बेवड़ा: उनके जीने का अंदाज रॉबिनहुड जैसा ही था
वे खुद को ‘गरीबों का संजय दत्त’ घोषित करते थे. हां, संजय दत्त जैसे ही तो दिखते थे वे सबके सब. बड़े-बड़े बाल, कसरती जिस्म, हमेशा नशे में धुत और हमेशा किसी ताड़ में. चूंकि वो अशिक्षित एवं अपराधी प्रवृत्ति के लोगों की बस्ती थी, इसलिए लोगों, खासतौर से युवाओं के मन में संजय दत्त के प्रति आकर्षण एवं सहानुभूति अभी भी बरकरार थी.

बेवड़ा
दिलीप कुमार

स्याह अंधेरे वाली वो रात न सिर्फ काफी डरावनी थी, बल्कि काफी लंबी भी लग रही थी. ऐसा घुप्प अंधेरा चहुं ओर था, कि हाथ को हाथ तक नहीं सूझता था. रात्रि की कालिमा, उजाले की किरणों को अपनी गिरफ्त से छोड़ने को तैयार न थी. आसमान में तारे नदारद थे, गुस्ताखियां करके यदा-कदा चांद अगर बादलों के झुटपुटे से निकलने की कोशिश भी करता, तो काले बादलों के झुंड तत्काल उसे अपने अंक में समाहित कर लेते थे.
अव्वल तो रात इतनी भयावह थी, दूसरे रात के पहले पहर में हुई बूंदा-बांदी ने महौल की लिजलिजाहट और भी बढ़ा दी थी. फिर आबो-हवा में डर और हमले के आशार तो पहले से मौजूद थे ही. माकड़बाड़ी के लड़कों का झुंड अभी-अभी पथराव करके और गालियां देकर हटा था. दरअसल हमलावरों का वो कुनबा हटा नहीं था, अस्थायी तौर पर दुबक गया था, क्योंकि मोहल्ले के लोग चिल्लाते हुए कालिना पुलिस चौकी की तरफ भागे थे. चौकी की बीट गश्त पर थी, इसीलिए लड़के यहीं-कहीं दुबक गए थे.
हमलावरों से निपटने के लिए चूना-भट्टी की डेढ़-दो सौ चालों में गुहार अवश्य कर दी गई थी. मगर उन निवासियों में इतना माद्दा नहीं था, कि वे सामूहिक रूप से पंद्रह-बीस बेवड़ों के झुंड का मुकाबला करते. खुद मुकाबला करते, तो पहचाने जाने का डर जो था. पुलिस चौकी पर फरियादी की अर्जी में, ‘हां में हां’ मिला देना और बात थी, मगर सीधे-सीधे माकड़बाड़ी के बेवड़ों से उलझना खतरों से खाली नहीं था. पहचाने जाने के बाद के खतरे तो अपनी जगह पर थे ही, अव्वल तो खतरा इस बात का था, कि उन बेवड़ों का मुकाबला वे निहत्थे कर नहीं सकते थे, क्योंकि बेवड़े न जाने किन-किन हथियारों से लैस होते थे? बल्कि उनका इस्तेमाल भी वे बखूबी किया करते थे. बेवड़ों के झुंड में से किसने क्या मारा, किसने देखा? कोई तस्दीक नहीं. अलबत्ता चोट खाने वाले पर जो बीतती थी, उस पीर को भुक्तभोगी ही समझ सकता था.
बेवड़े खून या कत्ल नहीं करते थे वो तो भाई लोगों का काम है. बेवड़े सिर्फ हाथ साफ किया करते थे. हालांकि ये बात सच थी कि उनके हाथ साफ करने में इस मोहल्ले में शायद ही किसी की जान गई हो. मगर ये बात उतनी ही सच थी कि कइयों की जान जाते-जाते बची थी. उनके वार से किसी का हाथ जाता रहा, तो किसी की आंख फूट गई थी. किसी की रीढ़ की हड्डी टूट गई, तो बेवड़ों के खौफ से कोई ब्लड प्रेशर का मरीज बन गया था. मगर बेवड़े फिर भी खुद को निर्दोष एवं निष्कलंक मानते थे. मतलब कि ‘‘चिरैया की जान चली गई, और खाने वाले को स्वाद नहीं.’’
