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यूक्रेन युद्ध के बहाने रूस को खत्म कर देना चाहते हैं अमेरिका और पश्चिमी देश, हार नहीं मानेंगे पुतिन

अमेरिका ने ट्रंप के समय में खुद कई परमाणु समझौते जो रूस के साथ हुए थे वो तोड़े हैं. एक तो आईएनएफ ट्रस्ट जिसमें रूस और यूएस ने मध्यम रेंज के जो मिसाइल्स हैं जो यूरोप में हटाकर नष्ट किये थे. यूएस ने पश्चिम से हटाए थे और नष्ट किये थे और रूस जो कि उस समय सोवियत यूनियन था, उसने  एसएस-18 मिसाइल्स को नष्ट किया था..तो ये ऐसा पहला समझौता था जब एक तरह के मिसाइल्स की पूरी कैटेगरी को नष्ट किया गया था दोनों के तरफ से. पहले यूएस ने एबीएम ट्रिटी छोड़ी, इसके बाद ट्रम्प ने भी कई समझौते रद्द कर दिये. 

पुतिन ने स्टार्ट ट्रीटी छोड़ दी तो ये तो दुनिया के लिए अच्छा नहीं है क्योंकि न्यूक्लियर फील्ड में हथियारों की होड़ बढ़ती है. मतलब लोग अपने परमाणु हथियारों का आधुनिकीकरण करते हैं तब दुनिया के लिए तो ये खतरा ही है और अभी तो ऐसा लगता है कि यूक्रेन में जो युद्ध चल रहा है ये और बढ़ेगा. क्योंकि बाइडेन कीव में गए और वहां बोला की हम कीव के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं और हम आखिरी दम तक खड़े रहेंगे. इसके साथ  ही यूक्रेन को नए हथियार देने का ऐलान किया है. इसके साथ ही रूस कई और नए प्रतिबंध लगाने का भी ऐलान किया है.

पुतिन ने कहा-यूएस ने इसे लोकल से ग्लोबल युद्ध बना दिया

इधर, पुतिन भी कह रहे हैं कि भाई दिक्कतें हैं पर ये जो पश्चिमी देश हैं ये रूस को कमजोर करना चाहते हैं, खत्म करना चाहते हैं और ये लोकल नहीं ग्लोबल युद्ध है. एक तरीके से यूएस ने इसे लोकल से ग्लोबल युद्ध बना दिया है...तो उस तरफ से भी लग रहा है कि लड़ने की तैयारी और तेज हो रही है. रूस एक तरफ ऑफेंसिव हो रहा है इस रिंग में और दूसरी तरफ यूक्रेन भी खड़ा हो रहा है लड़ने के लिए तो अभी तो यही लग रहा है कि ये युद्ध और तेजी से बढ़ेगा. चूंकि दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं हो रही है इसको खत्म करने की या सीजफायर करने की जिसकी बहुत जरूरत है, क्योंकि इस युद्ध से पूरी दुनिया के देश पीड़ित हैं. चाहे ये उर्जा को लेकर हो चूंकि उसके दाम काफी बढ़ गए हैं और उसकी कमी भी है. खाद्य पदार्थों को लेकर भी यही हाल है. 

महंगाई इतनी बढ़ गई है कई देशों में आप अगर दक्षिण एशिया में ही देखें जहां हमारे जो पड़ोसी देश हैं उनकी अर्थव्यवस्था पूरी तरह से डगमगा गई है. चाहे श्रीलंका हो, चाहे पाकिस्तान हो बांग्लादेश को भी आईएमएफ का लोन लेना पड़ा है और नेपाल भी कोई मजबूत स्थिति में नहीं है...तो आप देखेंगे कि सभी देशों पर इसका प्रभाव पड़ रहा है. ऐसे में जो विकासशील देश हैं उनको तो ये देखना है कि किसी तरीके से इस पर बातचीत हो दोनों पक्षों में, एक सीजफायर हो जिससे लड़ाई बंद हो और उसके साथ-साथ बातचीत शुरू हो कि किस तरीके से इस समस्या की हल निकाल सकते हैं.

दोनों अपने उद्देश्य से भटक गए हैं

अभी तक तो नहीं लग रहा है कि रूस पश्चिमी देशों के सामने झुकेगा क्योंकि आर्थिक तौर पर प्रतिबंध लगाए थे और काफी कड़े प्रतिबंध लगाए थे रूस पर और उनके जो फॉरेन एक्सचेंज थे बाहर विदेशों में उसको जब्त भी कर लिया था. तो अभी तक तो इतना सब होने के बावजूद रूस पर कोई खास असर नहीं पड़ा है कि वह कोलैप्स कर जाए. रूस अभी और लड़ेगा क्योंकि उनको भी लगता है कि ये उनके देश के लिए अस्तित्व की लड़ाई है और यही बात पुतिन ने कहा है और ये सच भी है कि जब लड़ाई शुरू हुई थी...तो तुर्की ने जेलेंस्की और पुतिन के बीच बातचीत करवाई थी और उसमें करीब-करीब एक समझौता भी निकल आया था प्रिंसिपल्स पर कि प्रिंसिपल्स क्या होंगे एक समझौते के लेकिन फिर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन वो पूर्व से बिना किसी निर्धारित यूक्रेन दौरे पर गए और उन्होंने यूक्रेन को चाबी लगाई की हम आपके साथ रहेंगे इसलिए आप खड़े हो और लड़ो. 

