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Bihar Politics: बिहार का युवा दशकों से झेल रहा ये दर्द, आखिर कब मिलेगा समाधान?

Bihar Politics: बिहार देश के सबसे युवा राज्यों में से एक है. यह राज्य दशकों से पलायन का दर्द झेल रहा है. हर चुनाव में यह मुद्दा उठता है लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात. आखिर कब होगा समाधान?

बिहार भारत का सबसे युवा राज्य है, जिसकी 2021 में औसत उम्र सिर्फ़ 22 साल थी और इसकी 58% आबादी 25 साल से कम उम्र की है. यह आबादी आने वाले सालों में राज्य की काम करने वाली उम्र की आबादी में बढ़ोतरी की ओर इशारा करता है. हालांकि, यह अपने साथ कई चुनौतियाँ भी लाता है- खासकर, बेरोजगारी और पलायन  की ऊँची दरें, जो लगातार गरीबी और कम विकास से और बढ़ जाती हैं.

बिहार में तीन में से एक शख्स मल्टीडाइमेंशनल गरीबी में जीता है. मल्टीडाइमेंशनल गरीबी का मतलब है- एक परिवार या व्यक्ति न सिर्फ आर्थिक बल्कि सामाजिक पैमानों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन जैसे जरूरी चीजों के लिए भी तरसता है. जिससे यह भारत में इस तरह की कमी वाला सबसे ज्यादा राज्य बन गया है. जहां युवा आबादी को अक्सर आर्थिक विकास के लिए वरदान माना जाता है, वहीं बिहार में इसने नौकरी बनाने, इंफ्रास्ट्रक्चर और सोशल सिस्टम पर बहुत ज्यादा  दबाव डाला है. युवाओं के बड़े आधार को रोजगार के मौकों नहीं मिले जिससे बड़े पैमाने पर पलायन  हुआ.

बिहार चुनाव में मुख्य मुद्दे: बेरोजगारी  और भ्रष्टाचार

बिहार में मतदाताओं का मूड पूरी तरह से विकास के मुद्दों पर फोकस है. अक्टूबर 2025 में किए गए IANS-मैट्रिज़ सर्वे से पता चलता है कि 24% लोग बेरोजगारी को सबसे बड़ा मुद्दा मानते हैं, इसके बाद भ्रष्टाचार (10%), शिक्षा व्यवस्था (8%), महंगाई (7%), और कानून-व्यवस्था (5%) का नंबर आता है. हैरानी की बात है कि खेती, पलायन , शराबबंदी, राज्य का विकास, हेल्थकेयर और बाढ़ जैसे मुद्दों का स्कोर और भी कम है. हर एक को 4% से 1% जवाब देने वालों ने अहम माना है.

पलायन : एक सच्चाई!

पलायन  के मामले में बिहार देश भर में उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे नंबर पर है. इंस्टीट्यूट ऑफ़ पॉपुलेशन साइंस की 2020 की एक स्टडी के मुताबिक, बिहार के लगभग आधे घरों में किसी न किसी तरह का पलायन  हुआ है. पलायन  की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई है: साल 1981 और साल 1991 के बीच, 25 लाख लोगों ने पलायन  किया.  जनगणना 2011 के अनुसार वर्ष 2001-2011 तक यह आंकड़ा बढ़कर 74.54 लाख हो गया था.

बिहार के युवा लड़के ज्यादातर दिल्ली, गुजरात या बेंगलुरु जैसे शहरों में कंस्ट्रक्शन या फैक्ट्रियों में नौकरी करते हैं, जबकि औरतें राज्य के बाहर फैक्ट्री लाइनों या हॉस्पिटैलिटी सेक्टर में नौकरी कर रही हैं. 

बाहर जाने का असर जाति पर भी!

हाल ही में बिहार के जाति सर्वे में पाया गया कि लगभग 10% ऊंची जाति की हिंदू आबादी, 5.39% अन्य पिछड़ा वर्ग (OBCs), और 3.9% बहुत पिछड़ा वर्ग (EBCs) राज्य से बाहर चले गए हैं.

बढ़ती बेरोजगारी

बिहार में शहरी युवाओं में बेरोजगारी  दर लगातार राष्ट्रीय औसत से ज्यादा  रही है. शहरी इलाकों में 15-29 साल के लोगों के लिए, बिहार की बेरोजगारी  दर 2023 के आखिर में 18.7% से बढ़कर 2024 के आखिर तक चिंताजनक 26.4% हो गई. इसकी तुलना में, इस दौरान भारत का राष्ट्रीय 16% के करीब रहा.

29 साल और उससे ज्यादा  उम्र के लोगों के लिए, बिहार में शहरी बेरोजगारी  दर में भी लगातार बढ़ोतरी दिख रही है. वर्ष 2023 के आखिर में 6.2% से बढ़कर साल 2024 के आखिर तक 8.7% हो गई, जो लगभग 6.4% के राष्ट्रीय औसत से थोड़ा ज्यादा  है.

