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14 साल में 4 प्रयोग, सब फेल… ममता-अखिलेश का तीसरा मोर्चा कितना असरदार?

2009 से लेकर अब तक 4 बार तीसरा मोर्चा बनाने का प्रयोग देश में हो चुका है. कई बार चुनाव के बाद यह प्रयोग फेल हुआ तो कई बार चुनाव से पहले ही मोर्चा ने दम तोड़ दिया.

पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और टीएमसी सुप्रीम ममता बनर्जी ने देश में तीसरा मोर्चा बनाने की बात कही है. अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा करने वालीं ममता बनर्जी का यह पहला यूटर्न भी है. बनर्जी ने कुछ दिन पहले एक रैली में कहा था कि कांग्रेस और बीजेपी एक ही है, इसलिए हम अलग राह पर चलेंगे.

शुक्रवार को कोलकाता में सीएम आवास पर मीटिंग के बाद अखिलेश यादव ने कहा कि दीदी के साथ मिलकर 2024 में बीजेपी को हराएंगे. तीसरे मोर्चे को मजबूती देने के लिए 23 मार्च को ओडिशा के मुख्यमंत्री और बीजू जनता दल के प्रमुख नवीन पटनायक से ममता बनर्जी मुलाकात करेंगी.

यह नया मोर्चा उस वक्त बनाने का ऐलान हुआ है, जब संसद का बजट सत्र चल रहा है. नया मोर्चा का असर भी दिखने लगा है. लोकसभा में तृणमूल संसदीय दल के नेता सुदीप बंद्दोपाध्याय ने कहा कि बीजेपी चाहती है कि राहुल गांधी विपक्ष का चेहरा बने, जिससे जीत आसानी से मिल सके. बीजेपी कांग्रेस का उपयोग करके संसद को भी चलने नहीं दे रही है. 

बंद्दोपाध्याय ने आगे कहा कि कांग्रेस सभी पार्टियों को बीजेपी की बी टीम बताती है, जबकि खुद बीजेपी की सी टीम है. वक्त पर कांग्रेस फैसला नहीं कर पाती है पर खुद को विपक्ष का बिग बॉस मानती है. देश के कई क्षेत्रीय पार्टियां बीजेपी को हराने का दम रखती है. ममता बनर्जी इन सबको एक मंच पर लाने का काम करेंगी.

5 दलों को साथ लाने की कोशिश, 200 सीटों पर होगा सीधा मुकाबला
ममता बनर्जी की कोशिश उन 6 दलों को साथ लाने की है, जिसने कांग्रेस और बीजेपी दोनों से दूरी बना रखी है. तृणमूल कांग्रेस नया मोर्चा में आम आदमी पार्टी, भारतीय राष्ट्र समिति, बीजू जनता दल, समाजवादी पार्टी और जनता दल सेक्युलर को साथ लाना चाहती है.

तृणमूल कांग्रेस का दबदबा पश्चिम बंगाल के 42 सीटों पर है, जबकि सपा यूपी की सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. भारतीय राष्ट्र समिति तेलंगाना की 17 सीटों पर बीजेपी से सीधा मुकाबला कर सकती है. आप पंजाब और दिल्ली की 20 सीटों पर मजबूत है. वहीं जेडीएस कर्नाटक की 28 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी में है.

अगर ये सभी दल मिलकर एक साथ चुनाव लड़ते हैं तो बीजेपी से लोकसभा की 200 सीटों पर सीधा मुकाबला किया जा सकता है. पिछले चुनाव में इन दलों ने करीब 50 सीटों पर जीत दर्ज की थी. 

बीजेपी के खिलाफ गठबंधन से कांग्रेस को बाहर क्यों किया?
2022 में बीजेपी से गठबंधन तोड़ते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ऐलान किया था कि बिना कांग्रेस के कोई भी गठबंधन बीजेपी के सामने सफल नहीं हो पाएगा. ममता बनर्जी और अखिलेश यादव बीजेपी के खिलाफ मजबूती से लड़ने का दावा करते हैं. इसके बावजूद अपने मोर्चे में कांग्रेस को शामिल नहीं करने का फैसला किया है. आखिर वजह क्या है?

1. सीटों को लेकर कांग्रेस की डिमांड अधिक- उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में कांग्रेस का जनाधार बहुत कम है. इन राज्यों में कांग्रेस के पास सिर्फ 4 सीटें हैं. इसके बावजूद पार्टी की डिमांड काफी ज्यादा है.