इसके बाद वो समझौता रद्द हो गया जो बातचीत के जरिये निकलने के मकसद थे वह बेकार चला गया और लड़ाई बढ़ती गई और अभी भी यही लग रहा है कि ये चलेगा, लेकिन यूक्रेन को भी जो अपना अधिकतम उद्देश्य है वो यह नहीं पा सकता है. वो कहता है कि रूस ने जो भी हमारी जमीन को हड़पा है और वो जहां भी है, उससे हम रूस को भाग देंगे और तभी ये लड़ाई खत्म होगी ऐसा होने के आसार कम हैं. दूसरी तरफ रूस का भी पता नहीं की क्या उद्देश्य है क्योंकि पहले तो ये कीव की ओर जा रहे थे. जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिली. अब वे ईस्ट में फोकस कर रहे हैं कि जिन प्रांतों को उन्होंने रूस में मिला दिये हैं वे उन पर अपना पूरा कब्जा करें. इसमें कुछ-कुछ पॉकेट्स अभी बाकी हैं और लड़ाई चल रही है.

नाटो और यूएस में काफी लोग यूक्रेन के समर्थन में

रूस में पुतिन के लिए काफी समर्थक हैं और उनके पोल्स में तो 80 प्रतिशत दिखा रहे थे कि वे पुतिन की लड़ाई के साथ हैं और दूसरी तरफ नेटो और यूएस में काफी लोग उसके साथ हैं कि यूक्रेन को पूरी मदद दी जाए ताकि रूस से वो टक्कर ले सके. हालांकि, दोनों साइड अभी इस नतीजे पर नहीं निकले हैं कि उनका जो मुख्य उद्देश्य है वो नहीं ले पाएंगे लड़ाई से और बातचीत अनिवार्य है पर ये भी एक दिलचस्प बात है कि पीछे से कुछ बातचीत चल भी रही थी सीरिया और रूस के बीच में जो पता नहीं अब कहा जाती है. चूंकि यूरोप में भी तो इसका प्रभाव पड़ तो रहा है क्योंकि उन्होंने रूस से उर्जा व इंधन लेना बंद किया है और इससे जो उर्जा के दाम हैं यूरोप में काफी बढ़ गई है. महंगाई काफी है और सारे अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ा है इस लड़ाई का.

यह भी देखना पड़ेगा कि यूक्रेन के पक्ष में यूरोपीय समर्थन कबतक जारी रहेगा.  यूएस में भी जो रिपब्लिकन्स हैं कट्टर दक्षिणपंथी जो हैं और कांग्रेस में भी ये करीब 12-17 की संख्या में हैं जो अपनी पार्टी के ऊपर ही दबाव डाल रहे हैं. वो तो कहते हैं कि ये युद्ध जरूरी नहीं है और कब तक हमलोग खुला चेक यूक्रेन को देते रहेंगे. हमारी भी जरूरत हैं. ट्रम्प तो कहते हैं कि अगर मैं होता तो ये रूस घुसता ही नहीं यूक्रेन में..तो ऐसे में हमें देखना पड़ेगा कि किस हद तक रिपब्लिकन्स जो बाइडेन जो मदद यूक्रेन को देना चाहता है उसमें उनका साथ देंगे या अड़चन लगाएं और इससे कुछ फर्क पड़ सकता है.

यूरोप यूक्रेन की जरूरतों को नहीं कर पा रहा पूरा
अभी तो रूस ने भी नया रिक्रूटमेंट किया है, उनकी ट्रेनिंग भी हो गई है. अब वे डिप्लोय हो रहे हैं तो एक हमलावर रुख रूस की तरफ से आने वाला है. और अभी यूक्रेन की जो दो लाइन डिफेंस की थी पूर्वी क्षेत्र में रूस के सैनिकों ने उसे तोड़ दिया है. तो एक तरीके से ये रूस के लिए एडवांस हुआ पिछले 10-15 दिनों में और यूक्रेन के पास जो हथियार और गोला-बारूद है उसकी भी कमी हो रही है क्योंकि यूरोप में जितना प्रोडक्शन है वो यूक्रेन की जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रहा है. अब अमेरिका देगा उनको हथियार तो यूक्रेन के पक्ष में भी दिक्कते हैं और रूस के तरफ भी हैं. ये देखना पड़ेगा कि ये कहां तक लड़ते हैं और कब ये राजी हों कि अब लड़ने से हल नहीं निकल रहा.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. ये आर्टिकल मीरा शंकर से बातचीत पर आधारित है.)

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