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महाभियोग पर गरमाई राजनीति, कपिल सिब्बल बोले- 'जस्टिस वर्मा पर रिपोर्ट संवैधानिक नहीं'

राज्यसभा सदस्य कपिल सिब्बल ने संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए सरकार पर न्यायमूर्ति शेखर यादव को बचाने का आरोप लगाया. साथ ही उनसे संपर्क करने के राज्यसभा सचिवालय के कदम पर सवाल उठाया.

राज्यसभा सदस्य कपिल सिब्बल ने शनिवार (05 जुलाई, 2025) को कहा कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश यशवंत वर्मा के मामले में सुप्रीम कोर्ट की आंतरिक जांच रिपोर्ट की ‘कोई संवैधानिक प्रासंगिकता नहीं’ है, क्योंकि जांच केवल न्यायाधीश जांच अधिनियम के तहत ही हो सकती है.

सिब्बल ने संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए सरकार पर न्यायमूर्ति शेखर यादव को बचाने का आरोप लगाया. उन्होंने पिछले साल विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के एक कार्यक्रम में ‘सांप्रदायिक टिप्पणी’ करने के लिए न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने के लिए नोटिस पर उनके हस्ताक्षर के कथित सत्यापन के लिए उनसे संपर्क करने के राज्यसभा सचिवालय के कदम पर सवाल उठाया.

गठित की जाती है न्यायाधीश जांच अधिनियम 

राज्यसभा सदस्य ने जस्टिस वर्मा मामले पर कहा, ‘संविधान के अनुच्छेद-124 के तहत, यदि राज्यसभा के 50 सदस्य या लोकसभा के 100 सदस्य किसी न्यायाधीश को पद से हटाने का प्रस्ताव लाने के लिए नोटिस देते हैं तो न्यायाधीश जांच अधिनियम के तहत न्यायाधीश जांच समिति गठित की जाती है.’

वरिष्ठ अधिवक्ता सिब्बल ने कहा कि केवल संसद के पास ही ऐसी समिति गठित करने का अधिकार है. उन्होंने कहा कि संसद कानून बना सकती है, उस कानून के तहत जांच की जाएगी और जांच के बाद किसी न्यायाधीश के दुर्व्यवहार या अक्षमता पर निर्णय दिया जाएगा.

दो-तिहाई बहुमत से मंजूरी दिया जाना जरूरी

पूर्व केंद्रीय मंत्री ने कहा कि दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में महाभियोग प्रस्ताव को पारित होने के लिए दो-तिहाई बहुमत से मंजूरी दिया जाना आवश्यक है. सिब्बल ने कहा कि संविधान किसी भी आंतरिक प्रक्रिया को मान्यता नहीं देता है. उन्होंने कहा, ‘आप किस आधार पर कह रहे हैं कि न्यायमूर्ति वर्मा दोषी हैं, मंत्री इस संबंध में टिप्पणियां कर रहे हैं.’

राज्यसभा के निर्दलीय सदस्य ने यह भी कहा कि कानून में कहा गया है कि महाभियोग का प्रस्ताव सदस्यों की तरफ से लाया जाएगा, सरकार की तरफ नहीं. उन्होंने सवाल किया, ‘कोई मंत्री यह बयान कैसे दे सकता है कि ‘मैं प्रस्ताव पेश करूंगा’. सरकार आंतरिक प्रक्रिया पर भरोसा नहीं कर सकती, जिसका संविधान के अनुच्छेद 124 से कोई लेना-देना नहीं है.’

न्यायाधीशों के खिलाफ कई महाभियोग प्रस्ताव आए

सिब्बल ने जोर देकर कहा कि कोई भी सरकार या संसद का सदस्य उस रिपोर्ट को देखकर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकता. सुप्रीम कोर्ट की तरफ से 1999 में आंतरिक जांच प्रक्रिया स्थापित की गई थी और न्यायाधीशों के खिलाफ कई महाभियोग प्रस्ताव आए हैं, लेकिन आंतरिक जांच प्रक्रिया की रिपोर्ट कभी सरकार को नहीं भेजी गई.

सिब्बल ने सवाल किया, ‘तो फिर इस मामले में यह आंतरिक रिपोर्ट सार्वजनिक क्यों हुई, जबकि पूर्व की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई थी.’ दिल्ली हाई कोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश वर्मा के दिल्ली स्थित आधिकारिक आवास परिसर में मार्च महीने में आग लगने की घटना हुई थी और बाद में बैंक नोट की कई जली हुई बोरियां पाई गई थी.

