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भारत के किस राज्य में फाइलेरिया के सबसे ज्यादा मरीज, किस वजह से होती है यह बीमारी और कितनी खतरनाक?

फाइलेरिया एक परजीवी रोग है, जो फाइलेरियोइडिया नामक नन्हे धागे जैसे कीड़ों (निमेटोड) के कारण होता है. ये कीड़े मच्छरों के काटने से इंसानों के शरीर में एंट्री करते हैं.

मेडिकल फील्ड में भारत लगातार कामयाबी हासिल कर रहा है, लेकिन एक बीमारी ऐसी भी है, जिससे देश के लाखों लोग प्रभावित हैं. मच्छरों के काटने से फैलने वाली इस बीमारी से शरीर में बेतहाशा सूजन आ जाती है. खासतौर पर हाथ-पैरों और जननांगों में ज्यादा सूजन आती है, जिसके चलते इस बीमारी को आम भाषा में हाथीपांव भी कहते हैं. भारत के किस राज्य में इस बीमारी के सबसे ज्यादा मरीज हैं और यह बीमारी कितनी खतरनाक है, जानते हैं इस रिपोर्ट में?

इन इलाकों में सबसे ज्यादा होती है यह बीमारी

भारत के उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में फाइलेरिया के मरीज काफी ज्यादा मिलते हैं, क्योंकि गर्म और आर्द्र जलवायु मच्छरों के पनपने के लिए अनुकूल होती है. स्वास्थ्य मंत्रालय और विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के आंकड़ों के मुताबिक, भारत के उत्तर प्रदेश में फाइलेरिया के सबसे ज्यादा मरीज हैं. उत्तर प्रदेश के ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों में इस बीमारी से काफी लोग प्रभावित होते हैं. वहीं, बिहार, झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य भी फाइलेरिया से बुरी तरह प्रभावित हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के 20 राज्यों के 250 से ज्यादा जिलों में यह बीमारी मौजूद है, जिनमें उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, आजमगढ़ और वाराणसी जैसे जिले सबसे ज्यादा प्रभावित हैं. वहीं, बिहार के भागलपुर में हुए नाइट ब्लड सर्वे (21-26 नवंबर) में 10264 सैंपलों में से 2.07% में फाइलेरिया के परजीवी पाए गए.

क्यों होता है फाइलेरिया?

फाइलेरिया एक परजीवी रोग है, जो फाइलेरियोइडिया नामक नन्हे धागे जैसे कीड़ों (निमेटोड) के कारण होता है. ये कीड़े मच्छरों के काटने से इंसानों के शरीर में एंट्री करते हैं. खास तौर पर क्यूलेक्स, एनोफिलीज और एडीज प्रजाति के मच्छर की वजह से यह बीमारी होती है. ये परजीवी मुख्य रूप से तीन तरह वुचरेरिया बैनक्रॉफ्टी, ब्रूगिया मलायी और ब्रूगिया टिमोरी के होते हैं. इनमें वुचरेरिया बैनक्रॉफ्टी सबसे कॉमन है. जब मच्छर किसी इंसान को काटता है तो ये परजीवी खून में प्रवेश कर लिम्फैटिक सिस्टम (लसीका तंत्र) को नुकसान पहुंचाते हैं. यह प्रक्रिया धीरे-धीरे होती है और कई बार लक्षण कई साल बाद दिखाई देते हैं. इसके अलावा गंदे पानी के ठहराव, गंदगी और मच्छरों के प्रजनन के लिए अनुकूल परिस्थितियों से यह बीमारी तेजी से फैलती है.

कितना खतरनाक होता है फाइलेरिया?

फाइलेरिया को उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोग (Neglected Tropical Disease) की कैटिगरी में रखा गया है, क्योंकि यह गरीब और कम विकसित क्षेत्रों में ज्यादा फैलता है. आइए जानते हैं कि यह बीमारी कितनी खतरनाक है. 

