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Exclusive: फिल्म के लिए प्रोडक्शन डिजायनर बन ऐसे कमाएं हर महीने लाखों, करना होगा बस इतना सा काम

Exclusive: फिल्मों में एक्टिंग या सिंगिंग ही करियर ऑप्शन नहीं होता है. यहां आज भी कई ऐसी अछूती चीजें रह गई हैं जिनसे जुड़कर आप लाखों-करोड़ों कमा सकते हैं.

Heeramandi Production Designer Subrata Chakraborty Interview: किसी फिल्म या सीरीज को सुंदर बनाने के आर्ट को प्रोडक्शन डिजायनिंग कहते हैं. और इस काम को करने वालों का प्रोडक्शन डिजायनर कहते हैं. इनकी खास बात ये होती है कि ये न दिखने वाले वो हीरो हैं, जो पर्दे के पीछे रहकर भी अपना हीरोइज्म दिखा जाते हैं. अगर ये नहीं हों तो फिल्मों और थिएटर के बीच का फर्क ही खत्म हो जाए. 

सोचिए जरा 1920 का हीरामंडी कैसा रहा होगा. ये आपको 'हीरामंडी' सीरीज देखते समय महसूस हुआ होगा. ये महसूस कराने का काम ही प्रोडक्शन डिजायनर के जिम्मे होता है. वो फिल्म या सीरीज में सेट के जरिए उस समय को दिखा पाने में पारंगत होते हैं, जैसा कि कोई समय रहा होगा. 

'हीरामंडी' में आलीशन हवेलियों के अंदर लगे बड़े-बड़े झूमरों के नीचे खड़ी तवायफें अगर आपको उस दुनिया में ले जा पाने में कामयाब हो पाई हैं, तो ये कामयाबी प्रोडक्शन डिजायनिंग और प्रोडक्शन डिजायनर की वजह से ही मिल पाई है.

'गंगूबाई काठियावाड़ी' के घुटनभरे कमरों से लेकर 'पद्मावत' के बड़े-बड़े किलों का राजसी ठाठ-बाट आपको जोड़ पाया तो ये काम भी प्रोडक्शन डिजायनर का ही था. यही चीज इन डिजायनर्स को हीरो बनाती है. जो चुपचाप अपना काम करते रहते हैं.


Exclusive: फिल्म के लिए प्रोडक्शन डिजायनर बन ऐसे कमाएं हर महीने लाखों, करना होगा बस इतना सा काम

बॉलीवुड में करियर बनाना बहुत से लोगों का सपना होता है. ज्यादातर लोगों का सपना होता है कि उनकी फिल्मी दुनिया में एंट्री किसी स्टार की तरह हो. वो सिंगिंग से लेकर एक्टिंग तक में अपनी किस्मत आजमाना चाहते हैं. इसमें कुछ गलत भी नहीं है, लेकिन करियर के लिहाज से फिल्मी दुनिया में कई ऐसी जगहें भी हैं जो अछूती रह गई हैं.

इसकी वजह ये है कि इन बॉलीवुड की इन अलग-अलग फील्ड्स के बारे में लोगों को पता नहीं होता. ऐसे में हमारी बात बॉलीवुड इंडस्ट्री में काम करने वाले एक ऐसे शख्स से हुई जो पर्दे के पीछे रहकर अपनी जादूगरी से फिल्मों के लिए जरूरी काम करते हैं. उनका काम फिल्मों को ओरिजनल टच देना है.

हाल में ही आई 'हीरामंडी' वेबसीरीज तो आपने देखी ही होगी. इस फिल्म में अलग-अलग एक्ट्रेसेस की एक्टिंग की तारीफ के अलावा, एक और चीज की तारीफ हुई. और वो है फिल्म के सेट की तारीफ. फिल्म का सेट बेहद ग्रांड और बेहतरीन था. 

हमने इस सीरीज के लिए सेट डिजायन करने वाले सुब्रत चक्रवर्ती से बात की. उन्होंने हमें न सिर्फ उनके काम से जुड़ी बातें बताईं, बल्कि ये भी बताया कि जिस फील्ड यानी प्रोडक्शन डिजायनिंग में वो काम कर रहे हैं. वो युवाओं के लिए कैसे एक बेहतर करियर अपॉर्चुनिटी है. तो चलिए जानते हैं क्या-क्या सीक्रेट बता गए सुब्रत चक्रवर्ती.

सवाल: देश भर से लाखों युवा फिल्मों में करियर बनाना चाहते हैं. उनमें से ज्यादातर एक्टिंग को ही प्राथमिकता देते हैं. उनके सपने भी किसी स्टार बनने के होते हैं. लेकिन आप प्रोडक्शन डिजायनिंग से जुड़े हुए हैं. जो फिल्मों से जुड़ी फील्ड तो है, लेकिन इसका एक्टिंग से कोई लेना-देना नहीं है. तो करियर के लिहाज से इस फील्ड में कैसी संभावनाएं हैं.

