Opinion: 'चंपारण फॉर्मूले' को पूरे देश में कैसे गांधी ने लागू किया, ये बताती है फिल्म चंपारण सत्याग्रह

डायरेक्टर और लेखक डॉक्टर राजेश अस्थाना की नई फिल्म चंपारण सत्याग्रह इन दिनों काफी चर्चा में है. अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ महात्मा गांधी की तरफ से छेड़े गए असहयोग आंदोलन पर बनी इस फिल्म को बनाने का क्या मकसद है और इसमें दिखाई गई चीजें किन तथ्यों पर आधारित है, इस पर एबीपी लाइव ने चंपारण सत्याग्रह फिल्म के डायरेक्टर राजेश अस्थाना के साथ बात की.
आइये जानते हैं कि फिल्म को लेकर डॉ. राजेश अस्थाना क्या कुछ कहना है:-
चंपारण अपने आप में एक बहुत बड़ा विषय है. आजादी की जब लड़ाई शुरू हुई थी, उस समय चंपारण में अंग्रेजों के जमींदार लोग 40 से 45 तरह के टैक्स लगाकर वहां पर लोगों का शोषण करते थे. चंपारण के लोगों पर कई तरह के अत्याचार करते थे, उनकी बहू-बेटियों की इज्जत लूटते थे. यह सब जानकारी पहले से किताबों में थी ही, लेकिन इसको फिल्म के माध्यम से मूर्त रुप दिया है. मेरे हिसाब से गांधी जी के लिए चंपारण एक मौका था, क्योंकि गांधी जी उस वक्त 9 जनवरी 1918 को दक्षिण अफ्रीका से आए थे. कांग्रेस केवल उनका इस्तेमाल भीड़ में ताली बजवाने के लिए करती थी. हमारे यहां आने के बाद गांधी महात्मा बने, वहां की स्थिति देखने के बाद सिर्फ एक कपड़े पर आए.
पहला असहयोग आंदोलन गांधी ने चंपारण में ही शुरू किया था और उस पर उन्होंने विजय पायी थी. उसी असहयोग आंदोलन को उन्होंने पूरे देश में एक तरीके से इस्तेमाल किया, जिसकी बदौलत हमें आजादी मिल पायी. इसी को फिल्म में दिखाया गया है.
रामायण बनने के पहले जितने भी दर्शक हैं, वो केवल ये जानते थे कि रामायण में राम भी हुआ करते थे, हनुमान, सीताजी ये सभी हुआ करते थे. राम ने रावण को मारा. रामजी ने बहुत कष्ट किया. लेकिन, रामजी कैसे कष्ट सहे, कैसे उन्होंने रावण को मारा और वे कैसे रामजी बने ये रामानंद सागर का सीरियल आने के बाद ही लोग जान पाए.
उसी तरह से जितनी भी किताबें आयीं, उसमें सिर्फ इतना ही लिखा है कि चंपारण में अंग्रेज अत्याचार करते थे. कई तरह के टैक्स लगाकर लगान की वसूली करते थे. लोगों का जीना अंग्रेजों ने दूभर कर दिया था. लेकिन ऐसा उन्होंने कैसे किया था, ये चीजें फिल्म में दिखाई गई है. ये मार्मिक और अच्छी फिल्म बनी है. पहली स्क्रीनिंग इसकी बिहार महोत्सव में हुई और दूसरी स्क्रीनिंग राष्ट्रपति भवन में होने जा रही है.
जहां तक इसके फैक्ट्स की बात है तो गांधी जी के ऊपर भारत सरकार की किताब है संपूर्ण गांधी वांगमय. ये कुल 52 खंड में हैं, जिनमें से 12,13 और 14 खंड चंपारण के हैं. गांधी जी की आत्मकथा है, उसमें भी चंपारण का जिक्र है. इसके अलावा जी. डी. तेंदुलकर की पुस्तक, राजेन्द्र प्रसाद की पुस्तक और अरविंद मोहन, नम्रता की किताबें है. यानी हमारे पास 33 किताबें है, जिनसे रिसर्च किया गया है. साथ ही, सरकारी राजपत्र में से 7 से 8 साल शोध करने के बाद चंपारण सत्याग्रह की पठकथा को लिखा, जिससे यह फिल्म बनी हैं.
