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दिल्ली दंगों का दर्द रहा बेमरहम, पीड़ितों को नयी सरकार से हैं उम्मीदें

कुछ तस्वीरें जीवन भर खौफ का प्रतीक बने रहते हैं और कुछ घटनाएं रातों को सोने नहीं देती. देश की धड़कन राजधानी दिल्ली में 23 से 25 फरवरी 2020 को हुए दंगों ने खौफ और सबक की ऐसी इबारतें लिखी हैं जो भुलाये नहीं भूले जाएंगे. कानून और सामाजिक सौहार्दयता को ठेंगा दिखाती दंगाई शाहरुख पठान की पुलिस पर ताने हुए बंदूक की तस्वीर ने भले उसे खास विचारधारा के लोगों के बीच पोस्टर बॉय बना दिया हो मगर कानून ने पांच साल बाद भी उसे जमानत तक देना सही नहीं समझा है.

दिल्ली दंगे और राजनीति

ये अलग बात है कि असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने हालिया दिल्ली विधानसभा चुनाव में शाहरुख को टिकट देने को लेकर चर्चा खूब बटोरा. पार्टी भले शाहरुख पठान को टिकट ना दे पाई हो, मगर उसके मंसूबे दिल्ली के दंगों के ही आरोपी तत्कालीन आप पार्षद ताहिर हुसैन को टिकट देकर जरूर साफ हो गए. ये अलग बात है कि दंगा पीड़ित क्षेत्र मुस्तफाबाद से ही विधायकी का चुनाव लड़ने वाले ताहिर चुनाव हार गए और दिल्ली दंगों के ही आरोपी शिफ़ा उर रहमान जिनको ओवैसी की पार्टी ने ही ओखला सी चुनाब लड़ाया था, चुनावी नतीजे में मुंह के बल गिरे.


दिल्ली दंगों का दर्द रहा बेमरहम, पीड़ितों को नयी सरकार से हैं उम्मीदें

वैसे तो किसी भी जातीय हिंसा या मजहबी उन्माद में उपजे दंगों की जड़ें बहुत पहले से धीरे-धीरे जड़ें जमाती रहती है जो अचानक किसी ट्रिगरिंग फैक्टर पर बरगद की तरह पांव पसार विकराल रूप ले लेती है. नागरिकता कानून में आए संशोधन अर्थात सीएए के खिलाफ चल रहे धरना-प्रदर्शन ने कब अपने आप में विषबेल बो दी, जिसने तीन दशकों में सबसे बड़ा दंगा दिल्ली के नाम कर दिया, इसका पता भी नहीं चला.

22 फरवरी को जाफराबाद मेट्रो स्टेशन पर मुख्य रूप से मुस्लिम महिलाओं का प्रदर्शन चल रहा था. उसी दिन 3 बजे के आस-पास पुलिस को सूचना मिली कि मौजपुर में हजारों लोगों की भीड़ जमा है जो उस रास्ते को खाली करवाने की मांग पर अड़े हैं. दोनों गुटों के बीच में पत्थर बाजी शुरू हो जाती है और धीर-धीरे पूरा इलाका दंगे की चपेट में आ गया.

इस दंगे का दूसरा लक्ष्य भारत की छवि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर खराब करने का भी था. विशेष लोक अभियोजक अमित प्रसाद ने  दालत में दलील दी थी कि यह दंगा उस वक्त के अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के भारत दौरे के वक्त हिंसा पैदा करने की साजिश का हिस्सा था. सुनवाई के दौरान कोर्ट ने यहां तक कहा था कि ‘हिंदू समुदाय की संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के उदेश्य के साथ वबाल काटा गया था.‘

पांच साल बाद भी उत्तर पूर्व दिली दंगों के पीड़ित इंसाफ खोज रहे हैं. 13 हिंदुओं और 40  मुसलमानों की मौतें आज भी दहशत की कहानियां कह रहे. नागरिकता कानून में हुए संशोधन के विरोध में शाहीन बाग से शुरू हुआ विरोध उत्तर पूर्वी दिल्‍ली के उस छोर तक जा पहुंचा, जहां दो समुदायों के बीच में गाहे-बगाहे तनाव का माहौल दिखता रहा.