जवाब: ये सवाल इंट्रेस्टिंग है और इसका जवाब भी. मैं आपको बताऊं तो इस फील्ड में बहुत संभावनाएं हैं. मैं एक बहुत छोटे से शहर से हूं. मेरे घर वाले भी चाहते थे कि मैं डॉक्टर या इंजीनियर बन जाऊं. लेकिन अगर आप इस फील्ड में आते हो. वो चाहे प्रोडक्शन डिजायनिंग हो या डीओपी से रिलेटेड काम हो, तो शायद आपके पास मुंबई में 3 बीएचके के 3 फ्लैट हों. ऐसा बहुत अच्छे पैसे बनाने वाले करियर में भी कई बार पॉसिबल नहीं होता है.

सुब्रत कहते हैं - 'छोटे शहर से आने पर लोगों का सबसे पहला सवाल यही होता है कि कितना कमा लेते हैं. तो ऐसे में मेरा जवाब ये होता है कि आपने शायद उतना सोचा भी न हो जितनी अर्निंग यहां हो सकती है. अगर आप ईमानदारी से काम करते हैं तो प्रोडक्शन हाउस आपका पैसा बढ़ाता है.' ये बिल्कुल वैसा ही है जैसे आप किसी जॉब में प्रमोशन पाते हैं. 


Exclusive: फिल्म के लिए प्रोडक्शन डिजायनर बन ऐसे कमाएं हर महीने लाखों, करना होगा बस इतना सा काम

सवाल: अगर कोई इस फील्ड में करियर बनाना चाहता है, तो किन इंस्टीट्यूट्स में इस कोर्स को कर सकते हैं.

जवाब: देखिए अगर आप कॉलेज की बात करें तो पुणे का एफटीआईआई को उदाहरण के तौर पर ले सकते हैं. इसके अलावा हमारे देश में बहुत से ऐसे कॉलेज हैं जहां पर आप इसकी पढ़ाई कर सकते हैं और सेट डिजायनर या प्रोडक्शन डिजायनर के तौर पर अपना करियर बना सकते हैं.

सवाल: इन कोर्सेज को करने का खर्च क्या आता है?

जवाब: देखिए मैं अपनी बात करूं तो जब मैं यहां (मुंबई) आया तो मैं जीरो रुपये के साथ आया था. मैंने अपने खर्च निकालने के लिए छोटी-मोटी जॉब्स कीं और मैंने इस फील्ड में अपना करियर भी बना लिया. तो सच बताऊं कि अगर आपमें इच्छा है तो मुझे नहीं लगता कि पैसा इस कोर्स को न करने की वजह बन सकता है. हां जाहिर तौर पर कोर्स की फीस होती है, तो जो करना चाहते हैं और इस फील्ड में आना चाहते हैं तो उन्हें संबंधित इंस्टीट्यूट की वेबसाइट्स में ये जानकारी जरूर मिल जाएगी.

सवाल: जब हम कोई फिल्म देखते हैं, मान लीजिए किसी ऐसी ही फिल्म का नाम लेते हैं जिससे आप जुड़े रहे हों, जैसे कि हैदर, गंगूबाई काठियावाड़ी, पद्मावत या फिर हाल में आई वेबसीरीज हीरामंडी. तो दर्शक सबसे पहले तो उस फिल्म से जुड़े बड़े स्टार्स की बात करता है, या फिर डायरेक्टर की. जबकि इन सबमें एक अहम काम आप लोगों का भी होता है, लोगों को आपकी मेहनत की वजह से फिल्म अच्छी तो लगती है लेकिन आप लोग पर्दे के पीछे रहकर काम करने वाले लोग हैं. दर्शक आपको नहीं जानते, जिससे आपको फेम नहीं मिल पाता. तो उसका कहीं न कहीं मलाल रह जाता है आपको?

जवाब: नहीं, मैं इस बात पर आपसे सहमत नहीं हूं. आप देखिए हम टेक्नीशियन्स हैं और आर्टिस्ट्स लोगों से हमारा कोई कंपटीशन भी नहीं है, क्योंकि हमारा काम अलग है. उदाहरण के लिए आप जब थिएटर देखते हैं तो सब कुछ ओरिजनल नहीं लगता, लेकिन जब फिल्म देखते हैं तो झूठ भी सच लगता है. तो जब हम ये करके दर्शकों को फिल्म से बांध पाते हैं, तो हमारे लिए वही बड़ी बात है. और हमारा दर्शकों से डायरेक्ट कोई कनेक्शन भी नहीं होता, हमें जो फेम मिलता है वो हमें इंडस्ट्री के अंदर मिलता है.

