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गंगा विशेष: कलम, आज ‘दिनकर’ की जय बोल! जन्मदिन पर पढ़ें राष्ट्र्कवि रामधारी सिंह दिनकर की 10 सर्वश्रेष्ठ कविताएं

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की आज जयंति है। आप भी पढ़िए रामधारी सिंह दिनकर की 10 सर्वश्रेष्ठ कविताएं।

नई दिल्ली, एबीपी गंगा। महान कवि रामधारी सिंह दिनकर की आज जयंति है। उनका जन्म 23 सितंबर 1908 बिहार के बेगूसराय जिले में हुआ था। सामान्य किसान परिवार में जन्मे रामधारी सिंह दिनकर को राष्ट्रकवि का दर्जा हासिल है। रामधारी सिंह को राष्ट्रकवि का दर्जा यूं ही नहीं मिला। रामधारी हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। रामधारी देश की आजादी से पहले विद्रोही कवि के रूप में जाने जाते थे जबकि आजादी के बाद वो 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गए। तो चलिए आप भी पढ़िए इस महान कवि की 10 प्रमुख कविताएं...

  1. हो कहाँ अग्निधर्मा नवीन ऋषियों

कहता हूँ¸ ओ मखमल–भोगियो।

श्रवण खोलो¸

रूक सुनो¸ विकल यह नाद

कहां से आता है।

है आग लगी या कहीं लुटेरे लूट रहे?

वह कौन दूर पर गांवों में चिल्लाता है?

जनता की छाती भिदें

और तुम नींद करो¸

अपने भर तो यह जुल्म नहीं होने दूँगा।

तुम बुरा कहो या भला¸

मुझे परवाह नहीं¸

पर दोपहरी में तुम्हें नहीं सोने दूँगा।।

हो कहां अग्निधर्मा

नवीन ऋषियो? जागो¸

कुछ नयी आग¸

नूतन ज्वाला की सृष्टि करो।

शीतल प्रमाद से ऊंघ रहे हैं जो¸ उनकी

मखमली सेज पर

चिनगारी की वृष्टि करो।

गीतों से फिर चट्टान तोड़ता हूं साथी¸

झुरमुटें काट आगे की राह बनाता हूँ।

है जहां–जहां तमतोम

सिमट कर छिपा हुआ¸

चुनचुन कर उन कुंजों में

आग लगाता हूँ।

2. कलम, आज उनकी जय बोलो

जला अस्थियाँ बारी-बारी चिटकाई जिनमें चिंगारी, जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल कलम, आज उनकी जय बोल।

जो अगणित लघु दीप हमारे तूफानों में एक किनारे, जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल कलम, आज उनकी जय बोल।

पीकर जिनकी लाल शिखाएँ उगल रही सौ लपट दिशाएं, जिनके सिंहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल कलम, आज उनकी जय बोल।

अंधा चकाचौंध का मारा क्या जाने इतिहास बेचारा, साखी हैं उनकी महिमा के सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल कलम, आज उनकी जय बोल।

