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पर्यावरण दिवस विशेषः अब कौन सुनेगा तेरी आह... क्या हमें फिर से रोमांचित कर पाएंगे झिंगुर और दादुर की आवाज

आज पर्यावरण दिवस है और हम सब पर्यावरण बचाने की मुहिम को जोर शोर से बल देंगे. कई तरह की योजनाएं बनेंगी, कई तरह की बातें होंगी. कई तरह के आंकड़े पेश किए जाएंगे लेकिन बस एक बात कि विकास की इस दौड़ में क्या हम फिर से धरती को इस लायक बना पाएंगे कि अंधेरी रात में झिंगुर और दादुर की आवाज हमें रोमांचित करे.

''अब कौन सुनेगा तेरी आह, नदिया धीरे बहो. अब किसको है तेरी परवाह, नदिया धीरे बहो.'' विलुप्त होती नदी के मर्म को समझने, उससे रिश्ता कायम रखने के लिए जब मुरारी शरण ने लोगों के बीच संगीतमय गुहार लगाई तो यह गीत सभी की जुबान पर चढ़ गया था. बिहार के बगहा के रहने वाले मुरारी शरण आजीवन नदियों की व्यथा-कथा को शब्दों में पीरोकर गीतों की माला तैयार करते रहे.

अब कौन सुनेगा तेरी आह, नदिया धीरे बहो.
अब किसको है तेरी परवाह, नदिया धीरे बहो.
पहले तु माता थी सबकी, अब मेहरी सी लगती हो
पाप नाशनेवाली खुद ही सिर पर मैला ढोती हो
तेरी पीड़ा अथाह, हो नदिया धीरे बहो...
अब कौन सुनेगा तेरी आह...

मुरारी शरण न सिर्फ नदियों के दुख को शब्दों में ढालते रहे, बल्कि जब तक रहे देश के कोने-कोने में जाकर नदियों की अरज को लोगों के बीच सुनाते रहे. लोगों को आगाह करते रहे कि नदियां खत्म हो रही हैं. अगर इसे नहीं बचाएंगे तो एक दिन हमारा और आपका भी जीवन खत्म हो जाएगा.

'फैक्ट्री मालिकों से मुरारी शरण की अपील'

मुरारी शरण ने एक अन्य गीत में फैक्ट्री मालिकों पर चोट किया था. फैक्ट्री मालिकों से उन्होंने अरज लगाई थी कि नदी को अविरल बहने दिया जाए. फैक्ट्रियों का कूड़ा कचरा नदियों में न प्रवाहित किया जाए. गीत के बोल इस तरह से थे- लौटा द नदिया हमार, हो करखनवा के मालिक.

आपको बता दें कि पिछले कई साल से भारत की नदियां जबरदस्त बदलाव से दौर से गुजर रही हैं. हम सभी के सामने नदियों के अस्तित्व बचाने का संकट आ खड़ा हुआ है. बढ़ती जनसंख्या, विकास की दौड़, अवैध खनन और अंधाधुंध पेड़ों की कटाई के कारण हमारी बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियों में बदलती जा रही हैं.

अवैध खनन का नतीजा कहें या नदियों की जमीन पर होने वाले अतिक्रमण जिसके कारण कई नदियां या तो सूख चुकी हैं या बहुत ही संकीर्ण अवस्था में अपनी दर्द बताते हुए बह रही हैं. वहीं कारखानों से निकलने वाले कचरे को बिना निस्तारण के नदियों में बहा दिया जाता है जो कि नदियों को मारने में बहुत अहम रोल अदा करता है. 

'अलख जगाते हैं राम जीवन के गीत'

वहीं राम जीवन दास 'बावला' ने भी अपने गीतों के जरिए लोगों के बीच पर्यावरण को लेकर अलख जगया है. वह गीत तो जल और जंगल बचाने के लिए लिखते थे लेकिन शब्द इतने गहरे होते थे कि बात पूरी सृष्टि की हो जाती थी. राम जीवन दास बावला न सिर्फ अपने गीतों के जरिए लोगों को जागरुक करते थे बल्कि लोगों से सवाल भी पूछते थे.

हरियर बनवा कटाला हो, किछु कहलो न जाला,
देखि-देखि जीव घबड़ाला हो, किछु कहलो न जाला.
केकरा के छहियां बटोहिया छंहाई,
कहां पर खोंतवा चिरइया लगाई,
हाड़-हाड़ देहियों पहाड़ क देखाई,
कहां मिली जड़ी-बूटी सेत क दवाई.
दिनवा अगम समुझाला हो, किछु कहलो न जाला.

राम जीवन दास इस गीत के माध्यम से बहुत कुछ बताते हैं तो बहुत सारे सवाल भी लोगों से पूछते हैं. इस गीत के जरिए वह कहते हैं मेरे आंख के सामने जंगल कट रहे हैं. रोज हरे जंगलों को कटते हुए देखकर मेरा जी घबराने लगता है लेकिन मैं कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं है.

कटते हुए पेड़ों को देखते हुए वह बेवस होकर बस इतना ही कह पाते हैं कि किससे फरियाद लगाऊ, कौन सुनेगा इन पेड़ों की व्यथा. मैं बस यही कल्पना करता हूं कि जब सारे पेड़ काट दिए जाएंगे, जंगल खत्म हो जाएंगे तो हमारी धरती कैसी लगेगी.