इस फिल्म में कोई तड़क-भड़क नहीं बल्कि नेचुरल लोकेशन दी गई है. 1920 के समय में चंपारण के अंदर लोगों के घरों में बिजली, पानी, सड़क, पक्का मकान नहीं होता था. वैसे लोकेशन को खोजकर नेचुरल रूप देने की कोशिश की गई. लोकेशन बनाने के लिए किसी भी प्रकार को सेट नहीं लगया गया है. लाइव लोकेशन ढूंढकर पर फिल्म की शूटिंग की गई है.
बिहार के पूर्वी चंपारण जिले के मोतीहारी क्षेत्र में फिल्म बनायी गई है और इसके सारे कलाकार बिहार के हैं. ड्रामा और भोजपुरी फिल्में करने वाले कलाकारों को इस फिल्म में लिया गया है. कुछ कलाकारों ने हिंदी सिनेमा में भी काम किया है. इसके टैक्नीशियन और इक्वीपमेंट्स सब बिहार के हैं. पोस्ट प्रोडक्शन मुंबई में हुआ है, लेकिन पोस्ट प्रोडक्शन में काम करने वाले वो चाहे वीडियो रिकॉर्डर या फिर साउंड रिकॉर्ड करने वाले हैं... सभी बिहार के रहने वाले है. हमने बिहार सरकार से अग्रह किया है कि चंपारण सत्याग्रह को पूरी तरह से बिहारी फिल्म घोषित किया जाए.
चूंकि ये फिल्म कॉमर्शियल नहीं है, इसलिए इसमें लव-प्यार वाली बातें नहीं है. मैं ये भी जानता हूं कि एक खास वर्ग के लोग ही इस फिल्म को देखने के लिए थिएटर तक जा पाएंगे. लेकिन, अगर हम ये आप से ही सवाल कर दें कि गांधी जी चंपारण में क्या-क्या किए थे, तो आपको नहीं मालूम होगा.
आप सिर्फ इतना जरूर जानते होंगे कि गांधी जी पहली बार 15 अप्रैल 1917 को चंपारण गए थे. लेकिन, वहां पर क्या-क्या हुआ, कौन से लोग उनके साथ शामिल थे, शायद आप ये बात नहीं जानते होंगे. आज की युवा पीढ़ी बिल्कुल इससे अनजान है. यूपीएससी से लेकर जनरल तक की सभी परीक्षाओं में एक नंबर, दो नंबर का सवाल होता है कि चंपारण का आंदोलन कब हुआ था और क्यों हुआ था.
लेकिन, कैसे हुआ था ये कोई नहीं जानता है. उन्हीं लोगों को बताने के लिए ये फिल्म है और सरकार से इसलिए टैक्स फ्री की मांग हो रही है, ताकि स्कूलों और कॉलेजों के बच्चे इस फिल्म को देखने के लिए आ पाएं. चंपारण सत्याग्रह के नाम पर एक खास वर्ग के लोग तो इस फिल्म को देखने के लिए आएगा ही. लेकिन, उन लोगों को भी लेकर जाना है, जो आज के भविष्य हैं. यही उद्देश्य है कि वो लोग सिनेमा हॉल में इस फिल्म को देखने के लिए आ पाएं.
चूकि मैं खुद चंपारण का रहने वाला हूं, इतिहास के बाकी भी कई चेहरे हैं, लेकिन उन लोगों ने चंपारण के लिए कुछ भी नहीं किया. लेकिन गांधी ने चंपारण के लिए किया है. इसकी बुनियाद तब पड़ी जब फिल्म गांधी देखी. उस फिल्म के अंदर सिर्फ 4 से 5 सेकेंड में चंपारण को खत्म कर दिया. जबकि मैंने खुद समेट कर बनाई है तब 2 घंटे में बन पाई, नहीं तो 5-6 घंटे में फिल्म बनती. ऐसे में जब फिल्म चंपारण को सिर्फ 5 मिनट में खत्म किया गया तो काफी तकलीफ हुई. उसी समय फिल्म बनाने की संकल्प ले लिया था. मैं समस्या मूलक और संदेश मूलक ही फिल्में बनाता हूं.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]