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एवरेस्ट की भीड़, दर्जनों की मौत और बेमौसम बारिश, हद से ज्यादा गर्मी, नहीं चेते तो होगा अनाज से लेकर पानी का संकट

पृथ्वी के सबसे ऊंचे स्थान सागरमाथा जिसे माउंट एवरेस्ट भी कहा जाता है, पर पहुंचने की कोशिश में इस साल 12 पर्वतारोहियों की मौत हो गयी है. ये 12 लोग गर्मियों से पहले एवरेस्ट पर चढ़ने या उतरने के दौरान मारे गए हैं. अब तक पांच लोग लापता हैं. इससे पहले 2019 में 11 लोगों की मौत की पुष्टि हुई थी. नेपाल पर आरोप लग रहा है कि कोरोना के बाद उसने 900 परमिट जारी कर दिए हैं और उसकी वजह से एवरेस्ट पर भीड़ बढ़ गयी है और इससे परेशानी पैदा हो रही है. 

हिमालय को संवेदनशीलता से बचाना होगा 

हिमालय के दुरूह क्षेत्र खासकर एवरेस्ट के इलाके में आप देखें कि 'ह्यूमन फुटप्रिंट' कैसे फैल गया है. एक व्यापार के तौर पर यह फैला है. पहले के समय में जो पर्वतारोही और प्रकृति-प्रेमी थे, उनका बहुत अच्छा तारतम्य था, प्रकृति के साथ, लेकिन अब तो ये व्यापार और पर्यटन का महत्वपूर्ण साधन हो गया है.

एवरेस्ट जैसे, हिमालय जैसे क्षेत्रों को तो हमें बहुत संवेदनशील होकर बचाना होगा, इसमें जो व्यापारिक दृष्टिकोण अपनाया गया है, वह कतई उचित नहीं है. इसके लिए स्थानीय स्तर पर भी और वैश्विक स्तर पर भी कड़े कानून बनाने होंगे. ऐसा इसलिए कि ये जो हिमालयीय क्षेत्र हैं, वही तो हमारे जल के स्रोत हैं. ये वर्ष भर हमें जल देते हैं, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियां और भी कई ट्रांसपोर्डर नदियां यहां से निकलती हैं. इनका नुकसान हम किसी भी स्तर पर बर्दाश्त नहीं कर सकते. इसलिए, कमर तो कसनी होगी. 

जब हम उच्च पर्वतीय क्षेत्र में जाते हैं, तो ऑक्सीजन वैसे ही कम हो जाता है. अगर वहां तापमान भी बढ़ने लगे, तो ऑक्सीजन का पार्शियर प्रेशर कम हो जाता है, हवा का घनत्व कम हो जाता है. इस स्थिति में अगर पर्वतारोही या पर्यटक शारीरिक रूप से सक्षम नहीं हैं, तो वे दिक्कत में पड़ते हैं. कई की मौत हो जाती है, कई को लकवा मार जाता है. तो, जो लोग सक्षम हों, जिनको उच्च पर्वतीय दुरूह क्षेत्र का अनुभव है, उनको ही परमिट देना चाहिए. वरना तो यह पूरे क्षेत्र के लिए बहुत दिक्कत का कारण है. इस व्यापारिक दृष्टिकोण तो बिल्कुल रोकना होगा.

दो डिग्री सेल्सियस तापमान पिछले 40 साल में इस क्षेत्र यानी एवरेस्ट के इलाके में बढ़ा है, तो उसके परिणाम भी बुरे ही होंगे. हमारा स्नोफॉल बहुत कम हो गया है, असामयिक हो गया है. जिस तरह का वातावरण होना चाहिए, उसका ह्रास हो गया है. उच्च पर्वतीय क्षेत्र जो हैं वे टावर हैं, रिसेप्टर्स हैं, सबसे पहले जलवायु परिवर्तन के निशान यहीं दिखते हैं. तो, ग्लेशियर का पिघलना, हिमपात का कम होना या बेमौसम होना उसका बहुत बुरा प्रभाव डाउनस्ट्रीम पर पड़ता है. बारिश का चक्र बिगड़ना, हमारी पूरी सभ्यता के लिए खतरा है. यह कई बड़ी नदियों का उद्गम स्थल है