अपने गीतों के जरिए वह कहते हैं कि बिना पेड़ के कैसी लगेगी यह दुनिया? क्या हमलोग सृष्टि और प्रकृति पर भी अपना दबदबा कायम करना चाहते हैं? वह कहते हैं कि क्या सृष्टि के दूसरे जीवों के प्रति हमें मोह-ममता नहीं है या इंसानों ने यह मान लिया है कि उनके अलावे इस धरती पर किसी और की कोई उपयोगिता नहीं है.

राम जीवन दास लिखते हैं कि क्या मैं यह मानकर चलूं कि इंसानों के अलावा धरती पर किसी का कोई अधिकार नहीं है. वह कहते हैं जब जंगल काटे जाएंगे तो उसमें रहने वाले जीव रोयेंगे. लेकिन रोयेंगे कहां? क्या हम इंसान इन जीवों को अपने दायरे में आकर रोने देंगे?

'बंजर धरती की कल्पना है कैलाश गौतम की ये गीत' 

एक ऐसा ही गीत लिखते हैं कैलाश गौतम. वह अपने गीतों में हिरण को नायक बनाते हुए कहते हैं-

चल चली कहीं बनमा के पार हरिना, यही बनवां में बरसे अंगरा हरिना.
रेत भईली नदिया पठार भईली धरती, जरी गईली बगिया उपर भईली परती.
यही अगिया में दहके कछार हरिना, चल चली कहीं बनमा के पार हरिना.

इस गीत के जरिए वह बताते हैं कि जंगल काटे जा रहे हैं और हिरण का जोड़ा घूम रहा है. जंगल काटे जाने के कारण धूप की ताप को महसूस किया जाने लगा है. इस बीच गर्मी से परेशान मादा हिरण अपने प्रेमी से कहती है कि अब किसी और जंगल में चला जाए यहां अब तेज धूप आने लगा है यहां अब रहने लायक नहीं है.

तभी नर हिरण कहता है कि हम लोग कहां जाएंगे. इंसान ने इस धरती को हमारे रहने के लायक नहीं छोड़ा है. नदी को रेत में बदल दिया गया है. अपने मतलब के लिए बागों को काटकर और झाड़ियों को जलाकर उसे परती जमीन में ढाला जा रहा है. पहाड़ों पर लगे पेड़ को काटकर उसका चीर-हरण किया जा रहा है. इंसानों को हमसे प्रेम नहीं है. इंसान राज करने के लिए हमारे घरों को उजाड़ रहे हैं. जल्द ही इनका जीवन भी किसी लायक नहीं बचेगा. ऐसे कई क्षेत्रीय गायक हैं जो नदियों को बचाने के लिए लोगों के बीच जाकर पर्यावरण गीत सुना रहे हैं और उन्हें प्रेरित कर रहे हैं.

विलुप्त हो गए कुएं

बढ़ती जनसंख्या और विकास की अंधी दौड़ ने तो न जाने पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचाया है इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं. विकास के लिए न जाने कितने पेड़ काट दिए गए. लाखों जल स्रोतों को खत्म कर दिया गया. तालाबों और कुंओं को पाट दिया गया. नहर और पईन की जमीनों पर लोगों ने बलपूर्वक कब्जा कर लिया. कई छोटी नदियां मानचित्र से गायब हो चुकी हैं.

ये सभी कारक न सिर्फ छोटी नदियों को प्रभावित कर रहे हैं बल्कि बड़ी नदियों को भी संकट में डाल रखा है. बड़ी नदियों में गंगा नदी भी शामिल है जिनके अस्तितव पर भारी खतरा बना हुआ है. गोदावरी नदी गर्मियों के दिनों में कई जगहों पर सूख सी जाती है.

वहीं एक रिचर्स के मुताबिक कावेरी अपना करीब 40 फीसदी जल प्रवाह खो चुकी है. कृष्णा और नर्मदा नदी में भी पानी का बहाव बहुत ही कम हो गया है. ऐसी स्थिति में बारहमासी नदियां या तो मौसमी बनती जा रही हैं या पूरी तरह सूखने के कगार पर हैं.

क्या फिर से गुलजार होंगीं झिंगुर और दादुर की आवाज

आज पर्यावरण दिवस है. आज हम सब पर्यावरण बचाने की मुहिम को बल देंगे. लेकिन हम हर दिन नदियों को मार रहे हैं. पेड़ों को काट रहे हैं. तलब को पाट रहे हैं. कुंएं लगभग इतिहास बन चुके हैं. पईन और पोखर शब्द भी जल्द ही लोगों के लिए इतिहास बन जाएगा.

इंसानों की इस करतूत के कारण अब जुगनू की रौशनी, झिंगुर और दादुर की आवाज गायब हो चुके हैं. अब न तो हम इन आवाजों को पहचानते हैं और न हीं हमें सुनाई पड़ती है. सवाल उठता है कि क्या फिर से हम इस लायक धरती को बना पाएंगे कि अंधेरी रात में झिंगुर और दादुर की आवाज गुलजार हो और उससे हम रोमांचित हो सकें.

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