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जातीय भेदभाव : जो काम अमेरिका में अब हुआ है, भारत उस पर फैसला 1950 में कर चुका है

1950 में भारत के संविधान ने अस्पृश्यता पर आधिकारिक रूप से प्रतिबंध  लगाया था. तब भी दलितों पर होने वाला अत्याचार थमा नहीं और 1989 में सरकार ने अत्याचार निवारण अधिनियम कानून पारित किया.

अमेरिका का सिएटल शहर देश का पहला ऐसा शहर बन गया है जहां जातिगत भेदभाव पर प्रतिबंध लगाने के लिए ऐतिहासिक कानून पास किया गया.  अब सिएटल सिटी काउंसिल ने  शहर के भेदभाव विरोधी कानून में जाति को भी शामिल कर लिया है. इसका मतलब ये हुआ कि अब सिएटल शहर में जातिगत भेदभाव का सामना कर रहे लोगों को सुरक्षा दी जाएगी. 

इस कानून के पास होने से एक तरफ जहां कुछ लोग इसका समर्थन कर रहे हैं तो वहीं कुछ लोग इससे नाराजगी जाहिर कर रहे हैं. नाराजगी जाहिर करने वाले वर्ग का कहना है कि इस प्रस्ताव का मकसद दक्षिण एशिया के लोगों खासतौर से भारतीय अमेरिकियों को निशाना बनाना है. वहीं समर्थन करने वाले लोग इसे सामाजिक न्याय और समानता लाने की दिशा में अहम कदम बता रहे हैं. 

6-1बहूमत से पारित किए गए अध्यादेश के समर्थकों ने कहा कि जाति आधारित भेदभाव राष्ट्रीय और धार्मिक सीमाओं पर भी हमला करते हैं और ऐसे कानून के बिना उन लोगों को सुरक्षा नहीं दी जा सकेगी जो जातिगत भेदभाव का सामना करते हैं. 

बता दें कि इस अध्यादेश को उच्च जाति की हिंदू और नगर परिषद की एकमात्र भारतीय-अमेरिकी सदस्य क्षमा सावंत ने लिखा और प्रस्तावित किया . मतदान के बाद उन्होंने ट्विटर करके लिखा कि, "हमारे आंदोलन ने सिएटल में जातिगत भेदभाव पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया है. ये फैसला पूरी तरह से आधिकारिक है. अब हमें इस जीत को पूरे देश में फैलाने के लिए एक आंदोलन खड़ा करने की जरूरत है. क्षमा सावंत ने कहा कि"  भले ही अमेरिका में दलितों के खिलाफ भेदभाव नहीं दिखता हो, लेकिन यहां के हालात ठीक वैसे ही हैं जैसे दक्षिण एशिया में हर जगह अमेरिका में भेदभाव एक कड़वी सच्चाई है.  

क्षमा सावंत का ये कहना कि अमेरिका में दक्षिण एशिया जैसे ही हालात हैं ' ये सवाल खड़ा करता है कि मौजूदा दौर में भारत में अल्पसंख्यक किस तरह के भेदभाव का सामना कर रहे हैं ? जातिगत भेदभाव पर कानून क्या कहता है?  और अमेरिका में हिंदुओं के एक वर्ग ने इसका विरोध क्यों किया है?  आइये इन सवालों के जवाब जानने की कोशिश करते हैं. 

सबसे पहले सिएटल सिटी में पास हुए कानून पर एक नजर

सिएटल सिटी काउंसिल के एक बयान के मुताबिक ,"ये कानून दफ्तरों में नई जॉब , प्रोमोशन, में जाति के आधार पर कोई भी फैसला लिए जाने पर रोकेगा. ये कानून सार्वजनिक जगहों जैसे जैसे होटल, सार्वजनिक गाड़ियां, सार्वजनिक टॉयलेट या किसी छोटी या बड़ी दुकान में जाति के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध लगाएगा. यह कानून किराये के मकान, दुकान, संपत्ति की बिक्री में जाति के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव को भी रोकेगा. कानून पास करते वक्त ये भी बताया गया कि सिएटल उन शहरों में से एक है जहां जातिगत भेदभाव काफी हद तक छिपा हुआ और इसका जिक्र कहीं भी किसी भी प्लेटफ्रॉम पर नहीं किया गया है. 

कानून के खिलाफ लोग क्या कह रहे हैं?

सिएटल में पास हुए इस कानून का कुछ हिंदू समूहों ने विरोध किया है और उनका कहना है कि यह उनके समुदाय को अलग करता है जो पहले से ही अमेरिका में भेदभाव का सामना कर रहा है. कानून के पास होने के बाद अब उन्हें और ज्यादा भेदभाव का सामना करना पड़ेगा. 

हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन (एचएएफ) के सह-संस्थापक और कार्यकारी निदेशक सुहाग शुक्ला ने बीसीसी को बताया कि जातिगत पूर्वाग्रह एक गलत धारणा है और यह मूल हिंदू सिद्धांतों का उल्लंघन करता है. उन्होंने बीबीसी को बताया कि नया कानून संकेत देता है कि "हमारा समुदाय, जो आबादी का 2 प्रतिशत से भी कम है , वो खुद को अलग मानता है. यानी यहां रह रहे हिंदू समुदाय पर जेनोफोबिया हावी है. 

ओहायो के पहले हिंदू और भारतीय-अमेरिकी सीनेटर नीरज अंतानी ने भी अध्यादेश पर निशाना साधते हुए दावा किया कि जातिगत भेदभाव अब मौजूद ही नहीं है. 