कम सैलरी वाला रोजगार और स्व-रोजगार

बिहार में रोजगार का माहौल स्व-रोजगार  और कैज़ुअल लेबर पर ज्यादा  है. बिहार के सिर्फ़ 13% वर्कर सैलरी पाते हैं जो कि भारत में सबसे कम है. वहीं इसी मामले में राष्ट्रीय औसत 24% है. रेगुलर मज़दूरी वाला काम बहुत कम (8.7%) मिलता है और ज्यादा तर लोग (67.5%) स्व-रोजगार के भरोसे हैं. यह आंकड़ा राष्ट्रीय औसत 58.4% से काफ़ी ज्यादा  है. कैज़ुअल लेबर रोजगार का 23.8% हिस्सा है, जबकि घरेलू कामों में हेल्पर 20.7% हैं.

इंडस्ट्री, फैक्ट्री की गिनती, और आर्थिक ठहराव

बिहार में आर्थिक विकास धीमे औद्योगिक विकास और खराब जॉब क्रिएशन की वजह से रुका हुआ है. गुजरात की आबादी से लगभग दोगुनी होने के बावजूद, बिहार में फैक्ट्रियों की संख्या उसके 10वें हिस्से के बराबर है.  MOSPI के अनुसार गुजरात में 33,311 फैक्ट्रियों की तुलना में बिहार में सिर्फ 3,386 हैं. औद्योगिकीकरण की यह कमी फॉर्मल रोजगार के मौकों को कम करती है और पलायन  को बढ़ाती है.

एक समय फलते-फूलते चीनी और सिल्क इंडस्ट्री में भी ऐसी ही गिरावट देखी गई है. 1980 के दशक में भारत के उत्पादन में लगभग 30% हिस्सा रखने वाली शुगर इंडस्ट्री की 28 मिलें चालू थीं, लेकिन 2025 तक यह घटकर सिर्फ नौ मिलें रह गई हैं. देश के चीन उत्पादन में बिहार का हिस्सा छह फीसदी से भी कम हो गया है. इसी तरह, भागलपुर की मशहूर तस्सर सिल्क इंडस्ट्री, जिसका साल 2015 में सालाना बिज़नेस 600 करोड़ रुपये था, वर्ष 2025 में घटकर सिर्फ़ 150 करोड़ रुपये रह गई है.

बिहार में एफडीआई की कहानी...

फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट (FDI) भी यही कहानी कहता है. अक्टूबर 2019 और दिसंबर 2024 के बीच, बिहार में FDI में सिर्फ़ 1,649 करोड़ रुपये आए, जो देश के कुल FDI का सिर्फ़ 0.08% है. इस मामले में बिहार भारतीय राज्यों में 18वें नंबर पर है.

सरकारी नौकरियां मिलना भी आसान नहीं है. बिहार में 16.27 लाख सरकारी पदों में से सिर्फ़ 11.54 लाख ही भरे हुए हैं. 29% पद खाली हैं. अकेले शिक्षा विभाग में 2.17 लाख कर्मचारियों की कमी है, इसके बाद हेल्थ, होम और ग्रामीण विकास विभाग में बड़ी संख्या में पद खाली हैं. पुलिस फोर्स में स्टाफ की खास तौर पर कमी है. यहां 68,062 वैकेंसी है. करीब 40 फीसदी पद खाली हैं.

क्या है राजनीतिक असर?

बिहार में गरीबी, बेरोजगारी  और पलायन  से संघर्ष की जड़ कई पार्टियों के दशकों के शासन से जुड़ी है. कांग्रेस ने 38 साल, जेडीयू ने 20 साल, आरजेडी और जनता दल ने मिलकर 15 साल राज किया, जबकि जनता पार्टी और दूसरे दलों ने भी कम समय के लिए राज किया. फिर भी, वादों और नीति के चक्र ने राज्य की ज्यादा तर युवा आबादी के लिए जमीनी हकीकत को बदलने के लिए बहुत कम किया है.

बिहार में एक तरफ  तेजी से युवाओं की आबादी बढ़ रही है लेकिन दूसरी तरफ इसे बहुत ज्यादा  गरीबी, बेरोजगारी , धीमा औद्योगिकीकरण और बहुत ज्यादा  पलायन  का सामना करना पड़ता है. सतत विकास के लिए संघर्ष बिहार में जिंदगी के लगभग हर पहलू में है. रोजगार, शिक्षा, कानून और व्यवस्था ये वो मु्द्दे हैं जिन पर सियासी दल और नेता रैलियों में बात तो करते हैं लेकिन चुनाव बाद ऐसा लगता है मानों- इन्हें भूल गए.

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