बयान दर्ज करने के बाद ठहराया दोषी

हालांकि, जस्टिस वर्मा ने नकदी की जानकारी नहीं होने का दावा किया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की तरफ से नियुक्त समिति ने कई गवाहों से बात करने और उनके बयान दर्ज करने के बाद उन्हें दोषी ठहराया. ऐसा माना जाता है कि तत्कालीन चीफ जस्टिस संजीव खन्ना ने जस्टिस वर्मा से इस्तीफा देने के लिए कहा था, लेकिन वह अपने रुख पर अड़े रहे. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें उनकी मूल अदालत, इलाहाबाद हाई कोर्ट में वापस भेज दिया है, जहां उन्हें कोई न्यायिक कार्य नहीं सौंपा गया है.

किरेन रीजीजू के बयान पर किया टिप्पणी

सिब्बल की यह टिप्पणी संसदीय कार्य मंत्री किरेन रीजीजू के उस बयान के कुछ दिनों बाद आई है, जिसमें उन्होंने कहा था कि प्रमुख विपक्षी दलों ने जस्टिस वर्मा को हटाने के प्रस्ताव को सैद्धांतिक रूप से मंजूरी दे दी है और हस्ताक्षर कराने की प्रक्रिया जल्द ही शुरू हो सकती है. रीजीजू ने कहा कि सरकार ने अब तक यह तय नहीं किया है कि प्रस्ताव लोकसभा में लाया जाएगा या राज्यसभा में.

सिब्बल ने न्यायमूर्ति शेखर यादव के खिलाफ प्रस्ताव लाने के लिए विपक्षी सांसदों के नोटिस के बारे में कहा कि यह 13 दिसंबर, 2024 को पेश किया गया था और वह सभापति के कक्ष में गए थे और महासचिव ने इसे प्राप्त किया था.

यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव

राज्यसभा सदस्य ने कहा, ‘मैंने किरेन रीजीजू का बयान सुना, उन्होंने कहा कि यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव सत्र के पहले दिन लाया जाएगा और तीन महीने में न्यायाधीशों की जांच समिति के गठन के बाद इसे पारित कर दिया जाएगा.' उन्होंने कहा कि इसमें कोई देरी नहीं होनी चाहिए. शेखर यादव को लेकर प्रस्ताव दिए हुए तीन महीने बीत चुके हैं.

वरिष्ठ अधिवक्ता सिब्बल ने कहा, ‘उनका कहना है कि उन्होंने 7 मार्च, 13 मार्च और 1 मई को ई-मेल भेजे थे. यदि राज्यसभा के 50 सदस्य सहमत हो तो प्रस्ताव को स्वीकार किया जाना चाहिए. मुझे 7 मार्च को ई-मेल नहीं मिला, यह मुझे 13 मार्च को मिला. इसमें मेरे हस्ताक्षर के बारे में बात नहीं की गई थी. उन्होंने मुझे सभापति के साथ बातचीत के लिए आने को कहा, वही पत्र एक मई को आया.’

बातचीत के लिए क्यों बुलाया गया?

राज्यसभा सदस्य ने कहा कि यदि हस्ताक्षर के सत्यापन में कोई समस्या नहीं थी तो उन्हें बातचीत के लिए क्यों बुलाया गया. उक्त ई-मेल भेजे जाने के बाद उन्होंने संसद में भी भाषण दिया था, लेकिन बजट सत्र के दौरान जब वह सदन में थे, तब उनसे कभी सभापति से मिलने को नहीं कहा गया.

राज्यसभा सदस्य ने सरकार पर न्यायमूर्ति यादव को बचाने का आरोप लगाया. उन्होंने कहा कि न्यायमूर्ति यादव की सेवानिवृत्ति 2026 में है और सरकार इस मामले में देरी करना चाहती है. आश्चर्य की बात यह है कि सत्तारूढ़ पक्ष के लोग ही खुलेआम न्यायमूर्ति यादव का बचाव कर रहे हैं. इस मामले की जांच की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि जस्टिस यादव खुद इस बयान को स्वीकार कर रहे हैं.

पहले दिन ही प्रस्ताव पेश

उन्होंने कहा, ‘जहां तक ​​यशवंत वर्मा का सवाल है तो उनका कहना है कि वे पहले दिन ही प्रस्ताव पेश कर देंगे और तीन महीने के भीतर इसे पूरा कर लेंगे. दो अलग-अलग मापदंड क्यों हैं, क्योंकि न्यायमूर्ति शेखर यादव ने ऐसे बयान दिए हैं, जिनसे वे शायद सहमत हैं.’

न्यायाधीश जांच अधिनियम, 1968 के अनुसार, जब किसी न्यायाधीश को हटाने का प्रस्ताव किसी भी सदन में स्वीकार कर लिया जाता है तो अध्यक्ष या सभापति, जैसा भी मामला हो, एक तीन-सदस्यीय समिति का गठन करेंगे, जो उन आधारों की जांच करेगी, जिनके आधार पर न्यायाधीश को हटाने यानि महाभियोग की मांग की गई है.

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