा है कि 1908 में जब तिलक को राजद्रोह का दोषी ठहराया गया और छह साल के लिए बर्मा के मांडले में निर्वासित कर दिया गया, तो बॉम्बे में पूर्व-प्रमुख गैर-ब्राह्मण मिल श्रमिकों ने काम बंद कर दिया और छह दिनों के लिए सड़कों पर उतर आए.

इसे भारत में पहली राजनीतिक हड़ताल के रूप में मान्यता दी गई है और रूसी क्रांतिकारी वी.आई. लेनिन ने इसकी सराहना की थी.

हड़ताल और विरोध के कारण ब्रिटिश सरकार ने मुंबई में पुलिस स्टेशनों और खुफिया जानकारी इकट्ठा करने के लिए विशेष शाखा की स्थापना की. इसके बाद अपराध शाखा बनाई गई.

इस तरह तिलक को आधुनिक मुंबई पुलिस का पिता भी माना जा सकता है. उनके भूमिगत क्रांतिकारियों के साथ भी संबंध गहरे थे भूमिगत क्रांतिकारी तिलक से ही मार्गदर्शन लेते थे.

लोकमान्य के रूप में तिलक की लोकप्रियता का एक और कारण सांप्रदायिक दंगों के दौरान हिंदू हितों का आक्रामक समर्थन था. यह हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संघर्ष  में उन्होंने बड़े पैमाने पर हिंदुओं का समर्थन किया. तिलक ने अंग्रेजों पर मुसलमानों के प्रति पक्षपात करने का भी आरोप लगाया. 

सदानंद मोरे जैसे तिलक के कुछ जीवनी लेखकों ने अपने लेख में लिखा है कि ऐसा लगता था कि तिलक मुसलमानों से लड़ रहे थे, लेकिन उनकी लड़ाई ब्रिटिश राज के खिलाफ थी क्योंकि उन्होंने इसकी विभाजनकारी नीतियों को चुनौती दी थी.

तिलक चाहते थे कि हिंदू और मुसलमान अंग्रेजों के हस्तक्षेप के बिना अपने मतभेदों को हल करें. आधुनिक हिंदू दक्षिणपंथियों के विपरीत तिलक के मन में एक समुदाय के रूप में मुसलमानों के प्रति कोई शत्रुता नहीं थी .

मुसलमान हिंदुओं को साथ लाना चाहते थे लेनिन

1906 में कांग्रेस सत्र के लिए तिलक की कलकत्ता यात्रा के दौरान लखनऊ के एक व्यक्ति ने उनसे संपर्क किया जो पार्टी में उदारवादी खेमे से संबंधित था.

उस व्यक्ति ने गुस्से में शिकायत की कि मुसलमान हिंदुओं के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं और एक इस्लामवादी आंदोलन शुरू करने की कोशिश कर रहे हैं. तिलक ने कहा कि इससे स्वतंत्रता में तेजी आएगी.

जैसे ही मुसलमान एकजुट होंगे, सरकार उनके पीछे पड़ जाएगी. जिससे मुसलमान हिंदुओं के साथ हाथ मिलाने के लिए प्रेरित होंगे. 

तिलक ने 1916 में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच 'लखनऊ समझौते' के माध्यम से मुसलमानों को बड़ी रियायतें दीं थी. जिस पर डॉ बीएस मुंजे और डॉ केशव बलिराम हेडगेवार जैसे उनके युवा अनुयायियों ने नाराजगी भी जाहिर की. ये दोनों 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सह-संस्थापकों में से एक थे.

1896 से तिलक ने छत्रपति शिवाजी की जयंती (जन्म) के समारोहों का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर लामबंदी के लिए किया. 1906 में कलकत्ता में बोलते हुए तिलक ने कहा था कि शिवाजी मुसलमानों के दुश्मन नहीं थे और उनका संघर्ष अन्याय के खिलाफ लड़ाई थी.

उन्होंने मुसलमानों से उत्सव में शामिल होने का भी आह्वान किया और भविष्यवाणी की कि अगले शिवाजी महाराज उनके बीच पैदा हो सकते हैं. 

तिलक ने ब्रिटिश सामानों का आर्थिक बहिष्कार करने और उनके औद्योगिक हितों को नुकसान पहुंचाने के लिए महाराष्ट्र में 'स्वदेशी' की वकालत की थी. बाद में इसे महात्मा गांधी ने आगे बढ़ाया.

बता दें कि तिलक ने 1888 से खुद को कांग्रेस के साथ जोड़ना शुरू कर दिया था और वो कांग्रेस सचिव भी बनें. कांग्रेस में अतिवादी गुट का नेतृत्व करने वाले तिलक अक्सर फिरोजशाह मेहता और गोपाल कृष्ण गोखले के नेतृत्व वाले नरमपंथियों से भिड़ जाते थे.

