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जनधन से लेकर बेरोजगारी तक... पीएम मोदी के 9 साल के कार्यकाल के दौरान जानें कौन से कदम रहे हिट और कौन से फ्लॉप

26 मई यानी कल मोदी सरकार की 10 वीं सालगिरह है. सरकार के 9 साल पूरे हुए और निस्संदेह यह बीते कुछ सरकारों में सबसे अधिक चर्चा में रहने वाली सरकार है. इसमें कुछ योगदान भले ही सोशल मीडिया का भी है. सरकार के 9 साल पर जहां समर्थक इसको अब तक की सबसे अच्छी सरकार बता रहे हैं, तो विरोधी अब तक की सबसे बेकार सरकार घोषित कर दे रहे हैं. मोदी सरकार के बारे में शायद वही कहावत सच है कि आप इसे प्यार करें, नफरत करें लेकिन इसकी अनदेखी नहीं कर सकते हैं. 

शुरुआत अच्छी, बाद में फिसले

पूरे 9 साल के कार्यकाल को देखें तो सड़क निर्माण में प्रगति हुई है. पहले जो प्रति दिन प्रति किमी सड़क निर्माण का आंकड़ा था, उसमें तेजी आई है. इसके अलावा, जब 2014 में जब सरकार ने शपथ ली थी तो सार्क देशों के प्रमुखों को बुलाया गया था. इन्होंने शुरुआत अच्छी की थी, पड़ोसियों के साथ बेहतर संबंध बनाने की कोशिश थी, लेकिन वह जारी नहीं रह पाया. अगर विदेश नीति की बात की जाए, तो शुरुआत ठीक रही, लेकिन अंततः चीन जिस तरह 'स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स' के जरिए, हमारे पड़ोसियों के जरिए ही हमको घेर रहा है, तो वह शुरुआत कायम नहीं रह सकी. अगर मैं आपको निर्यात के आंकड़े दूं, तो वह घटा है. चीन के साथ घटा है, बांग्लादेश के साथ घटा है, नेपाल के साथ घटा है. वहां हमारी तुलना में चीन की स्थिति मजबूत हो रही है. इसको इसीलिए गंभीरता से देखने की जरूरत है. प्रधानमंत्री मोदी ने नेपाल पर काफी ध्यान दिया है. जहां मनमोहन सिंह अपने कार्यकाल में नेपाल की यात्रा पर नहीं गए, वहीं मोदी कई बार गए हैं. हालांकि, अंततः भारत-नेपाल संबंधों में दूरी देखने को मिलती है. नेपाल की तरफ से कभी गोलीबारी या सीमाविवाद देखने को नहीं मिलता था, लेकिन पिछले 5 साल में वह भी देखने को मिला. 

कई अच्छी बातें भी हुई हैं. इन्फ्रास्ट्र्क्चर है, बंदरगाह है या इस तरह की और भी कई बातें हैं, जहां सरकार ने बेहतर काम किया. हालांकि, सरकार की कई बहुप्रचारित योजनाएं ऐसी भी रहीं, जिनका फल नहीं मिला. जैसे, इनकी जोर-शोर से ढोल बजाकर लाई गई स्कीम थी, नोटबंदी. उसका जब हम मूल्यांकन करते हैं, तो लगभग साढ़े 6 साल हो गए हैं, उस योजना को. इसके बावजूद 2000 के नोटों की वापसी अभी चल ही रही है, तो इसका मतलब तो यही हुआ कि काले धन की समस्या खत्म नहीं हुई थी. नोटबंदी के समय वैसे इन्होंने लंबे-चौड़े दावे किए थे, जिसमें काले धन का खात्मा सबसे प्रमुख था. फेक करेंसी का मामला देखिए, तो 2016 से लेकर अब तक इसके मामले भी लगातार दर्ज हो रहे हैं. 10 रुपए तक के नोट को भी फेक बनाया जा रहा है. उसी तरह जीएसटी का उद्देश्य बहुत बढ़िया था. उसमें लेकिन जिस तरह हड़बड़ी की गयी, तो उसमें 1000 से अधिक तो संशोधन लाना पड़ा. अगर उसे ढंग से लाते, सोच-समझकर लाते तो शायद जीएसटी के निगेटिव परिणाम देखने को नहीं मिलते. 

