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BMC Election: जलेबी फ़ाफड़ा खिलाकर गुजरातियों के दिल में उतरना चाहती है शिव सेना

‘जलेबी ने फाफड़ा उद्धव ठाकरे आपड़ा', इस नारे के साथ शिवसेना ने बीते रविवार मुंबई के जोगेश्वरी इलाक़े में एक गुजराती सम्मेलन का आयोजन किया. हालांकि, इस कार्यक्रम में शिव सेना के किसी दिग्गज नेता की उपस्थिति नहीं थी लेकिन इसे गुजरातियों का दिल जीतने के प्रति पहला कदम माना जा रहा है.

मुंबईः शिव सेना वो पार्टी रही है जिसने किसी न किसी को दुश्मन बनाकर अपनी सियासत चलाई है. जब शिव सेना की स्थापना हुई तब उसके दुश्मन बने दक्षिण भारतीय. उसके बाद कपड़ा मिलों में सक्रिय कम्युनिस्ट यूनियन. मुंबई को महाराष्ट्र में शामिल करने के मसले पर गुजरातियों के साथ उसकी दुश्मनी हो गयी तो सरकारी नौकरियों में मराठियों को जगह मिलने को लेकर उत्तर भारतीय उसके निशाने पर आ गए. मुस्लिम विरोध भी शिव सेना की एक बड़ी पहचान रही है. लेकिन जबसे उद्धव ठाकरे पार्टी में सक्रिय हुए तबसे शिव सेना ने उन सभी वर्गों के साथ हाथ मिलाना शुरू कर दिया या फिर उनके प्रति नरमी अपनानी शुरू कर दी जो किसी वक़्त में शिव सेना के दुश्मन माने जाते रहे हैं.

‘जलेबी ने फ़ाफड़ा उद्धव ठाकरे आपड़ा', इस नारे के साथ शिव सेना ने बीते रविवार मुंबई के जोगेश्वरी इलाक़े में एक गुजराती सम्मेलन का आयोजन किया. हालांकि, इस कार्यक्रम में शिव सेना के किसी दिग्गज नेता की उपस्थिति नहीं थी लेकिन इसे गुजरातियों का दिल जीतने के प्रति पहला कदम माना जा रहा है. गुजराती समुदाय खाने पीने का शौक़ीन हैं और इसी वजह से शिव सेना ने उनके दिल तक पहुंचने के लिए पेट का रास्ता अपनाया है. गुजरातियों के प्रति उमड़े शिव सेना के इस प्रेम ने सियासी हलकों में कइयों को चौंकाया है.

सेना और गुजरातियों के रिश्ते में आ रही दरार 

इतिहास पर नज़र डालें तो शिव सेना और गुजरातियों के रिश्ते कड़वाहट से भरे रहे हैं. मुंबई को महाराष्ट्र में शामिल किए जाने के मसले को लेकर भी गुजरातियों और शिव सेना में संघर्ष हो चुका है. साल 2014 में शिव सेना के मुखपत्र सामना ने अपने सम्पादकीय के जरिए आरोप लगाया कि गुजराती सम्पत्ति अर्जित करने के लिए मुंबई का शोषण कर रहे हैं. बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट का भी शिव सेना ने ये कहते हुए विरोध किया कि गुजरात को महाराष्ट्र से ज़्यादा स्टेशन मिल रहे हैं.

गुजरातियों को साथ लेना बनी शिव सेना की मजबूरी

गुजरातियों को साथ लेना शिव सेना की मजबूरी बन गयी है. सवाल वोटों का है. अगले साल मुंबई महा नगरपालिका के चुनाव होने वाले हैं. हालांकि, शिव सेना लगातार ढाई दशकों से मुंबई की सत्ता में बरकरार है लेकिन साल 2017 के चुनावों ने बता दिया कि महानगरपालिका की पकड़ कमजोर होती जा रही है. पिछली बार शिव सेना के हाथ से मुंबई की सत्ता जाते बाल बाल बची. भाजपा और शिव सेना ने पिछला चुनाव अलग अलग लड़ा था. शिव सेना को 84 सीटें मिलीं जबकि भाजपा को मात्र दो सीटें कम यानी 82 सीटें. शिव सेना को डर है कि कहीं भाजपा इस बार उससे आगे न निकल जाए. वैसे भी भाजपा मुंबई में गुजरातियों की पार्टी मानी जाती है. मुंबई के कई इलाक़े गुजराती बहुल हैं जैसे दक्षिण मुंबई के कालबादेवी और मालाबार हिल और सांताक्रूज़, विले पार्ले, गोरेगाओं, मालाड, कांदेवली, बोरेवली, घाटकोपर और मुलुंड जैसे उप-नगर.

उद्धव ठाकरे ने उठाए ज़रूरी कदम 

उद्धव ठाकरे ये बात समझ गए हैं कि जिस तरह से मुंबई की आबादी में बदलाव हुए हैं उसके मद्देनजर सिर्फ़ मराठी वोटों के सहारे वो मुंबई की सत्ता क़ाबिज़ नहीं कर सकेंगे. इसके लिए उन्हें तमाम भाषायी और धार्मिक वर्गों को साथ लेकर चलना होगा. ये फॉर्मूला उन्होंने साल 2003 में भी अपनाया था जब अगले साल विधान सभा चुनाव से पहले उन्होंने `मी मुंबईकर’ मुहिम शुरू की थी जिसका मक़सद था अलग अलग प्रांत से आए हुए लोगों को जोड़ना जो कि मुंबई में आकर बस गए हैं.

मुस्लिम विरोधी छवि के विपरीत हुआ शिव सेना 

वैसे भी जबसे उद्धव ठाकरे शिव सेना में सक्रिय हुए हैं उन्होंने उन तमाम वर्गों के साथ रिश्ते सुधारने के प्रयास किए हैं जिनपर हमला करके शिव सेना अपनी राजनीति चलाती रही है. शिव सेना के मुखपत्र सामना का हिंदी संस्करण निकालना और प्रियंका चतुर्वेदी जैसी उत्तर भारतीय महिला को सांसद बनाना उनकी इसी सोच का नतीजा है. 2019 में उन्होंने सरकार बनाने के लिए कांग्रेस और एनसीपी जैसी अपनी राजनीतिक विरोधी पार्टियों के साथ तो हाथ मिलाया ही लेकिन साझा न्यूनतम कार्यक्रम की प्रस्तावना में शामिल सेक्युलर शब्द को भी बेहिचक स्वीकार कर लिया जो कि शिव सेना की मुस्लिम विरोधी छवि के विपरीत था.

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