3. बालिका से वधू 

माथे में सेंदूर पर छोटी दो बिंदी चमचम-सी, पपनी पर आँसू की बूँदें मोती-सी, शबनम-सी। लदी हुई कलियों में मादक टहनी एक नरम-सी, यौवन की विनती-सी भोली, गुमसुम खड़ी शरम-सी। पीला चीर, कोर में जिसके चकमक गोटा-जाली, चली पिया के गांव उमर के सोलह फूलों वाली। पी चुपके आनंद, उदासी भरे सजल चितवन में, आँसू में भींगी माया चुपचाप खड़ी आंगन में। आँखों में दे आँख हेरती हैं उसको जब सखियाँ, मुस्की आ जाती मुख पर, हँस देती रोती अँखियाँ। पर, समेट लेती शरमाकर बिखरी-सी मुस्कान, मिट्टी उकसाने लगती है अपराधिनी-समान। भींग रहा मीठी उमंग से दिल का कोना-कोना, भीतर-भीतर हँसी देख लो, बाहर-बाहर रोना। तू वह, जो झुरमुट पर आयी हँसती कनक-कली-सी, तू वह, जो फूटी शराब की निर्झरिणी पतली-सी। तू वह, रचकर जिसे प्रकृति ने अपना किया सिंगार, तू वह जो धूसर में आयी सुबज रंग की धार। मां की ढीठ दुलार! पिता की ओ लजवंती भोली, ले जायेगी हिय की मणि को अभी पिया की डोली। कहो, कौन होगी इस घर की तब शीतल उजियारी? किसे देख हँस-हँस कर फूलेगी सरसों की क्यारी? वृक्ष रीझ कर किसे करेंगे पहला फल अर्पण-सा? झुकते किसको देख पोखरा चमकेगा दर्पण-सा? किसके बाल ओज भर देंगे खुलकर मंद पवन में? पड़ जायेगी जान देखकर किसको चंद्र-किरन में? महँ-महँ कर मंजरी गले से मिल किसको चूमेगी? कौन खेत में खड़ी फ़सल की देवी-सी झूमेगी? बनी फिरेगी कौन बोलती प्रतिमा हरियाली की? कौन रूह होगी इस धरती फल-फूलों वाली की? हँसकर हृदय पहन लेता जब कठिन प्रेम-ज़ंजीर, खुलकर तब बजते न सुहागिन, पाँवों के मंजीर। घड़ी गिनी जाती तब निशिदिन उँगली की पोरों पर, प्रिय की याद झूलती है साँसों के हिंडोरों पर। पलती है दिल का रस पीकर सबसे प्यारी पीर, बनती है बिगड़ती रहती पुतली में तस्वीर। पड़ जाता चस्का जब मोहक प्रेम-सुधा पीने का, सारा स्वाद बदल जाता है दुनिया में जीने का। मंगलमय हो पंथ सुहागिन, यह मेरा वरदान; हरसिंगार की टहनी-से फूलें तेरे अरमान। जगे हृदय को शीतल करने- वाली मीठी पीर, निज को डुबो सके निज में, मन हो इतना गंभीर। छाया करती रहे सदा तुझको सुहाग की छाँह, सुख-दुख में ग्रीवा के नीचे रहे पिया की बाँह। पल-पल मंगल-लग्न, ज़िंदगी के दिन-दिन त्यौहार, उर का प्रेम फूटकर हो आँचल में उजली धार।

4. परिचय 

सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं बँधा हूँ, स्वप्न हूँ, लघु वृत हूँ मैं नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं

समाना चाहता, जो बीन उर में विकल उस शून्य की झंकार हूँ मैं भटकता खोजता हूँ, ज्योति तम में सुना है ज्योति का आगार हूँ मैं

जिसे निशि खोजती तारे जलाकर उसी का कर रहा अभिसार हूँ मैं जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं

कली की पंखुडीं पर ओस-कण में रंगीले स्वप्न का संसार हूँ मैं मुझे क्या आज ही या कल झरुँ मैं सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं

मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण! जब से लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं रुंदन अनमोल धन कवि का, इसी से पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं

मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी समा जिसमें चुका सौ बार हूँ मैं

न देंखे विश्व, पर मुझको घृणा से मनुज हूँ, सृष्टि का श्रृंगार हूँ मैं पुजारिन, धुलि से मुझको उठा ले तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं

सुनुँ क्या सिंधु, मैं गर्जन तुम्हारा स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का प्रलय-गांडीव की टंकार हूँ मैं

दबी सी आग हूँ भीषण क्षुधा का दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं सजग संसार, तू निज को सम्हाले प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं

बंधा तूफान हूँ, चलना मना है बँधी उद्याम निर्झर-धार हूँ मैं कहूँ क्या कौन हूँ, क्या आग मेरी बँधी है लेखनी, लाचार हूँ मैं।।

5. परंपरा 

परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो उसमें बहुत कुछ है जो जीवित है जीवन दायक है जैसे भी हो ध्वंस से बचा रखने लायक है

पानी का छिछला होकर समतल में दौड़ना यह क्रांति का नाम है लेकिन घाट बांध कर पानी को गहरा बनाना यह परम्परा का नाम है

परम्परा और क्रांति में संघर्ष चलने दो आग लगी है, तो सूखी डालों को जलने दो

मगर जो डालें आज भी हरी हैं उन पर तो तरस खाओ मेरी एक बात तुम मान लो

लोगों की आस्था के आधार टुट जाते है उखड़े हुए पेड़ो के समान वे अपनी जड़ों से छूट जाते है

परम्परा जब लुप्त होती है सभ्यता अकेलेपन के दर्द मे मरती है कलमें लगना जानते हो तो जरुर लगाओ मगर ऐसी कि फलो में अपनी मिट्टी का स्वाद रहे

और ये बात याद रहे परम्परा चीनी नहीं मधु है वह न तो हिन्दू है, ना मुस्लिम

6. आग की भीख

धुँधली हुईं दिशाएँ, छाने लगा कुहासा, कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा। कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है; मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज रो रहा है? दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे, बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे। प्यारे स्वदेश के हित अंगार माँगता हूँ। चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ।