आर्थिक के साथ सामाजिक मसले भी मौजूद

ये आर्थिक क्षेत्र की कुछ गड़बड़ियां थीं- जीएसटी और नोटबंदी. महंगाई के मामले पर भी सरकार फेल रही है. 2014 में जब ये सरकार आई थी, तो महंगाई एक बड़ा मुद्दा था. अब सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कुछ काम तो चल रहा है, लेकिन उसमें बहुत काम करने की जरूरत है. इसके अलावा भी कुछ बड़े मसले हैं. जैसे 'सर्वधर्म समभाव' का ही मसला ले लीजिए. जो इस सरकार का नारा है- 'सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास'. प्रधानमंत्री इसमें बहुत काम भी करते हैं, लेकिन अब समस्या ये है कि बीजेपी के कुछ निचले स्तर के नेता, जैसे दिल्ली के प्रवेश वर्मा ने मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार का नारा दे दिया, उसी तरह कुछ मंत्रियों, कुछ नेताओं के जो बयान आते हैं, वह पीएम के नारे को अंडरमाइन कर देते हैं. बीजेपी के 2019 में 303 सांसद आए थे, यह बहुत बड़ा जनादेश था. 1984 के बाद सबसे बड़ा जनादेश. केसरिया का फैलाव हुआ है, इसमें कोई दो-राय नहीं. गुजरात में इन्होंने सारे रिकॉर्ड तोड़े, लेकिन दिल्ली में एमसीडी के चुनाव ये हार गए. हिमाचल प्रदेश से इनको हटना पड़ा. लोग भले ये कहते रहें कि 1 परसेंट से थोड़े कम अंतर पर ही सारी सीटें आईं. इसी तरह अभी कर्नाटक में देख लीजिए. वैसे, यह बात मैं फिर भी कहूंगा कि कर्नाटक हो या हिमाचल, प्रधानमंत्री की ताबड़तोड़ रैलियों की वजह से टैली पर इतनी सीटें भी चढ़ीं, वरना अंतर और बड़ा होता. 

रोजगार और महंगाई को करें काबू

अब कुछ योजनाओं की बात अगर करें तो शौचालय हो या सड़कें हों, वह निचले स्तर पर दिखता भी है. उज्ज्वला योजना की बात करें तो सिलिंडर इन्होंने घर-घर पहुंचा दिया, अब लेकिन उसकी रिवर्स प्रतिक्रिया भी हो रही है. पीएम ने तब बहुत भावपूर्ण भाषण दिया था. हालांकि, गैस के बढ़ते दामों के कारण वह योजना अब अंडरमाइन हो रही है. उस पर सब्सिडी भी केवल 200 रुपए मिलते हैं. तो, सरकारी आंकड़े भी बताते हैं कि रीफिलिंग बहुत कम हो रही है. ओवरऑल, अभी भी यही कहा जा सकता है कि सरकार अगर दो मसलों पर काम कर ले, वह अगर रोजगार के मसले पर काम करे और महंगाई पर काम करे. यानी विकास के मसले पर काम इस तरह से हो, योजनाएं ऐसी बनें कि रोजगार-सृजन भी हो और महंगाई भी काबू में रहे, तो इस सरकार की राह बहुत आसान हो जाएगी. आप अभी किसी से भी पूछें तो लोग इस सरकार को काफी बेहतर मानेंगे, लेकिन जो बीजेपी का कट्टर वोटर भी है, वह भी दो बार इन दोनों मसलों पर चुप रहेगा. यानी, इनके वित्त मंत्रालय ने ठीक से काम नहीं किया है. गडकरी ने, उनके मंत्रालय ने ठीक काम किया है, ट्रेनों का परिचालन भी ठीक हो रहा है, हालांकि जनरल सीटें वहां कम हो रही हैं. 

(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)  

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