हिमालय पर जलवायु बदलने से दुनिया बदलेगी

इन सब का प्रभाव निचले स्थानों यानी उनके फुटहिल्स पर पड़ता है, जो हमारे खाद्यान्न उत्पादन का मुख्य केंद्र होता है. इससे खाद्यान्न संकट भी पैदा होता है, जल-संकट भी पैदा होता है और जलवायु पर भी पूरा प्रभाव पड़ता है. इससे जो पूरा इकोलॉजिकल इंटर-रिलेशन है, वह बड़े खतरे में आ जाता है. पहाड़ तो हमारे मुख्य स्रोत हैं, टावर हैं. ये तापमान नियंत्रित करते हैं, हिमपात नियंत्रित करते हैं और बारिश को भी नियंत्रित करते हैं.

इन सब की वजह से हमें बहुत तेजी से, व्यापक स्तर पर काम करना होगा. हरेक स्टेकहोल्डर इस पर काम करे, तभी स्थिति काबू में आएगी. हरेक छोटा-छोटा हित हमारे बड़े हित को नुकसान पहुंचा रहा है. हमारे लालच की वजह से हिमालय के पर्यावरण का नुकसान हो रहा है. मनुष्य के लालच ने, अपने आर्थिक विकास और सामाजिक विकास के नाम पर जिस तरह पूरे हिमालयीय क्षेत्र के पर्यावरण को नाश किया है, तितर-बितर किया है, उसका दुष्परिणाम भारत भी देख रहा है, नेपाल भी देख रहा है और तिब्बत तो खैर देख ही रहा है. चीन में तो 'फ्लैश फ्लड' काबू में आ ही नहीं रहा है और उसके बाद वहां अकाल की हालत हो रही है. इससे कुल मिलाकर खाद्यान्न उत्पादन पर असर पड़ता है और खाद्यान्न तो वैश्विक व्यापार का 60 फीसदी योगदान देता है. 

भारत में दिखने लगे हैं बुरे नतीजे

भारत में तो इसके और भी दुष्परिणाम दिख रहे हैं. खासकर, पश्चिमी विक्षोभ से जुड़ा सारा मामला ही इसका है. जैसे, अभी पिछले दिनों बेमौसम की बारिश हुई थी और जब गर्मी पड़नी चाहिए थी, तब भी लोग कंबल निकाल रहे थे. उस समय कई तरह के मीम और चुटकुले भी देखने-सुनने को मिले थे.

पश्चिमी विक्षोभ को नियंत्रित करने की जो हिमालय की ताकत थी, वह बिल्कुल ही कम हो गयी है, घट गयी है. हमें अपने हिमालयीय क्षेत्र के लिए विशेष धन का प्रबंध करना पड़ेगा, विशेष ध्यान देना होगा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण और उपाय से इसे ठीक करना होगा. जिस तरह से भारत सरकार ने जल-जीवन मिशन चलाया है, या 'कैश द रेन' प्रोग्राम चला रहे हैं, उस तरह हमें हिमालयीय क्षेत्र को बचाने के लिए, उसकी सांस्कृतिक विविधता, जैव-विविधता और जलवायु-विविधता को बचाने के लिए काम करना होगा. इसके लिए पहल बहुत जल्द करनी होगी, हम पहले ही देर कर चुके हैं. 

इसका उपाय यही है कि स्थानीय स्तर से लेकर वैश्विक स्तर तक पर उपाय करने होंगे. जागरूकता अभियान चलाना होगा. आईपीसीसी ने तो अपनी रिपोर्ट में बिल्कुल स्थानीय स्तर पर प्रयास बेहद तेजी से शुरू करने को कहा है. जन-भागीदारी के लिए कैपिसिटी-बिल्डिंग करनी होगी, गांव औऱ पंचायत के स्तर तक पहुंचना होगा और बिल्कुल तृणमूल स्तर पर लोगों को इनवॉल्व करना होगा. अब जैसे देखिए कि जब प्लास्टिक को बैन कर दिया गया है, तो हमें कॉटन के एक झोले को जेब में रखने की आदत डालनी होगी. इस तरह से अगर हम काम करेंगे, तभी मिलजुल कर कुछ काम कर सकेंगे, वरना हिमालय जिस तरह से कुपित हो रहा है, हमें बहुत जल्द ही इसके दुष्परिणाम देखने को मिल सकते हैं. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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