प्रोडक्शन से जुड़े 5 अहम लोगों के बारे में भी सुब्रत ने बताया. उन्होंने कहा इनमें से सबसे पहले हमारे कैप्टन, फिर डीओपी, कैमरामैन और फिर प्रोडक्शन डिजायनर और कॉस्ट्यूम डिजायनर के अलावा बहुत से ऐसे लोग होते हैं जो किसी भी प्रोजेक्ट को बनाने में अहम होते हैं.


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प्रोडक्शन डिजायनिंग में करियर बनाने की अगर सोच रहे हैं तो ये भी जान लेते हैं कि ये कैसे काम करते हैं

रिसर्च: प्रोडक्शन डिजायनिंग का काम सिर्फ सेट बनाना नहीं, बल्कि डायरेक्टर जिस कहानी को पेश करना चाहता है उसे बिल्कुल उसी तरह पर्दे पर उतारने का भी होता है. इसके लिए क्रिएटिव होने की जरूरत होती है. इसमें रिसर्च एक जरूरी हिस्सा होता है. जैसे कौन से समय पर कहानी सेट है, और उस समय घर या सड़कें कैसी होती होंगी? कैरेक्टर कैसा है और लोकेशन क्या होगी? इन सबमें जितना अच्छा रिसर्च उतनी ही अच्छी प्रोडक्शन डिजायनिंग.

सेट बनाने वालों की पूरी टीम इकट्ठा करना: सेट बनाने से पहले उसके लिए जरूरी चीजें और उसे बनाने वाला पूरा क्रू इकट्ठा करने की जिम्मेदारी भी प्रोडक्शन डिजायनर की ही होती है.

हमसे बातचीत में सुब्रत ने ये बताया भी कि उनके पास करीब 1000 लोगों की टीम है जिन्हें वो रोजगार देते हैं. इस लिहाज से भी ये एक अच्छा करियर ऑप्शन है क्योंकि इस फील्ड में आप न सिर्फ खुद का करियर बना पाएंगे बल्कि हजारों लोगों के रोजगार की वजह भी बन सकते हैं.

सिर्फ सेट बनाना ही नहीं होता काम: प्रोडक्शन डिजायनिंग में सिर्फ सेट बनाने के बाद काम नहीं खत्म हो जाता. 'गंगूबाई' जिस कुर्सी में बैठेगी और 'आलमजेब' जिस गमले के पास खड़े होकर डायलॉग बोलेगी, वो कुर्सी और गमला भी सेट करने का काम प्रोडक्शन डिजायनर का होता है.

प्रॉप का जरूरी इस्तेमाल: सेट में अगर किचन बनाया जाएगा तो कौन सा कुकर और खाने की फल वाली प्लेट कहां रखी जाएगी, ये सब काम भी प्रोडक्शन डिजायनर का होता है. कमरे की सजावट में मूर्ति के इस्तेमाल से लेकर एसी की जगह तय करना भी प्रोडक्शन डिजायनिंग के अंदर आता है.

प्रीप्रोडक्शन के बाद भी जरूरी काम निपटाते हैं प्रोडक्शन डिजायनर: प्रीप्रोडक्शन के दौरान यानी शूटिंग शुरू होने से पहले सेट डिजायन करने के बाद भी प्रोडक्शन डिजायनर उस प्रोजेक्ट से जुड़े रहते हैं. अगर शूटिंग के दौरान डायरेक्टर को किसी बदलाव की जरूरत लगती है तो ये काम भी प्रोडक्शन डिजायनर निपटाते हैं.

क्यों जरूरी है प्रोडक्शन डिजायनिंग?
प्रोडक्शन डिजायनिंग क्यों जरूरी है ये अहम सवाल है. तो इसका जवाब ये है कि इसकी वजह से ही कोई एक्टर अपने एक्ट को ज्यादा प्रामाणिक तरीके से कर पाता है. अगर 'पद्मावत' के अलाउद्दीन खिलजी के पास तलवार और किला नहीं होता तो क्या वो अलाउद्दीन लगता? या फिर गंगूबाई किसी आम से मोहल्ले में रह रही होती तो क्या वो तवायफों के दर्द को उस तरह से पेश कर पाती जैसा फिल्म में दिखा? इसीलिए प्रोडक्शन डिजायनिंग का काम अहम हो जाता है.

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सर्वजीत सिंह चौहान ABP News की एंटरटेनमेंट टीम का हिस्सा हैं. उन्हें भारतीय सिनेमा और वर्ल्ड सिनेमा के अलावा मनोरंजन जगत पर अलग नजरिए से खबरें देते हैं. क्विंट हिंदी, नेटवर्क 18 में काम कर चुके हैं. 
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