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लोक परंपरा के नाम पर अंधविश्वास का खूनी खेल, कहीं होती है पत्थरबाजी तो कहीं इंसानों को रौंदते जानवर

Folk Tradition: आस्था के नाम पर लोग जान तक दांव पर लगा देते हैं. देश के कई हिस्सों में आज भी ऐसी परंपराएं चली आ रही हैं जिनमें लोग अपनी जान की बाजी लगाने से भी पीछे नहीं हटते हैं.

Game Of Superstition: आस्था और अंधविश्वास के बीच बेहद ही छोटी लाइन होती है. इस लाइन को क्रॉस करते ही अंधविश्वास की लाइन शुरू हो जाती है. इसी अंधविश्वास की कहानियां देश में देखने को मिलती हैं. लोग जान जोखिम में डालकर आस्था के नाम पर अंधविश्वास की परंपराओं को निभा रहे हैं. ऐसी ही बानगी दिवाली के त्योहार पर देखने को मिली, जहां अंधविश्वास का खूनी खेल देखने को मिला. कहीं पत्थरबाजी हुई तो कहीं पर जानवर इंसानों को रौंदते दिखाई दिए.

मध्य प्रदेश के उज्जैन में आस्था के नाम पर अंधविश्वास की अंधी दौड़ देखने को मिली. महाकाल की नगरी में ये एक लोक परंपरा का वो हिस्सा है जो दशकों से इसी तरह निभाया जा रहा है. उज्जैन शहर से करीब 60 किलोमीटर दूर भिड़ावद और लोहारिया में गोवर्धन पूजा के नाम पर अंधविश्वास का जानलेवा खेल खेला गया. यहां ऐसी मान्यता है कि जो लोग मवेशियों को अपने ऊपर से गुजरने देते हैं उनकी मन्नत पूरी हो जाती है.

जान जोखिम में डालने की परंपरा

बस अपने इसी अंधविश्वास में कई लोग जमीन पर लेट गए और सजा-धजाकर लाए गए मवेशी एक के बाद एक गुजरते रहे. लोगों की जान जोखिम में डालने वाली इस परंपरा के बारे में अधिकारी से लेकर जनप्रतिनिधि तक जानते हैं लेकिन सालों से चली आ रही इस लोक परंपरा किसी ने रोकने की कोशिश नहीं की है. आस्था के नाम पर अंधविश्वास का ये खेल देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं, खेल खत्म होने के बाद साफा बांधकर उनका अभिनंदन भी किया जाता है.

अंधविश्वास की ये कहानी सिर्फ एक जिले की नहीं

उज्जैन से करीब 160 किलोमीटर दूर एमपी के झाबुआ में भी यही कहानी देखने को मिली. सिर्फ जगह का नाम अलग है. कहानी वही है.. यहां भी आस्था, परंपरा और लोक पर्व के नाम पर जान दांव पर लगाने का तमाशा हुआ. जमीन पर एक कतार में लोग लेटे हुए हैं...मोर पंख से सजे मवेशियों को एक-एक कर ऊपर से दौड़ाया जा रहा है. झाबुआ में गाय गोहरी नाम की ये परंपरा दीपावली के एक दिन बाद मनाई जाती है और इन्हें भी ऐसा ही लगता है कि इस परंपरा को निभाने वालों की मनोकामना पूरी होती है.

हिमाचल प्रदेश में भी अछूता नहीं

अब आपको ले चलते हैं शिमला. यहां भी आस्था के नाम पर जान दांव पर लगाई जा रही है. ढोल नगाड़ों की आवाज के बीच जान की बाजी लगाने का जश्न मनाया जाता है. यहां पूरी ताकत के साथ एक दूसरे पर पत्थर बरसाए जाते हैं. इतने पत्थर होते हैं कि जमीन पर पत्थरों की चादर बिछ जाती है. आमतौर पर ऐसा विरोध प्रदर्शन या फिर हिंसा के मौके पर देखने को मिलता है. पत्थरबाजी करने वाला एक गुट सड़क पर होता है और दूसरा गुट दूसरी तरफ कुछ ऊंचाई पर होता है. पीछे से ढोल नगाड़े बजाए जाते हैं. दो पक्षों के बीच पत्थर बरसाने का ये सिलसिला तब तक जारी रहता है जब तक कि दूसरा पक्ष बुरी तरह से लहुलुहान ना हो जाए.

शिमला से 30 किलोमीटर धामी में पत्थर वाले मेले का आयोजन होता है.  इस मेले का आयोजन कई दशकों से किया जा रहा है. दीपावली के दूसरे दिन इस मेले का आयोजन होता है. दो पक्षों के बीच जमकर पत्थरों की बरसात होती है. एक पक्ष के लहुलुहान होने के बाद पत्थरबाजी रुकती है और इसके बाद मां भद्र काली को खून का तिलक लगाया जाता है.

हिंदुस्तान में ऐसे अंधविश्वास का बोलबाला है क्योंकि देश में अंधविश्वास पर लगाम लगाने वाला कोई ठोस कानून नहीं है. सेक्शन 302 के तहत नर बलि जैसे जघन्य अपराध पर भी तब ही सजा का प्रावधान है जब व्यक्ति की मौत हो जाती है.

ये भी पढ़ें: आस्था या अंधविश्वास? एमपी की अनूठी अदालत में पेशी पर आए सांप, बताने लगे डसने की वजह!

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