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पोखरण की कामयाबी के पीछे था भारतीय प्याज, वैज्ञानिकों ने बताया इसके पीछे का असली राज
भारत ने पोखरण में जिस परमाणु परीक्षण को अंजाम दिया था, उसका नाम उन्होंने व्हाइट हाउस रखा था. सबसे बड़ी बात कि ये परमाणु बम 58 किलो टन की क्षमता वाला बम था.
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भारतीय लोग जुगाड़ और विज्ञान पर बहुत भरोसा करते हैं. यही वजह है कि जिस काम के लिए विदेश में लोग हजारों करोड़ खर्च कर दिए जाते हैं, उसे भारतीय लोग कुछ रुपयों में करने की कोशिश करते हैं. आज हम आपको जो कहानी बताने वाले हैं, उसमें भी एक जुगाड़ और उससे जुड़ा विज्ञान ही है. चलिए आपको बताते हैं कि आखिर पोखरण परमाणु परीक्षण में प्याज का जुगाड़ किस काम आया था और अगर ये जुगाड़ ना अपनाया जाता तो क्या हो जाता.
पोखरण में प्याज की कहानी
साल था 1998 का, अमेरिका की तमाम चेतावनियों के बाद भी केंद्र की अटल बिहारी सरकार ने फैसला किया वो पोखरण में परमाणु परीक्षण करेंगे. इसके लिए तारीख चुनी गई 11 मई कि. 11 मई का दिन जैसे जैसे नजदीक पहुंच रहा था, परमाणु परीक्षण की साइट पर मौजूद लोगों में एक बात को लेकर हैरानी भी बढ़ रही थी. ये हैरानी थी, परीक्षण साइट पर लाए जा रहे कई टन प्याज को लेकर. वहां काम करने वाले छोटे मजदूरों को कुछ समझ नहीं आ रहा था, ना ही प्याज सप्लायर को कि वहां इतने प्याज से क्या किया जाएगा. हालांकि, अभियान में मुख्य भूमिका निभाने वाले वैज्ञानिक अनिल काकोडकर और वरिष्ठ वैज्ञानिकों को पता था कि आखिर इस प्याज में इतना खास क्या है और परमाणु परीक्षण में इसका इतना महत्व क्यों है.
प्याज के साथ क्या किया गया था
भारत ने पोखरण में जिस परमाणु परीक्षण को अंजाम दिया था, उसका नाम उन्होंने व्हाइट हाउस रखा था. सबसे बड़ी बात कि ये परमाणु बम 58 किलो टन की क्षमता वाला बम था. यानी अगर इसमें जरा सी भी चूक होती तो इसका असर ना सिर्फ पूरे राजस्थान बल्कि अन्य राज्यों तक भी पहुंचता. अब आती है प्याज की बारी. दरअसल, जब परमाणु वस्फोट होता है तो उसमें से अल्फा, बीटा, गामा किरणें निकलती हैं जो बहुत घातक होती हैं. ये इतनी घातक होती हैं कि इंसान के शरीर में अगर पहुंच जाएं तो उसके ब्लड टिशू को भी नष्ट कर सकती हैं.
प्याज इन्हीं घातक किरणों को रोकने के लिए मंगाया गया था. दरअसल, जहां ये विस्फोट होना था, विस्फोट से पहले कई टन कच्चा प्याज इस जगह दबा दिया गया, ताकि विस्फोट के बाद इन रेज को इसी प्याज द्वारा अवशोषित कर लिया जाए और ये बहुत दूर तक अपना असर ना दिखा पाएं. इस बात को एक इंटरव्यू में खुद वैज्ञानिक अनिल काकोडकर ने स्वीकार किया है.
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