(Source: ECI | ABP NEWS)
आचार्य चाणक्य कितने बच्चों के थे गुरु, कैसे तय होती थी उनकी कमाई?
Teachers Day 2025: आचार्य चाणक्य तक्षशिला विश्वविद्यालय में गुरु थे और उनके शिष्यों में सबसे प्रसिद्ध चंद्रगुप्त मौर्य रहे. चलिए जानें कि उस दौर में उनकी कमाई किन चीजों पर आधारित थी.

Teachers Day 2025: शिक्षक हमारे जीवन में महत्वपूर्णं भूमिका निभाते हैं. माता-पिता तो हमें जीवन देते हैं, लेकिन शिक्षक सही मार्ग दिखाने का काम करते हैं. वे हमें न सिर्फ किताबी ज्ञान देते हैं, बल्कि अनुशासन, संस्कार और चरित्र निर्माण के बारे में भी बताते हैं. यही सब वजहें हैं कि लोग शिक्षकों को भगवान से भी ऊपर का दर्जा देते हैं. हमारे देश में हर साल 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है. इस दिन बच्चे अपने शिक्षकों को उपहार आदि देते हैं. पुराने समय की बात करें तो उस वक्त चाणक्य भी गुरु हुआ करते थे और वे अपने छात्रों को शिक्षित करते थे. चलिए जानें कि उनकी कमाई आदि कैसे तय होती थी.
कितने बच्चों के थे गुरु चाणक्य?
चाणक्य चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में तक्षशिला विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे. ऐतिहासिक स्रोतों की मानें तो तक्षशिला उस समय दुनिया का सबसे बड़ा शिक्षा केंद्र था, जहां भारत सहित कई देशों से विद्यार्थी पढ़ने आते थे. यहां हजारों छात्र विभिन्न विषयों जैसे राजनीति, युद्धकला, दर्शन, चिकित्सा और अर्थशास्त्र की शिक्षा प्राप्त करते थे.
चाणक्य का विशेष विषय अर्थशास्त्र और राजनीति था. हालांकि सटीक संख्या उपलब्ध नहीं है कि उनके शिष्य कितने थे, लेकिन माना जाता है कि उनके शिष्यों की संख्या सैकड़ों में रही होगी. उन्हीं में से एक सबसे प्रसिद्ध शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य थे, जिन्हें चाणक्य ने शिक्षा देकर और रणनीति से मगध का सम्राट बनाया था.
गुरुओं की कमाई कैसे तय होती थी?
उस दौर में शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह गुरुकुल और विश्वविद्यालय पद्धति पर आधारित थी. शिक्षक या आचार्य की कमाई आज की तरह निश्चित वेतन पर नहीं होती थी. उस वक्त गुरुदक्षिणा प्रणाली थी. विद्यार्थी अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद आचार्य को अपनी क्षमता और श्रद्धा के अनुसार गुरुदक्षिणा देते थे. यह धन, वस्त्र, पशु, भूमि या कोई विशेष सेवा भी हो सकती थी.
गुरुओं को राजकीय सम्मान और सहायता भी मिलती थी. चाणक्य जैसे विद्वान आचार्य राजाओं के दरबार में भी सम्मानित थे. उन्हें कई बार राज्य की ओर से भूमि या धन दिया जाता था ताकि वे शिक्षा को आगे बढ़ा सकें. उस दौर में समाज भी गुरुकुल और विश्वविद्यालयों को दान देता था. व्यापारी, किसान और आम लोग शिक्षा के महत्व को समझते थे और अपनी सामर्थ्य के अनुसार योगदान करते थे.
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