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इलेक्टोरल बॉन्ड: सुप्रीम कोर्ट में पहले दिन की सुनवाई में किसने क्या दलीलें दी?

Electoral Bond Scheme: राजनीतिक दलों को चंदा देने की इलेक्टोरल बॉन्ड व्यवस्था के खिलाफ याचिका दायर करने वाले एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने कहा कि ये देश के लिए सही नहीं है.

Supreme Court On Electoral Bond Scheme: राजनीतिक दलों को चंदा देने की इलेक्टोरल बॉन्ड व्यवस्था के खिलाफ याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में मंगलवार (31 अक्टूबर) को सुनवाई हुई. सुनवाई के पहले दिन याचिकाकर्ता पक्ष ने जिरह की.

याचिकाकर्ताओं की तरफ से प्रशांत भूषण और कपिल सिब्बल समेत दूसरे वकीलों ने इस व्यवस्था को अपारदर्शी बताया और इससे भ्रष्टाचार की आशंका जताई. कल यानी बुधवार (1 नवंबर) को इस पर सरकार जवाब देगी.

क्या है मामला?
साल 2017 में केंद्र सरकार ने राजनीतिक चंदे की प्रक्रिया को साफ-सुथरा बनाने के नाम पर चुनावी बांड का कानून बनाया. इसके तहत स्टेट बैंक के चुनिंदा ब्रांच से हर तिमाही के शुरुआती 10 दिनों में बांड खरीदने और उसे राजनीतिक पार्टी को बतौर चंदा देने का प्रावधान है. कहा गया कि इससे कैश में मिलने वाले चंदे में कमी आएगी.

बैंक के पास बांड खरीदने वाले ग्राहक की पूरी जानकारी होगी. इससे पारदर्शिता बढ़ेगी. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (CPM) समेत 4 याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि इस व्यवस्था में पारदर्शिता नहीं है. अब चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 5 जजों की बेंच ने मामले पर सुनवाई शुरू कर दी है.

'लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह'
याचिकाकर्ता एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की तरफ से बोलते हुए प्रशांत भूषण ने इलेक्टोरल बॉन्ड को लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह बताया. उन्होंने कहा कि लोगों को यह पता नहीं चल पाता कि किस पार्टी को किसने चंदा दिया. राजनीतिक दल चुनाव आयोग की तरफ से मिले निशान पर चुनाव लड़ते हैं. ऐसा नहीं कहा जा सकता कि लोगों को जानकारी देने की उन्हें कोई जरूरत ही नहीं. सरकार यह दलील देती है कि किसी पार्टी को खुद भी पता नहीं होता कि उसे चंदा किसने दिया, लेकिन यह व्यवहारिक नहीं लगता.

'सरकार को सब जानकारी'
प्रशांत भूषण ने आगे कहा. "अगर यह मान भी लिया जाए कि चंदा पाने वाली पार्टी को दान देने के बारे में पता नहीं होता. तब भी सरकार आसानी से इसका पता लगा सकती है. इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वाले कि जानकारी स्टेट बैंक के पास होती है. बांड के ज़रिए दान देने वाला इनकम टैक्स विभाग को भी इसकी जानकारी देता है. दोनों ही जगहों से जानकारी सरकार आसानी से ले सकती है. यह लोकतंत्र के हिसाब से गलत है कि विपक्षी पार्टी को पता ना हो कि किसे कौन चंदा दे रहा है, लेकिन सत्ता में बैठी पार्टी को सब पता हो.

'बीजेपी को मिला सबसे ज़्यादा चंदा'
भूषण ने यह भी कहा कि राजनीतिक पार्टियां इस बात की घोषणा करती हैं कि उन्हें कुल कितनी रकम दान में मिली. इस आंकड़े को देखा जाए. तो बीजेपी को पिछले 5 साल में 5271.97 करोड़ रुपए मिले जो कि इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए इस दौरान दिए गए चंदे का 74.72 प्रतिशत है.

उन्होंने बताया कि कांग्रेस को 5 सालों में  952.29 करोड़ रुपए मिले. जो कुल चंदे का 13.50 प्रतिशत है. तृणमूल कांग्रेस को 767.88 करोड़ यानी 10.88 प्रतिशत चंदा मिला और एनसीपी को 63.75 करोड़ यानी 0.90 प्रतिशत चंदा मिला. इस तरह केंद्र की सत्ताधारी पार्टी को दूसरी सभी पार्टियों को मिले चंदे से 3 गुना ज्यादा चंदा मिला है. यह चंदा देने वाले कौन हैं? इसका पता न लोगों को है. ना भ्रष्टाचार की जांच करने वाली एजेंसियों को. न इसकी जानकारी है कि क्या यह चंदा रिश्वत के रूप में दिया गया है.

'विदेशी कंपनी भी दे सकती है चंदा'
भूषण ने कहा कंपनी वेदांता की तरफ से करोड़ों रुपयों का दान दिए जाने और उसके कई राज्यों में खनन लीज के दावेदार होने की बात कही, लेकिन चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने उन्हें रोकते हुए कहा कि जो भी लोग मामले में पक्ष नहीं हैं. उनके बारे में अलग से दलील न दें.

इसके बाद याचिकाकर्ता जया ठाकुर की तरफ से वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि किसी कंपनी के शेयरधारक भी नहीं जान पाते कि किस पार्टी को कितना चंदा दिया गया है. वकील निज़ाम पाशा ने कहा कि इलेक्टोरल बॉन्ड से वैसी विदेशी कंपनियां भी चंदा दे सकती हैं. जिनकी भारत में कोई सहयोगी कंपनी हो. यह गलत है.

'चंदे की जानकारी मौलिक अधिकार नहीं'
मामले में अभी केंद्र सरकार ने पक्ष नहीं रखा है, लेकिन अटॉर्नी जनरल के ज़रिए दाखिल जवाब में उसने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट किसी कानून में तभी दखल देता है. जब वह नागरिकों के मौलिक या कानूनी अधिकारों का उल्लंघन कर रहा हो. इस मामले में ऐसा नहीं कहा जा सकता. किस पार्टी को कितना चंदा मिला. इसकी जानकारी पाना लोगों का मौलिक अधिकार नहीं है.

वेंकटरमनी ने कहा है कि चुनावी हलफनामे के ज़रिए उम्मीदवार अपने आपराधिक रिकॉर्ड की जानकारी वोटर को देता है. इसका आदेश सुप्रीम कोर्ट ने 2003 के 'पीपल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टी बनाम भारत सरकार' फैसले में दिया था. राजनीतिक चंदे की जानकारी का कोई अधिकार फिलहाल लोगों को नहीं है. अगर कोर्ट किसी अधिकार को नए सिरे से परिभाषित भी करता है. तो उसके आधार पर सीधे किसी मौजूदा कानून को निरस्त नहीं किया जा सकता.

ये भी पढ़ें-'सूचना आयोग में पद खाली रहेंगे तो, RTI...', सुप्रीम कोर्ट का केंद्र और राज्य सरकार को निर्देश

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