बेवड़ों के भुक्तभोगी रोज भोगते थे, तिल-तिल मरते थे, घुटते थे. मगर बेवड़ों की मानें तो वे अपना खौफ कभी नहीं कायम करते थे. अव्वल तो वे खुद को लोगों का मददगार घोषित करते थे. तभी तो वे यहां-वहां निस्वार्थ, निष्काम लोगों की खिदमत के लिए घूमा करते थे. फिर भी, अगर कोई उनसे इत्तेफाक न रखता हो, तो वो उन्हें तमाशाई समझ सकता था, मगर आतातायी तो हर्गिज भी नहीं. बेवड़े राबिनहुड को तो नहीं जानते थे, मगर उनके जीने का अंदाज और मकसद रॉबिनहुड जैसा ही था.
वे खुद को ‘गरीबों का संजय दत्त’ घोषित करते थे. हां, संजय दत्त जैसे ही तो दिखते थे वे सबके सब. बड़े-बड़े बाल, कसरती जिस्म, हमेशा नशे में धुत और हमेशा किसी ताड़ में. चूंकि वो अशिक्षित एवं अपराधी प्रवृत्ति के लोगों की बस्ती थी, इसलिए लोगों, खासतौर से युवाओं के मन में संजय दत्त के प्रति आकर्षण एवं सहानुभूति अभी भी बरकरार थी. सन तिरान्यबे के दंगों के फैसले रोज-ब-रोज आ रहे थे. इसीलिए लोगों के जेहन में दंगों के उस खौफनाक मंजर की तस्वीरें रह-रहकर ताजा हो जाती थीं.
मगर वाकए उन्हें याद आते थे जो सिर्फ तमाशाई थे. जिन्होंने अपना असबाब और अपनों को खोया था, उनके तो घाव हरे हो जाया करते थे. कैसे समुद्र के किनारे बसे इस शहर को, जिसे, सभ्यताओं का समुद्र कहा जाता है, एक फिरकापरस्त शहर बन गया था. सन तिरान्यबे के पहले इस शहर के निवासियों के बीच बस एक ही फासला हुआ करता था, वो था गरीबी-अमीरी का फासला. उससे थोड़ा सा इतर देखिए तो हिंदी-मराठी भाषियों के बीच थोड़ी सी अस्थायी वैमनस्यता थी.
मगर बम विस्फोट के बाद हुए दंगों ने शहर का इतिहास, वर्तमान ही नहीं बल्कि भविष्य और भूगोल भी बदल डाला था. अब एक जाति के लोग इकट्ठे रहना पंसद करते थे, अपनी बिरादरी के साथ और अपने लोगों की ताकत के साथ. ताकि दूसरों के हमलों का न सिर्फ सामूहिक रूप से मुकाबला किया जा सके, बल्कि सामूहिक रूप से दूसरों पर हमला किया भी जा सके. इसीलिए अब कालिना में मुसलमानों की आबादी अस्सी फीसदी से भी ज्यादा थी. उन दंगों के बाद यहां के अधिकांश हिंदू या तो गांव लौट गए, या जो बचे वे कल्पना टाकीज के उस पार रहने चले गए थे. आखिर वहां उनकी जातियों के लोगों की बस्ती जो थी.
कल्पना सिनेमा के उस पार वाले लोग इस पार के इलाके को ‘‘मिनी पाकिस्तान’’ कहते थे. जबकि हकीकतन ये बस्ती अवैध प्रवास के जरिए आए बांग्लादेशियों से आबाद थी, उनके मन में पाकिस्तान को लेकर काफी कड़वाहट अभी भी थी. उन बंगालियों की पहली प्राथमिकता राशन कार्ड बनवाने की होती थी, जो स्थानीय नेताओं और छुटभैया दलालों की मदद से बन भी चुके थे. जिस नेता ने राशन कार्ड बनवाया, स्वयंमेव वोट उसी को मिल जाना था. वैसे भी इस शहर में हर कुनबे का वोट इकट्ठे ही जाता था. ये और बात थी कि कालिना में दंगे करने-करवाने के ठेकेदारों की कमी न थी, मगर कालिना खुद दंगों का आग से अछूता रहा था.
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(दिलीप कुमार की कहानी का यह अंश जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित)
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