'अभियोजक अदालत का अधिकारी, वह सिर्फ दोषसिद्धि सुनिश्चित करने के लिए कार्य नहीं कर सकता', बोला सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निष्पक्ष सुनवाई की एक अनिवार्य शर्त यह है कि आरोपी व्यक्तियों को उनके खिलाफ अभियोजन पक्ष के मामले और दावों को खारिज करने का पर्याप्त अवसर मिलना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान टिप्पणी की कि अभियोजक अदालत का एक अधिकारी है, जिसका कर्तव्य न्याय के हित में कार्य करना है, न कि केवल अभियुक्त की दोषसिद्धि सुनिश्चित कराना. जस्टिस संजय करोल और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने हत्या के एक मामले में तीन व्यक्तियों की दोषसिद्धि को रद्द करते हुए यह टिप्पणी की.
याचिकाकर्ताओं ने भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPc) की धारा 313 का पालन न करने का आरोप लगाया है. दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 का उक्त प्रावधान अदालत को प्रस्तुत साक्ष्य के आधार पर अभियुक्त से पूछताछ करने का अधिकार देता है.
पीठ ने कहा, 'हमारे लिए यह देखना भी उतना ही परेशान करने वाला है कि अभियुक्तों को दोषसिद्धि दिलाने की चाहत में अभियोजकों ने इस धारा के तहत अभियुक्तों से पूछताछ करने में अदालत की सहायता करने के अपने कर्तव्य को भी दरकिनार कर दिया.'
कोर्ट ने कहा, 'अभियोजक अदालत का एक अधिकारी है और न्याय के हित में कार्य करना उसका पवित्र कर्तव्य है. वह बचाव पक्ष के वकील के रूप में कार्य नहीं कर सकता, बल्कि राज्य के लिए कार्य करता है, जिसका एकमात्र उद्देश्य अभियुक्त को दंड दिलाना है.'
सुप्रीम कोर्ट तीन आरोपियों की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें पटना हाईकोर्ट के एक आदेश को चुनौती दी गई थी. पटना हाईकोर्ट ने हत्या के एक मामले में उनकी दोषसिद्धि को बरकरार रखा था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निष्पक्ष सुनवाई की एक अनिवार्य शर्त यह है कि आरोपी व्यक्तियों को उनके खिलाफ अभियोजन पक्ष के मामले और दावों को खारिज करने का पर्याप्त अवसर मिलना चाहिए.
पीठ ने कहा, 'यह पर्याप्त अवसर कई रूप ले सकता है, चाहे वह वकील के माध्यम से पर्याप्त प्रतिनिधित्व हो या मामले में अपना पक्ष रखने के लिए गवाहों को बुलाने का अवसर हो या अपने खिलाफ लगे प्रत्येक आरोप का स्वयं अपने शब्दों में जवाब देने का अवसर हो. अंतिम अवसर सीआरपीसी की धारा 313 के तहत होता है.'
सुप्रीम कोर्ट ने आरोपियों के बयानों पर गौर करने के बाद कहा कि इससे खेदजनक स्थिति का पता चलता है. यह कानून के मूल सिद्धांतों का पालन करने में न्यायालय की ओर से घोर विफलता है. बेंच ने कहा, 'तीनों व्यक्तियों के दिए गए बयान एक-दूसरे के हू ब हू हैं. हम यह समझ नहीं पा रहे हैं कि इस तरह के बयान विद्वान सुनवाई न्यायाधीश के सामने कैसे टिक सकते हैं.'
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