'ये केंद्र के अधिकार क्षेत्र में दखल है', कर्नाटक कास्ट सर्वे पर हाईकोर्ट में बोली सरकार
कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता सरकार के सर्वेक्षण करने के अधिकार पर विवाद नहीं कर रहे हैं, बल्कि क्रियान्वयन के तरीके पर सवाल उठा रहे है.

कर्नाटक हाईकोर्ट ने बुधवार (24 सितंबर, 2025) को सामाजिक एवं शैक्षणिक सर्वेक्षण की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर विस्तृत सुनवाई की, जिसे 'जातीय गणना' भी कहा जाता है. मुख्य न्यायाधीश विभु बाखरू और जस्टिस सी एम जोशी की खंडपीठ ने कोई अंतरिम राहत नहीं दी तथा मामले में अगली सुनवाई गुरुवार को करेगी.
राज्य की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट अभिषेक मनु सिंघवी ने दलील दी कि याचिकाएं किसी संवैधानिक प्रावधान या कर्नाटक राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग अधिनियम, 1995 के किसी विशिष्ट अनुच्छेद को लक्षित नहीं कर रही हैं, बल्कि वास्तव में वे सरकार के अधिकार का प्रयोग रोकने का प्रयास कर रही हैं.
उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ताओं ने सर्वेक्षण के अवैज्ञानिक होने जैसे सामान्य आरोप लगाए हैं, जिनकी पड़ताल केवल परिणाम सार्वजनिक होने के बाद ही की जा सकती है. अभिषेक मनु सिंघवी ने सुप्रीम कोर्ट के पुट्टस्वामी फैसले का भी हवाला देते हुए कहा कि सरकारों को कल्याणकारी योजनाओं के लिए डेटा एकत्र करने का अधिकार है.
बेंच ने साफ किया कि याचिकाकर्ता सरकार के सर्वेक्षण करने के अधिकार पर विवाद नहीं कर रहे हैं, बल्कि क्रियान्वयन के तरीके पर सवाल उठा रहे हैं और उन्होंने जातियों की संख्या में अचानक वृद्धि और कथित राजनीतिक उद्देश्य को लेकर आपत्ति जताई है. जब अदालत ने केंद्र सरकार की जाति जनगणना के साथ ‘ओवरलैप’ का मुद्दा उठाया, तो अभिषेक मनु सिंघवी ने प्रतिवाद किया कि राज्यों को केंद्र की प्रक्रिया का इंतजार करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इसे पूरा होने में वर्षों लग सकते हैं.
केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए एडिशनल सॉलिसिटर जनरल अरविंद कामथ ने दलील दी कि संवैधानिक ढांचा केवल केंद्रीय जनगणना को ही जनसांख्यिकीय आंकड़ों के आधिकारिक स्रोत के रूप में मान्यता देता है. कामथ ने कर्नाटक के प्रयास को 'सर्वेक्षण के रूप में छुपी हुई एक जनगणना' बताया और दलील दी कि एक वैध सर्वेक्षण मुद्दा-विशेष होना चाहिए, वर्तमान गणना जैसा नहीं, क्योंकि यह गणना केंद्र के अधिकार क्षेत्र में दखल दे रही है.
आयोग के वकील ने अपडेटेड कास्ट लिस्ट का बचाव करते हुए कहा कि पिछले सर्वेक्षण के दौरान कई समुदायों ने सूची से बाहर रखे जाने की शिकायत की थी. उन्होंने कहा कि घरों की जियो-टैगिंग की गई, जबकि आधार का इस्तेमाल केवल परिवार के मुखियाओं का सत्यापन और दोहराव रोकने के लिए किया गया.
पीठ ने हालांकि, जियो-टैग स्टिकर लगाने के कानूनी आधार पर सवाल उठाया और यह भी पूछा कि क्या उन्हें हटाने पर निवासियों को दंडित किया जा सकता है. पीठ ने इसको लेकर भी स्पष्टीकरण मांगा कि क्या सर्वेक्षणकर्ताओं को परिवारों को यह बताने के लिए कहा गया था कि इसमें भागीदारी स्वैच्छिक है.
वोक्कालिगारा संघ, अखिल कर्नाटक ब्राह्मण महासभा और वीरशैव लिंगायत महासभा सहित याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि राज्य पिछड़े वर्गों के लिए कल्याणकारी योजनाएं तो बना सकता है, लेकिन जाति-आधारित सर्वेक्षण करने का अधिकार उसके पास नहीं है. उन्होंने आरोप लगाया कि आपत्ति दर्ज कराने के लिए केवल सात दिनों की अवधि के साथ जल्दबाजी में की गई यह प्रक्रिया 'राजनीति से प्रेरित' है. मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने कल्याणकारी कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार करने के लिए गणना को महत्वपूर्ण बताया है. इस प्रक्रिया के लिए लगभग 420 करोड़ रुपये निर्धारित किए गए हैं.
Source: IOCL





