कुछ दस्तावेजों में तिलक को कार्ल मार्क्स और उनके सिद्धांत को भारत में पेश करने का श्रेय भी दिया गया है. अपनी मृत्यु से पहले तिलक ने ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) के अध्यक्ष बनने के लिए भी सहमति व्यक्त की थी, जिसे 1920 में लॉन्च किया गया था.

1918 में तिलक के उपर लिखी किताब इंडियन अनरेस्ट में कुछ अपमानजनक टिप्पणियां थी. इसके लिए ब्रिटिश पत्रकार और राजनयिक सर वेलेंटाइन चिरोल के खिलाफ वो कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए इंग्लैंड गए. हालांकि वह 1919 में मानहानि का मुकदमा हार गए.

इसके बाद तिलक ने ब्रिटेन में लेबर पार्टी और सीन फीन पार्टी में कट्टरपंथियों के साथ संबंध बनाए.  इंग्लैंड में अपने भाषणों में तिलक ने भारत पर ब्रिटिश शासन को एक पूंजीवादी शासन के रूप में वर्णित किया जिसने श्रमिक वर्ग का शोषण किया.

इस तरह तिलक धीरे-धीरे आधुनिक विचारधारा की ओर बढ़े. अप्रैल 1920 में कांग्रेस डेमोक्रेटिक पार्टी के घोषणापत्र में कहा गया कि सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार, मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा, बंधुआ मजदूरी का उन्मूलन और जाति की परवाह किए बिना सभी के लिए सेना भर्ती में शामिल करना लक्ष्य होगा. 

तिलक का निधन 1 अगस्त, 1920 को क्रॉफर्ड मार्केट के पास 'सरदारगृह' में हुआ. गिरगांव चौपाटी पर तिलक की अंतिम यात्रा में भारी भीड़ इकट्ठा हुई थी. उनकी शव यात्रा में जाति और धार्मिक संप्रदायों के लगभग 200,000 लोगों की भीड़ देखी गई. इस तरह उनके निधन के समय तक तिलक भारतीय जनता के बड़े नेता बन गए थे.

कांग्रेस में खलबली क्यों

जानकारों का मानना है कि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को शुरुआती कांग्रेस और स्वतंत्रता आंदोलन के एक बड़े नेता के रूप में आज भी माना जाता है. पार्टी पर उनके आदर्श आज भी अंकित हैं. उनके पोते जयंत तिलक और प्रपौत्र रोहित तिलक कांग्रेस का हिस्सा हैं. रोहित वर्तमान महाराष्ट्र कांग्रेस इकाई के महासचिव हैं.

एक तरफ राहुल गांधी और पार्टी कार्यकर्ता पीएम मोदी और भाजपा की नीतियों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं. उनका कहना है कि पीएम मोदी देश को तानाशाही की ओर ले जा रहे हैं. ऐसे समय में जब कांग्रेस कैडर उनसे लड़ रहे हैं, कोई मोदी को खुश कैसे कर सकता है?  कांग्रेस ये दोहरा मानदंड स्वीकार्य नहीं करना चाह रही है. 

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के अध्यक्ष शरद पवार के इस समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल होने को लेकर भौंहें तन गई हैं, क्योंकि राकांपा प्रमुख और मोदी पवार के भतीजे अजित पवार की वजह से राकांपा में विभाजन के कुछ दिनों बाद मंच साझा करेंगे.

मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के अलावा उपमुख्यमंत्री अजित पवार और देवेंद्र फडणवीस भी एक जुलाई को होने वाले समारोह का हिस्सा होंगे. 

इस पूरे विवाद पर महाराष्ट्र कांग्रेस प्रमुख नाना पटोले ने कहा- पीएम मोदी को पुरस्कार देना तिलक स्मारक मंदिर ट्रस्ट का विषय है. पटोले ने आगे कहा, 'अगर तिलक आज जीवित होते तो वो पीएम मोदी को यह पुरस्कार दिए जाने को मंजूरी नहीं देते.

पुणे से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अनंत गाडगिल ने कहा कि यह अकल्पनीय है कि मोदी को ऐसे समय में कांग्रेस के एक नेता द्वारा पुरस्कार दिया जाए जब पार्टी कार्यकर्ता बीजेपी से जी-जान से लड़ रहे हैं. इसी तरह, मुंबई कांग्रेस के नेता भाई जगताप ने कहा कि यह तिलक पुरस्कार का 'अवमूल्यन' होने जैसा है .

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