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है, कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है? मँझधार है, भँवर है या पास है किनारा? यह नाश आ रहा या सौभाग्य का सितारा? आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा, भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा। तम-बेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ। ध्रुव की कठिन घड़ी में पहचान माँगता हूँ।

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है, बल-पुँज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है, अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ ढेर हो रहा है, है रो रही जवानी, अन्धेर हो रहा है। निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है। निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है। पंचास्य-नाद भीषण, विकराल माँगता हूँ। जड़ता-विनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ।

मन की बँधी उमंगें असहाय जल रही हैं, अरमान-आरज़ू की लाशें निकल रही हैं। भीगी-खुली पलों में रातें गुज़ारते हैं, सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं। इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे, पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे। उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ। विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ।

आँसू-भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे, मेरे श्मशान में आ श्रृंगी जरा बजा दे; फिर एक तीर सीनों के आर-पार कर दे, हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे। आमर्ष को जगाने वाली शिखा नई दे, अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे। विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ। बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ।

ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे, जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे। गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे। इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे। हम दे चुके लहू हैं, तू देवता विभा दे, अपने अनल-विशिख से आकाश जगमगा दे। प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ, तेरी दया विपद् में भगवान, माँगता हूँ।

7. निराशावादी 

पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा, धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास; उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी, बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास ।

क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ? तब तुम्हीं टटोलो हृदय देश का, और कहो, लोगों के दिल में कहीं अश्रु क्या बाकी है? बोलो, बोलो, विस्मय में यों मत मौन रहो ।

8. शक्ति और क्षमा

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल सबका लिया सहारा पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे कहो, कहाँ, कब हारा?

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष तुम हुये विनत जितना ही दुष्ट कौरवों ने तुमको कायर समझा उतना ही।

अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है पौरुष का आतंक मनुज कोमल होकर खोता है।

क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो उसको क्या जो दंतहीन विषरहित, विनीत, सरल हो।

तीन दिवस तक पंथ मांगते रघुपति सिन्धु किनारे, बैठे पढ़ते रहे छन्द अनुनय के प्यारे-प्यारे।

उत्तर में जब एक नाद भी उठा नहीं सागर से उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से।

सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि करता आ गिरा शरण में चरण पूज दासता ग्रहण की बँधा मूढ़ बन्धन में।

सच पूछो, तो शर में ही बसती है दीप्ति विनय की सन्धि-वचन संपूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजय की।

सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है।

9. ध्वज-वंदना 

नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो! नमो नगाधिराज-शृंग की विहारिणी! नमो अनंत सौख्य-शक्ति-शील-धारिणी! प्रणय-प्रसारिणी, नमो अरिष्ट-वारिणी! नमो मनुष्य की शुभेषणा-प्रचारिणी! नवीन सूर्य की नई प्रभा, नमो, नमो! नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो!

हम न किसी का चाहते तनिक, अहित, अपकार प्रेमी सकल जहान का भारतवर्ष उदार सत्य न्याय के हेतु, फहर फहर ओ केतु हम विरचेंगे देश-देश के बीच मिलन का सेतु पवित्र सौम्य, शांति की शिखा, नमो, नमो! नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो!

तार-तार में हैं गुंथा ध्वजे, तुम्हारा त्याग दहक रही है आज भी, तुम में बलि की आग सेवक सैन्य कठोर, हम चालीस करोड़ कौन देख सकता कुभाव से ध्वजे, तुम्हारी ओर करते तव जय गान, वीर हुए बलिदान अंगारों पर चला तुम्हें ले सारा हिन्दुस्तान! प्रताप की विभा, कृषानुजा, नमो, नमो!

नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो!

10. दिल्ली

यह कैसी चांदनी अम के मलिन तमिस्र गगन में कूक रही क्यों नियति व्यंग से इस गोधूलि-लगन में ?

मरघट में तू साज रही दिल्ली कैसे श्रृंगार? यह बहार का स्वांग अरी इस उजड़े चमन में!

इस उजाड़ निर्जन खंडहर में छिन्न-भिन्न उजड़े इस घर मे

तुझे रूप सजाने की सूझी इस सत्यानाश प्रहर में !

डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया-तराना, और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना;

हम धोते हैं घाव इधर सतलज के शीतल जल से, उधर तुझे भाता है इनपर नमक हाय, छिड़काना !

महल कहां बस, हमें सहारा केवल फ़ूस-फ़ास, तॄणदल का;

अन्न नहीं, अवलम्ब प्राण का गम, आँसू या गंगाजल का;

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