दबाव, डर और खामोशी! दिल्ली की घटना ने स्कूल-परिवार की जिम्मेदारी पर उठाए तीखे सवाल? जानें क्या है जरूरी
दिल्ली में छात्र की आत्महत्या ने फिर दिखा दिया कि कच्ची उम्र के बच्चे दबाव, तुलना और भावनात्मक बोझ को अकेले नहीं झेल पाते. ऐसे में जानते हैं, क्या जरूरी एक्शन लेने जरूरी हैं.

दिल्ली के एक स्कूल में पढ़ने वाले छात्र की आत्महत्या की घटना ने एक बार फिर कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. क्या आज के बच्चे कच्ची उम्र में पहले से ज्यादा संवेदनशील हो रहे हैं? क्या हम उनकी भावनाओं को समझ नहीं पा रहे और क्या स्कूल, परिवार और समाज मिलकर इस तरह की त्रासदियों को रोकने में नाकाम साबित हो रहे हैं?
रिपोर्ट्स की मानें तो पिछले कुछ सालों में कई बच्चे अपनी जान गंवा चुके हैं. एक्सपर्ट्स की मानें तो आज के टाइम पर बच्चे बेहद कम उम्र में ही दबाव, तुलना और मानसिक थकान का सामना करने लगे हैं. सोशल मीडिया का प्रभाव, पढ़ाई का दबाव, घर व स्कूल की उम्मीदें ये सब मिलकर उनके मन को जल्दी तोड़ देते हैं.
बच्चे कई बार छोटी-छोटी बातों को भी बहुत बड़ा मुद्दा समझ लेते हैं, क्योंकि इस उम्र में उनकी भावनाओं का संतुलन बनना बाकी होता है. वे खुद को समझ ही रहे होते हैं, और ऐसे में किसी भी बात का असर बेहद गहरा पड़ सकता है.
क्यों बच्चे चीजों को जानलेवा ढंग से लेते हैं?
एक्सपर्ट्स की मानें तो किशोरावस्था में दिमाग भावनाओं के आधार पर फैसले जल्दी और बिना सोचे लेता है. इस दौरान तानों, डांट, उपेक्षा या किसी भी नकारात्मक अनुभव को वे अपनी असफलता या अहमियत खत्म होने से जोड़ लेते हैं. अगर उन्हें लगता है कि उनकी बात सुनी नहीं जाएगी या उन्हें समझा नहीं जाएगा तो वे चुप रह जाते हैं और भावनाएं अंदर ही जमा होती जाती हैं.
आधी बात भी बता दें तो बच सकती है जान
कई विशेषज्ञ कहते हैं कि बच्चे अगर अपनी आधी बात भी किसी भरोसेमंद व्यक्ति से साझा कर दें, तो 90% हालात संभाले जा सकते हैं. समस्या ये है कि बच्चे खुलकर बात नहीं करते क्योंकि उन्हें डर होता है कि उन्हें डांट पड़ जाएगी, उनकी बात को गंभीरता से नहीं लिया जाएगा और उनका मजाक उड़ाया जाएगा.
काउंसिलिंग क्यों जरूरी है?
स्कूलों में काउंसलर होना सिर्फ औपचारिकता नहीं, बल्कि आज के टाइम की मांग है. काउंसिलिंग से बच्चों को भावनाओं को समझने, तनाव को संभालने, किसी भी समस्या को शांतिपूर्वक हल करने में मदद मिलती है. काउंसिलिंग उन बच्चों के लिए भी बेहद जरूरी है जो अपने अंदर दर्द छुपाए रखते हैं और उन बच्चों के लिए भी जो व्यवहार या पढ़ाई में अचानक बदलाव दिखाते हैं.
टीचर्स को क्या कदम उठाने चाहिए?
किशोर मन को समझना हर शिक्षक की जिम्मेदारी है. स्कूल सिर्फ पाठ्यक्रम नहीं पढ़ाता वह बच्चों की मानसिक सेहत का भी आधार बनता है. छात्रों में व्यवहारिक बदलाव तुरंत नोटिस करना, डांटने से ज्यादा समझकर बात करना, किसी भी शिकायत या परेशानी को हल्के में न लेना, बच्चे को शर्मिंदा करने वाली भाषा या तुलना से बचना जैसे कदम उठाने चाहिए.
क्या बोले एक्सपर्ट्स?
मनोचिकित्सक डॉ. पंकज कुमार ने बताया कि हमें समझना पड़ेगा की हमारी जीवनशैली काफी जटिल होती जा रही है. हम सबके जीवन में तनाव बढ़ता जा रहा है. लाइफ बहुत तेज गति से चल रही है, ऐसे में लोगों का रियल वर्ल्ड में कनेक्शन कम होता जा रहा है. डिजिटल वर्ल्ड में कनेक्ट बढ़ता जा रहा है.
अगर बच्चा आपके पास कोई समस्या लेकर आए तो उसे डांट कर नहीं भगाना है. उस बात को सुनना है और उस बात की जड़ तक जाना है. धीरे-धीरे बच्चे के मन को टटोलें. बच्चे समस्या को समझ नहीं पा रहे होते हैं. अगर बच्चे में आपको परिवर्तन दिखता है तो आप तुरंत किसी प्रोफेशनल की मदद लें.
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Source: IOCL