सीट बंटवारे के वक्त कांग्रेसी राष्ट्रीय पार्टी होने का तर्क देने लगती है. 2017 में अखिलेश यादव ने गठबंधन में कांग्रेस को ज्यादा सीटें दी थी. बिहार में भी 2020 के चुनाव में राजद से कांग्रेस ने ज्यादा सीटें ले ली थी.

कांग्रेस सीट लेने के बावजूद बढ़िया प्रदर्शन नहीं कर पाती है. बंगाल और यूपी में पार्टी का संगठन बहुत कमजोर है. ऐसे में सपा और तृणमूल कांग्रेस को अपने गठबंधन में नहीं रखना चाहती है.

2. देरी से फैसला लेने का ढर्रा नहीं बदला- कांग्रेस में अध्यक्ष बदले हुए 4 महीने से ज्यादा का वक्त हो चुका है, लेकिन पार्टी में अब तक संगठन का काम पूरा नहीं हो पाया है. बंगाल और यूपी में कई जिलों में अध्यक्ष की नियुक्ति नहीं हो पाई है.

इसके अलावा विपक्षी पार्टियों ने कांग्रेस से गठबंधन को लेकर बातचीत शुरू करने के लिए कहा था, लेकिन कांग्रेस अब तक इसकी पहल नहीं कर पाई है. उल्टे कांग्रेस विपक्षी पार्टियों को बीजेपी की बी टीम बताने में लगी है. 

कांग्रेस के इस रवैए से ममता बनर्जी और अखिलेश यादव काफी नाराज बताए जाते हैं. यही वजह है कि तीसरे मोर्चे की कवायद में कांग्रेस को शामिल नहीं किया गया है.

3. चेहरा को लेकर रार जारी- तृणमूल कांग्रेस और सपा का कहना था कि ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री मोदी के मुकाबले में विपक्ष का चेहरा घोषित किया जाए. तृणमूल कांग्रेस की दलील थी कि ममता बनर्जी को राज्य और केंद्र की राजनीति का खासा अनुभव है.

तृणमूल और अन्य पार्टियां चेहरा घोषित करने की मांग उठा ही रही थी कि कांग्रेस ने राहुल गांधी को चेहरा बता दिया. कांग्रेस के नेता कमलनाथ ने कहा कि राहुल गांधी ही 2024 में प्रधानमंत्री को टक्कर दे पाएंगे. 

कमलनाथ के इस बयान के विपक्षी खेमे में हलचल मच गई. कांग्रेस हाईकमान ने कमलनाथ के बयान का खंडन भी नहीं किया. ऐसे में ममता बनर्जी और सपा जैसी पार्टियां कांग्रेस से अलग मोर्चा बनाने की कोशिश में जुट गई.

14 साल में 4 प्रयोग, लेकिन सब हो गया फेल
हर चुनाव से पहले देश में तीसरा मोर्चा बनाने की हवा शुरू होती है, लेकिन यह ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाता है. 2009 में कांग्रेस से नाराज होकर सीपीएम ने तीसरा मोर्चा बनाया था. यह मोर्चा 1996 के तर्ज पर बनाया गया था, लेकिन मोर्चा कामयाब नहीं हो पाया.

पिछले 14 साल में 4 बार नया मोर्चा बनाने की कवायद हो चुकी है, लेकिन हर बार यह प्रयोग फेल ही साबित हुआ है. 

1. 2009 में सीपीएम,  बीएसपी, सीपीआई, फॉरवर्ड ब्लॉक, तेलगू देशम पार्टी, जनता दल सेक्युलर, टीआरएस, आरएसपी और भजनलाल की पार्टी हरियाणा जनहित ने मिलकर तीसरा मोर्चा का गठन किया था.

9 पार्टियों ने उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक और हरियाणा की 302 सीटों पर उम्मीदवार उतारे. हालांकि, तीसरा मोर्चा को चुनाव में सफलता नहीं मिली. 

तीसरे मोर्चे में शामिल दलों को लोकसभा की कुल 58 सीटों पर ही जीत मिली. सबसे अधिक 21 सीटों पर बसपा जीती, जिसने बाद में यूपीए को बाहर से समर्थन दे दिया. हार के बाद सीपीएम के महासचिव प्रकाश कारात ने गठबंधन में शामिल दलों पर हार का ठीकरा फोड़ दिया.