  • शरीर पर असर: फाइलेरिया का सबसे गंभीर रूप एलिफेंटियासिस है, जिसमें हाथ, पैर, स्तन, या जननांगों में असामान्य रूप से सूजन आ जाती है. यह सूजन स्थायी विकलांगता का कारण बन सकती है. पुरुषों में हाइड्रोसील (अंडकोष में सूजन) और महिलाओं में स्तनों में सूजन बेहद कॉमन है. इससे स्किन मोटी और खुरदरी हो जाती है, जिससे बैक्टीरियल इंफेक्शन का खतरा बढ़ जाता है.
  • मेंटल और सोशल इम्पैक्ट: इस बीमारी के कारण मरीजों को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है. विकृत अंगों के कारण लोग उन्हें पसंद नहीं करते हैं, जिससे मरीज मानसिक तौर पर टूट जाते हैं. 
  • आर्थिक बोझ: फाइलेरिया के इलाज और मैनेजमेंट काफी वक्त और पैसा लगता है. क्रॉनिक मरीजों को बार-बार अस्पताल जाना पड़ता है, जिससे परिवार की आर्थिक स्थिति पर असर पड़ता है.
  • इम्यून सिस्टम पर असर: यह बीमारी इम्यून सिस्टम को कमजोर करती है, जिससे मरीजों में अन्य इंफेक्शन का खतरा बढ़ जाता है.

क्या कहते हैं डॉक्टर?

फाइलेरिया को खत्म करने और इसके इलाज के लिए कई नई रिसर्च हो चुकी हैं. डब्ल्यूएचओ और भारत सरकार के ग्लोबल प्रोग्राम टू एलिमिनेट लिम्फैटिक फाइलेरियासिस (GPELF) के तहत बड़े पैमाने पर दवा वितरण (Mass Drug Administration - MDA) अभियान चलाए जा रहे हैं. इसके तहत डायथाइलकार्बामाजिन (DEC), एल्बेंडाजोल और मेक्टिजन जैसी दवाएं दी जाती हैं, जो परजीवियों को मारने में कारगर होती हैं. पटना के डॉ. आशुतोष रंजन बताते हैं कि फाइलेरिया का इलाज अगर शुरुआती दौर में हो जाए तो मरीज को स्थायी विकलांगता से बचाया जा सकता है. वहीं, गंभीर मामलों में सर्जरी ही एकमात्र ऑप्शन है. उन्होंने बताया कि नई रिसर्च में मैक्रोफाइलेरिसाइड दवाओं पर काम हो रहा है, जो वयस्क परजीवियों को मार सकती हैं. फिलहाल मौजूद दवाएं सिर्फ माइक्रोफाइलेरिया (बच्चे कीड़े) को नष्ट करती हैं, लेकिन वयस्क कीड़े कई साल तक जीवित रहते हैं. 

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Disclaimer: खबर में दी गई कुछ जानकारी मीडिया रिपोर्ट्स पर आधारित है. आप किसी भी सुझाव को अमल में लाने से पहले संबंधित विशेषज्ञ से सलाह जरूर लें.

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About the author सोनम

जर्नलिज्म की दुनिया में करीब 15 साल बिता चुकीं सोनम की अपनी अलग पहचान है. वह खुद ट्रैवल की शौकीन हैं और यही वजह है कि अपने पाठकों को नई-नई जगहों से रूबरू कराने का माद्दा रखती हैं. लाइफस्टाइल और हेल्थ जैसी बीट्स में उन्होंने अपनी लेखनी से न केवल रीडर्स का ध्यान खींचा है, बल्कि अपनी विश्वसनीय जगह भी कायम की है. उनकी लेखन शैली में गहराई, संवेदनशीलता और प्रामाणिकता का अनूठा कॉम्बिनेशन नजर आता है, जिससे रीडर्स को नई-नई जानकारी मिलती हैं. 

लखनऊ यूनिवर्सिटी से जर्नलिज्म में ग्रैजुएशन रहने वाली सोनम ने अपने पत्रकारिता के सफर की शुरुआत भी नवाबों के इसी शहर से की. अमर उजाला में उन्होंने बतौर इंटर्न अपना करियर शुरू किया. इसके बाद दैनिक जागरण के आईनेक्स्ट में भी उन्होंने काफी वक्त तक काम किया. फिलहाल, वह एबीपी लाइव वेबसाइट में लाइफस्टाइल डेस्क पर बतौर कंटेंट राइटर काम कर रही हैं.

ट्रैवल उनका इंटरेस्ट  एरिया है, जिसके चलते वह न केवल लोकप्रिय टूरिस्ट प्लेसेज के अनछुए पहलुओं से रीडर्स को रूबरू कराती हैं, बल्कि ऑफबीट डेस्टिनेशन्स के बारे में भी जानकारी देती हैं. हेल्थ बीट पर उनके लेख वैज्ञानिक तथ्यों और सामान्य पाठकों की समझ के बीच बैलेंस बनाते हैं. सोशल मीडिया पर भी सोनम काफी एक्टिव रहती हैं और अपने आर्टिकल और ट्रैवल एक्सपीरियंस शेयर करती रहती हैं.

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