क्या भारत में अब भी मौजूद है जातिगत भेदभाव जिसका जिक्र सिएटल में हुआ

जाति व्यवस्था भारत में कम से कम 3,000 सालों से किसी न किसी रूप में मौजूद है. पियू  रिसर्च के मुताबिक दस में से तीन भारतीय यानी 30 फीसदी खुद को सामान्य श्रेणी की जातियों के सदस्य बताते हैं. ज्यादातर भारतीय  कुल 68 प्रतिशत खुद को निचली जातियों के सदस्य बताते हैं. 
जिनमें 34 प्रतिशत अनुसूचित जाति (एससी) या अनुसूचित जनजाति (एसटी) के सदस्य हैं और 35 प्रतिशत जो अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी या अति पिछड़ा वर्ग के सदस्य हैं.  दस में से तीन भारतीय खुद को सामान्य श्रेणी की जाति का बताते हैं,  जिनमें 4 प्रतिशत खुद को ब्राह्मण बताते हैं, पियू रिसर्च ने इस शोध के जरिए ये पता करने की कोशिश की थी कि भारत में कितने लोग जाति व्यवस्था को मानते है. 

अखबार और न्यूज चैनल रोज बनते हैं जातिगत भेदभाव के गवाह

नेशनल जियोग्राफिक की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 160 मिलियन से ज्यादा लोगों को "अछूत" माना जाता है.ऐसे लोगों को अछूत मानने वाले लोग खुद को जन्म से  शुद्ध मानते हैं और पिछड़ी जाति को अशुद्ध मानते हैं.  छूट और नीच मानने की खबरें आए दिन अखबारों और न्यूज चैनलों में देखने और सुनने को मिलती रहती हैं. 

ये खबरें ज्यादा पुरानी नहीं है और भारत के अलग-अलग राज्यों की है. इससे ये साबित होता है कि भारत में दलितों की स्थिति कैसी है, और उन्हें अपने ही समाज में किस तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है.

ह्यूमन राइट्स वॉच की वरिष्ठ शोधकर्ता और ब्रोकन पीपुल: कास्ट वायलेंस अगेंस्ट इंडियाज 'अनटचेबल्स' की लेखिका स्मिता नरुला का कहना है कि, भारत में आज भी 'दलितों को एक ही कुओं से पानी पीने, मंदिरों में जाने, ऊंची जाति की मौजूदगी में जूते पहनने या चाय की दुकानों पर उसी कप से चाय पीने की इजाजत नहीं है.' बता दें कि ह्यूमन राइट्स वॉच न्यूयॉर्क की एक  इंटरनेश्नल कार्यकर्ता संगठन है. 

कनाडा के वैंकूवर में 16 से 18 मई तक हुए अंतर्राष्ट्रीय दलित सम्मेलन में पेश किए गए  आंकड़ों के मुताबिक, सभी गरीब भारतीयों में से लगभग 90 प्रतिशत गरीब अशिक्षित है और सभी अशिक्षित भारतीयों में से 95 प्रतिशत दलित हैं. 

हर दो घंटे में 2 दलितों पर हमला, हर दिन तीन दलित महिला रेप का शिकार

भारत के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की तरफ से जारी किए गए आंकड़ों से ये पता चलता  है कि साल 2000 में दलितों के खिलाफ 25 हजार 455 अपराध किए गए थे. यानी  हर घंटे दो दलितों पर हमला किया गया. हर दिन तीन दलित महिलाओं के साथ रेप किया जाता है, जिनमें रेप के बाद दो दलितों की हत्या कर दी जाती है और दो दलितों के घरों को आग लगा दी जाती है. 

1950 से लेकर अब तक कितना बदला है भारत

1950 में भारत के संविधान ने अस्पृश्यता पर आधिकारिक रूप से प्रतिबंध  लगाया था. तब भी दलितों पर होने वाला अत्याचार थमा नहीं और 1989 में सरकार ने अत्याचार निवारण अधिनियम कानून पारित किया.  इस अधिनियम ने सड़कों पर लोगों को नग्न परेड करने, उन्हें मल खाने के लिए मजबूर करना, उनकी जमीन छीनना, उनके पानी को गंदा करना, मतदान के उनके अधिकार में हस्तक्षेप करना और उनके घरों को जलाना अवैध बना दिया. 

स्मिता नरूला ने वेबसाइट नेशनल जियोग्राफिक को बताया कि कानून आने के बाद हिंसा थमी नहीं है. ये हिंसा और बढ़ जाती है जब कोई दलित अपना हक मांगता है. कई बार इसे लेकर आंदोलन भी किए जा चुके हैं लेकिन कोई कारगर रास्ता नहीं निकला है. 

महिलाओं के खिलाफ अपराध

दलित महिलाएं विशेष रूप से बुरी तरह प्रभावित होती हैं.  उनके साथ अक्सर रेप किया जाता है . कई बार पुरुष रिश्तेदारों बदला लेने के लिए  महिलाओं को पीटते हैं और रेप जैसी घटना को अंजाम देते हैं. 1999 में एक 42 साल की दलित महिला के साथ गैंग रेप किया गया और फिर उसे जिंदा जला दिया गया . बाद में पता चला कि उसके बेटे ने उच्च जाति की लड़की का रेप किया था. जिसकी सजा में उस महिला का पति और दो बेटे पहले से ही जेल में बंद थे. 

2001 में एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट में दलित महिलाओं पर यौन हमलों की के सबसे ज्यादा मामले दर्ज किए गए.  इन महिलाओं का उत्पीड़न करने वाले ज्यादातक जमींदारों, उच्च जाति के ग्रामीणों और पुलिस अधिकारी थे. एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक केवल 5 प्रतिशत हमले दर्ज किए जाते हैं, और पुलिस अधिकारियों ने कम से कम 30 प्रतिशत रेप की शिकायतों को गलत बताते हुए खारिज कर दिया है. 

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