2. 2014 में फिर से तीसरा मोर्चा बनाने की कवायद शुरू हुई. सीपीएम और एआईएडीएमके ने एक समझौता किया, जिसके बाद कई दलों ने साथ मिलकर लड़ने और फिर साझा सरकार बनाने की घोषणा की. 

ओडिशा और तमिलनाडु को छोड़कर तीसरे मोर्चे में शामिल दल अपने-अपने राज्यों में बुरी तरह हारे. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बना ली. 

तीसरे मोर्चे के कवायद में जुटी एआईएडीएमके बाद में एनडीए के साथ हो गई. बीजद ने अपना रास्ता अलग कर लिया. सीपीएम केरल तक सिमट कर रह गई.

3. 2015 में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के साथ आने के बाद देश भर में फिर से नया मोर्चा बनने की बात शुरू हुई. इस बार नीतीश कुमार ने मोर्चा को महागठबंधन कहा. शुरू में इसका मुखिया सपा के तत्कालीन सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव को बनाया गया.

इस महागठबंधन में जनता पार्टी से निकले नेता एक मंच पर आए. माना जा रहा था कि महागठबंधन बनने से बिहार, यूपी और हरियाणा में बीजेपी को मजबूत प्रतिद्वंदी मिलेगा. इन राज्यों में लोकसभा की कुल 130 सीटें हैं.

मगर, यह मोर्चा कुछ ही दिनों में टूट गया. बिहार चुनाव 2015 में 5 सीट मिलने से नाराज मुलायम सिंह ने महागठबंधन से खुद को अलग कर लिया. मुलायम को मनाने की कोशिश की गई, लेकिन वे नहीं मानें. बाद में कांग्रेस के साथ मिलकर जेडीयू और आरजेडी ने चुनाव लड़ने का फैसला किया.

4. 2019 के चुनाव से पहले तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने मोर्चा बनाने की कवायद शुरू की. केसीआर इसके लिए कई क्षेत्रीय दलों से जाकर मिले. ममता बनर्जी और नवीन पटनायक ने सहमति भी दे दी थी.

सीपीएम और स्टालिन की पार्टी डीएमके ने इसका विरोध कर दिया. स्टालिन का तर्क था कि कांग्रेस के बिना बीजेपी को देश में नहीं हराया जा सकता है. उन्होंने अपील करते हुए कहा कि सभी पार्टियां कांग्रेस के साथ रहे.

सपा ने तीसर मोर्चा को टूटता देख अलग गठबंधन बनाने की घोषणा कर दी. इसमें सपा, बसपा और रालोद को शामिल किया गया. यह गठबंधन यूपी की 78 सीटों पर चुनाव लड़ी. गठबंधन को 15 सीटों पर जीत मिली.

तीसरा मोर्चा बन तो जाएगा पर राह आसान नहीं

1. कांग्रेस से नुकसान को रोक पाने की रणनीति नहीं- यूपी में सपा और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस बीजेपी के मुकाबले में बड़ी पार्टी है. तीसरा मोर्चा बनता है तो बीजेपी को करीब 200 सीटों पर सीधा मुकाबला इन क्षेत्रीय पार्टियों से करना होगा.

लेकिन समस्या इन पार्टियों के सामने कांग्रेस की है. बंगाल, यूपी और तेलंगाना में कांग्रेस का भी थोड़ा बहुत जनाधार है. कई सीटों पर पार्टी ने पिछले चुनाव में बेहतरीन प्रदर्शन किया था. ऐसे में इन सीटों पर तीसरे मोर्चे में शामिल दलों की टेंशन बढ़ सकती है.

2. विश्वसनीयता की कमी, वैचारिक मेल भी नहीं- अखिलेश यादव पिछले 6 सालों में 5 से ज्यादा पार्टियों के साथ गठबंधन कर चुके हैं. इनमें कांग्रेस और बसपा का नाम भी शामिल है. गठबंधन को लेकर इन पार्टियों के भीतर विश्वसनीयता की कमी है.

राहुल गांधी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि क्षेत्रीय पार्टियों के पास बीजेपी को हराने के लिए अपनी कोई विचारधारा नहीं है. ममता बनर्जी 1998-2004 में बीजेपी के साथ गठबंधन में रह चुकी हैं.

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