दिल्ली पुलिस की दंगों में नाकामी

दिल्ली पुलिस ने ताहिर हुसैन के घर जामा किए हुए पत्थर, पेट्रोल बम, डंडे जैसे दंगाई हथियार बरामद किए थे. किसी संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का मजहब के नाम पर उन्माद फैलाना बहुत ही भयावह चित्र उकेरता है. हालांकि, ताहिर ने यह कहा था कि दंगाइयों ने उनके घर पर कब्जा कर लिया था. ताहिर हुसैन को चुनाव प्रचार के लिए 6 दिन की कस्टोडीअल जमानत देते वक़्त भी माननीय कोर्ट ने कहा था कि ऐसी व्यवस्थाएं बनें जिससे ताहिर जैसे लोग चुनाव ना  लड़ सकें. उन पर आईबी कर्मचारी अंकित शर्मा की हत्या समेत कई मामले दर्ज हैं. अंकित शर्मा की लाश 26 फ़रवरी को ताहिर हुसैन के घर के पास के एक नाले से मिली थी.

चुनावी हलफ़नामे के मुताबिक़ ताहिर के ख़िलाफ़ दिल्ली पुलिस की 10 और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की 1 एफ़आईआर दर्ज है. अब ये तो समझ के परे है कि ऐसे लोगों का चुनाव लड़ना संविधान की खूबसूरती है या नहीं मगर ऐसे लोगों का लोक प्रतिनिधि बनना खतरे की घंटी ही है. जेएनयू का पूर्व छात्र, टुकड़े टुकड़े गैंग की सरपरस्ती में अपने राजनीति का ककहरा सीखने वाला तथाकथित छत्र नेता उमर खालिद भी दिल्ली दंगे के मुख्य आरोपी के रूप में जेल में है.

दंगापीड़ितों को अब भी राहत का इंतजार

पुलिस ने दंगों से जुड़े कुल  758 एफ़आईआर दर्ज़ किए थे और पुलिस ने लगभग  दो हज़ार से ज़्यादा लोगों को गिरफ़्तार किया था. इन पांच सालों में लगभग 80% केसों में अभियुक्त बरी हो गए हैं या चार्ज शीट दाखिल करने के बाद कोर्ट को आरोप तय करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं मिले तो डिस्चार्ज कर दिए गए. न्यायालय के लगभग 126 निर्णयों में 20 मामलों में आरोपी दोषी सिद्ध हुए और इनमें भी 12 केसों में अभियुक्तों ने अपने गुनाह कबूल किए.

अप्रैल 2024 में पुलिस ने कोर्ट के सामने एक 'स्टेटस रिपोर्ट' दाख़िल की थी. पुलिस ने इस रिपोर्ट में बताया था कि क़रीब 38% (289) केसों में उस समय तक तहक़ीक़ात चल रही थी. क़रीब 39% (296) में तहक़ीक़ात पूरी होने के बाद कोर्ट में मुकदमा चल रहा था और बचे 23% (173) केस में या तो फ़ैसला आ गया था या उन्हें खारिज कर दिया गया था. 

758 में से 62 मामले हत्या के थे और इनकी जांच दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच कर रही है. एक आरटीआई के मुताबिक इनमें से सिर्फ एक केस में आरोपी को दोषी ठहराया गया है. 15 में जांच चल रही और 39 केसों में मामले न्यायालय में चल रहे और चार में लोग बरी हो गए हैं. लगभग 20 लोगों पर यूएपीए लगा है जिन पर दिल्ली दंगों की साजिश का आरोप है.

इतने बड़ी संख्या में लोगों की मौत, गिरफ़्तारी और मुकदमें! मगर इंसाफ कहां है? दिल्ली ने ही 1984 का सिक्ख दंगा भी देखा था जिसमें कांग्रेस के एक समय के बड़े नेता सज्जन कुमार को न्यायालय ने दोषी माना है और अब  सजा भी सुनाई जाएगी. भारत में न्याय की गति अगर यह है तो इस हिसाब से दिल्ली के दंगों के पीड़ित को न्याय मिलने के लिए तीन से चार दशक प्रतीक्षा करनी होगी. और इस तरह के बाकी अन्य कई मामलों की तरह न्याय मिलने तक कई प्रतीक्षारत लोग परलोक सिधार जाते हैं.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.] 

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