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इंडिया गठबंधन में भी दिखा आप-कांग्रेस में तालमेल का अभाव, दिल्ली की महारैली में थे सुर अलग-अलग

दिल्ली में रविवार यानी 31 मार्च को दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्षी गठबंधन की महारैली हुई. इसमें 28 दलों के नेता शामिल हुए और मोदी सरकार के खिलाफ जमकर हल्ला बोला. गौर करने वाली बात ये थी कि इस रैली में अरविंद केजरीवाल, हेमंत सोरेन और संजय सिंह की पत्नियां भी शामिल हुईं. लगभग हरेक वक्ता ने मोदी सरकार को तानाशाह और लोकतंत्र के खिलाफ खतरा बताया. इस महारैली को लोकतंत्र बचाओ रैली का नाम दिया गया था. हालांकि, आम आदमी पार्टी की कोशिश ये भी थी कि इसे अरविंद केजरीवाल के समर्थन में हुई रैली का स्वरूप दे दिया जाए. वैसे, इसे विपक्षी दलों की संयुक्त चुनावी रैली के तौर पर देखना मुफीद रहेगा. 

विपक्षी दलों की चुनावी रैली

दिल्ली के जिस रामलीला मैदान में इंडिया गठबंधन की ये रैली हुई, वे कई ऐतिहासिक रैलियों और घटनाओं का गवाह रहा है. अतीत को याद करें तो खुद अरविंद केजरीवाल का एक नेता के तौर पर जन्म इस रामलीला मैदान से ही हुआ था, जब उन्होंने अन्ना हजारे को आगे कर 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' का आंदोलन चलाया था और उसके बाद चीजें बदली थीं. इंदिरा गांधी के आपातकाल के खिलाफ भी इसी रामलीला मैदान में ही रैली हुई थी, और वहीं से सत्ता के बदलने का भी आगाज हुआ था. शायद यही वजह है कि विपक्षी दलों ने इस मैदान का चुनाव किया, हालांकि ये दीगर बात है कि दिल्ली में कोई वैसा मैदान बचा भी नहीं है.

इस रैली का एकमात्र उद्देश्य नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली सरकार के खिलाफ राजनीतिक अभियान चलाना और अपने लिए समर्थन जुटाना है. यह कोई नयी बात नहीं है. जब चुनावी माहौल होगा, तो विपक्ष भी रैली करेगा ही, अपने लिए समर्थन मांगेगा ही. विपक्ष एक संदेश जनता को दे रहा है कि लगभग अजेय समझे जानेवाले नरेंद्र मोदी के विरुद्ध कमजोर नहीं पड़ा है, बल्कि पूरी ठसक के साथ उनके खिलाफ लड़ने को तैयार है. 

पतियों के लिए पत्नियां मैदान में

इसमें एक बात जो गौर करने की है, वह हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन और अरविंद केजरीवाल की पत्नी सुनीता केजरीवाल के उद्बोधन की है. उन्होंने रैली में अपनी बात रखी और एक तरह से अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया है, बाकी तो चाहे तेजस्वी हों, राहुल गांधी हों, उद्धव ठाकरे हों या प्रियंका वाड्रा हों, हम लोग सबको सुनते ही आए हैं. रैली की उपलब्धि के तौर पर यही देख सकते हैं कि इन दोनों ने अपनी बात रखी और बहुत कायदे से रखी. सुनीता केजरीवाल जिस तरह से पिछले तीन-चार दिनों से अपने पति के लिए समर्थन मांग रही हैं, उनके लिए वक्तव्य जारी कर रही हैं, उसमें थोड़ी भावुकता और सहानुभूति पाने का भाव है, लेकिन कल्पना सोरेन तो आक्रामक दिखी हैं. उसमें- न दैन्यम्, न पलायनम्- का भाव था. बाकी, रैलियां तो हो ही रही हैं, होंगी ही. इसलिए, यह कोई भूतो न भविष्यति की तरह की रैली नहीं थी, प्रधानमंत्री ने भी आज मेरठ से रैली कर चुनाव प्रचार की शुरुआत की है यूपी में, तो रैलियां तो होंगी ही. 

AAP की नहीं चली 

हां, एक और बात इस रैली में गौर करने की थी. जिस तरह आम आदमी पार्टी के नेता और मंत्री सौरव भारद्वाज ही इस रैली के मंच का संचालन कर रहे थे. उन्होंने कोशिश की थी कि इस रैली को अरविंद की गिरफ्तारी के खिलाफ इंडिया गठबंधन की एकजुटता और प्रतिरोध की तरह पेश किया जाए. आम आदमी पार्टी की अब तक की जो राजनीति रही है, वे इसी तरह 'क्लेवर ट्रिक' का इस्तेमाल करते हैं. हालांकि, पिछले ही दिनों कांग्रेस के बड़े नेता अजय माकन जो कभी दिल्ली के सीएम कैंडिडेट भी थे, उन्होंने कहा था कि यह रैली इंडिया गठबंधन की लोकतंत्र बचाने की रैली है.

उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की थी कि यह सिर्फ अरविंद केजरीवाल को बचाने की कोशिश नहीं हैं, हालांकि राजनीति में कई बार सब कुछ साफ-साफ नहीं पढ़ा जाता, 'बिटवीन द लाइन्स' ही पढ़ना होता है. हालांकि, आम आदमी पार्टी काफी कोशिश कर रही है और वह इसको प्रचारित करेगी भी. उसने आयोजन की पूरी जिम्मेदारी भी ली थी. इसमें एक विरोधाभास है. अरविंद केजरीवाल की जो गिरफ्तारी ईडी ने की है, वह आरोप पहली बार अजय माकन ने ही लगाया था. उन्होंने बाकायदा प्रेस-कांफ्रेंस कर यह आरोप लगाया था और यही विरोधाभास है. वह दिल्ली में भले साथ लड़ रहे हों, लेकिन पंजाब में वह उनके खिलाफ है. इस विरोधाभास का नतीजा चुनाव नतीजों में भी देखने को मिलेगा. कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के विरोधाभास को भी इस रैली ने उभारा है.  

केजरीवाल का अंतरराष्ट्रीय समर्थन

अरविंद केजरीवाल में कुछ खास बात नहीं है कि जर्मनी, अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र को चिंतित होना पड़े. उनकी राजनीति हमेशा ही 'क्लेवर ट्रिक' की रही है. यह सवाल भी उठा था कि जब पार्टी और अरविंद इतने बड़े संकट में हैं, तो उनकी पार्टी के दो बड़े नेता स्वाति मालीवाल और राघव चड्ढा विदेश यात्रा पर हैं. मालीवाल के बारे में कहा जा रहा है कि वह अमेरिका छुट्टी मनाने गयी हैं, राघव चड्ढा आंख दिखाने लंडन गए हुए हैं. हालांकि, इसको दूसरे नजरिए से देखना चाहिए औऱ उसी में अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया का हल छिपा है. ये दरअसल अपने विदेशी संपर्कों को साध कर अरविंद केजरीवाल को उबारना चाहते हैं. याद करें कि अन्ना-आंदोलन के समय भी भारत में जितना समर्थन मिला था, उतना ही विदेशों से भी समर्थन मिला है. खालिस्तान के समर्थक जिसे हम भारत में आतंकी मानते हैं, उस पन्नू ने तो घोषित कर दिया है कि लगभग 150 करोड़ रुपए उन लोगों ने आम आदमी पार्टी को दिए थे. पंजाब चुनाव के दौरान भी यह देखने को मिला था कि भारत-विरोधी ताकतों का भी समर्थन आम आदमी पार्टी को परोक्ष रूप से हासिल था, जिसका बाद में कुमार विश्वास वगैरह ने खुलासा भी किया था.

भारत विरोधी ताकतें और अरविंद केजरीवाल

साथ ही, यह स्वीकार करने में भी हर्ज नहीं होना चाहिए कि कुछ ताकतें हैं जो भारत की आर्थिक और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में बढ़ती हैसियत से परेशान हैं. भारत की इस प्रगति-गाथा को वे रोकना चाहते हैं. कारण यह है कि एक दशक पहले तक भारत की यात्रा अनुयायी की है, अब भारत कहीं न कहीं आगे चल रहा है. सूचना-तंत्र और आर्थिक तंत्र के जरिए भारत पर सवारी कसने की कवायद हमेशा से दुनिया की रही है. इन ताकतों को भी अरविंद केजरीवाल जैसों में उम्मीद दिखती है. आप लालू प्रसाद के भ्र्ष्टाचार पर बात कर सकते हैं, लेकिन उन पर भारत-विरोध का आरोप नहीं लगा सकते. वैसे ही, बाकी नेता भी भारत की अखंडता और स्वाभिमान से समझौता नहीं करते. इसीलिए, जर्मनी और अमेरिका उन लोगों के समर्थन में नहीं आयीं. 

बिहार और झारखंड के मुख्यमंत्रियों की राजनीतिक हैसियत अरविंद केजरीवाल के मुताबिक बहुत अधिक है. आखिर, केजरीवाल एक बड़े नगर निगम जैसे आधे राज्य दिल्ली के ही तो मुखिया हैं, जबकि बिहार और झारखंड में कई यूरोप के देश जनसंख्या के हिसाब से समा जाएंगे. तो, एक शक तो पैदा होता है और यही लगता है कि लालू या हेमंत सोरेन ने चूंकि भारत की संप्रभुता को अक्षुण्ण माना है, इसलिए उनके समर्थन में कोई अंतरराष्ट्रीय बवाल नहीं मचा. ऐसा फिलहाल दो नेताओं के साथ ही देखने को मिलता है.

एक तो अरविंद केजरीवाल, दूसरे राहुल गांधी. ये या फिर इनके लोग आंदोलन के समय विदेश में पाए जाते हैं. विदेश से उनकी मदद भी होती है. अन्ना के समय जो विदेशी ताकतें थीं, उन्होंने काफी पैसा भी दिया और अऱविंद केजरीवाल की छवि भी बनायी. एक बार फिर वही कवायद की जा रही है. हालांकि, यह मामला कुल मिलाकर भाजपा के लिए फायदेमंद ही होती है. अरविंद केजरीवाल को मिल रहा समर्थन उसको कहीं न कहीं ठीक ही लगता है. आखिर, अरविंद को मिला तमाम समर्थन कहीं न कहीं राहुल गांधी की छवि पर डेंट ही तो लगाता है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.] 

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