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देश के इस वीर के नाम से कांपते थे अंग्रेज, 80 साल के उम्र में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ खोला था मोर्चा

वीर कुंवर सिंह बचपन से ही वीर थे. उनपर बंदूक चलाने और घोड़ा दौड़ाने का नशा सवार रहता था. वह छूरी-भाला और कटारी चलाने का भी अभ्यास करते रहते थे.

आरा: भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में 80 साल के एक ऐसे महानायक भी थे, जिनके नाम सुनते ही अंग्रेजों के पसीने छूट जाते थे. भारत को आजाद कराने और अंग्रेजों को देश से भगाने में इनकी भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी. 80 साल के उम्र में 1857 की क्रांति में अंग्रेजों के दांत खट्टे करने वाले बाबू वीर कुंवर सिंह वीर ही नहीं बल्कि वयोवृद्ध योद्धा थे. जिन्होंने उस उम्र में अंग्रेजों को धूल चटाया, जिस उम्र में आमतौर पर लोग बिस्तर पकड़ लेते हैं, उस उम्र में बाबू वीर कुंवर सिंह ने अपने युद्ध कौशल और पराक्रम से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे.

बाबू वीर कुंवर सिंह मूल रूप से बिहार के भोजपुर जिले के रहने वाले थे. वीर कुंवर सिंह का जन्म 1777 में बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में प्रसिद्ध शासक भोज के वंशजों में हुआ था. प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान 25 जुलाई 1857 से 23 अप्रैल 1858 के बीच उन्होंने 15 बड़ी लड़ाइयां लड़ी. इस भोजपुरी शेर की गौरव गाथा आज भी यहां के युवाओं को प्रेरित करती है.

बाबू वीर कुंवर सिंह के पिता बाबू साहबजादा सिंह उज्जैनिया क्षत्रियों के वंशज थे. वहीं कुंवर सिंह की माता का नाम पंचरत्न कुंवर था. जगदीशपुर गांव के लोग ऐसा बताते हैं कि कुंवर सिंह बचपन से ही वीर थे. उनपर बंदूक चलाने और घोड़ा दौड़ाने का नशा सवार रहता था. वह छूरी-भाला और कटारी चलाने का भी अभ्यास करते रहते थे.

इतिहासकारों ने लिखा है कि साल 1857 के विद्रोही नेताओं में युद्ध विद्या की कला की योग्यता रखने वाले कुंवर सिंह से बढ़कर कोई नेता नहीं था. वीर कुंवर सिंह ने छोटी सी सेना और बहुत कम साधन के बलबूते ही अपनी मिट्टी की रक्षा की. 80 साल की उम्र में जिस तरीके से वह तलवार चलते थे कि उसका लोहा अंग्रेज भी मानते थे.

1857 के नवंबर महीने में कानपुर की एक क्रांतिकारी युद्ध में बाबू कुंवर सिंह की महती भूमिका रही थी. इस दौरान इन्होंने तात्या टोपे, नवाब अली बहादुर, नवाब तफच्चुल हुसेन और राय साहब पेशवा के अधीन फिरंगियों से लोहा लिया था. इस वीर महानायक ने 26 मार्च 1858 को आजमगढ़ पर पूर्ण रूप से कब्जा कर लिया था, जिसकी गाथा सुनकर आज भी युवाओं में एक अनूठी ऊर्जा का उत्सर्जन होता है.

27 अप्रैल 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ आरा नगर पर बाबू वीर कुंवर सिंह ने कब्जा जमा लिया था. अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बाद भी भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा. ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने बाबू वीर कुंवर सिंह बारे में लिखा है कि ‘उस बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन-बान के साथ लड़ाई लड़ी. यह गनीमत थी कि युद्ध के समय कुंवर सिंह की उम्र 80 के करीब थी. अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता.’

अवध बिहारी 'कवि' ने अपनी किताब 'वीर कुंवर सिंह और अजायब महतो' में लिखा है कि 20 अप्रैल 1858 को आजमगढ़ पर कब्जे के बाद रात में वे बलिया के मनियर गांव पहुंचे थे. 22 अप्रैल को सूर्योदय की बेला में शिवपुर घाट बलिया से एक हाथी पर सवार हो गंगा पार करने लगे. इस दौरान अंग्रेजों ने उनपर तोप के गोले दागे. इसमें बाबू कुंवर सिंह की दाहिनी कलाई कटकर लटक गई. तब उन्होंने यह कहते हुए कि 'लो गंगा माई! तेरी यही इच्छा है तो' खुद ही बायें हाथ से तलवार उठाकर उस झूलती हथेली को काट गंगा में प्रवाहित कर दिया था.

उस दिन बुरी तरह घायल होने पर भी इस बहादुर ने जगदीशपुर किले से गोरे पिस्सुओं का "यूनियन जैक" नाम का झंडा उतार कर ही दम लिया. हालांकि बाद में वे अपने हाथ के गहरे जख्म को सहन नहीं पाए और अगले ही दिन 26 अप्रैल 1858 को वे मातृभूमि की रक्षा करते हुए शहीद हो गए.

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