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राहुल गांधी की सजा पर रोक से I.N.D.I.A. गठबंधन की बढ़ेंगी मुश्किलें, सदस्यता के बाद अब “घर-वापसी” पर होगा घमासान

राहुल गांधी को मोदी सरनेम मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फौरी राहत दे दी है. उनकी संसद-सदस्यता भी बहाल कर दी गयी है. वह संसद भी पहुंचे. राज्यसभा में दिल्ली सेवा अध्यादेश पर भी बहस हो रही है. अब मामला विपक्षी गठबंधन और उसमें कांग्रेस की भूमिका पर केंद्रित हो गयी है. कयास लगाए जा रहे हैं कि अब तक कांग्रेस ने जिस तरह “बड़ा दिल” दिखाया है, वह अब शायद अपना स्टेक और बढ़ाएगी. हो सकता है कि वह इंडिया नाम के गठबंधन के संयोजक और प्रधानमंत्री पद के लिए भी दावा पेश कर दे. बहरहाल, सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या राहुल गांधी को तुगलक लेन का उनका पुराना घर वापस मिलेगा, या कोई नया घर उन्हें अलॉट किया जाएगा. 

राहुल को सांसदी के बाद “पुराना घर” चाहिए

राहुल गांधी के संसद में वापस आने से सबसे बड़ा बदलाव तो कांग्रेस की अपनी राजनीति, उसके फ्लोर मैनेजमेंट और उसके संसदीय पराक्रम में दिखेगा. ये जो विपक्षी एकता की कवायद अभी दिख रही थी, जिस तरह से फ्लोर मैनेजमेंट राहुल गांधी की अनुपस्थिति में हो रही थी, एक साथ भाजपा सरकार पर कांग्रेस हमलावर थी, उसमें अब कमी आएगी. इसकी वजह यह है कि कांग्रेस अब राहुल को प्रोजेक्ट करेगी, विपक्ष के जो महत्वाकांक्षी हैं, वे नेपथ्य में धकेले जाएंगे. विपक्षी एकता अभी खत्म नहीं होने जा रही है, लेकिन एक समायोजन के साथ जिस तरह विपक्ष हमलावर था, उसमें कमी आएगी. एक बात और है कि भाजपा और खासकर उसका अभी का नेतृत्व तो राहुल पर हमेशा हमला करता है, तो बीजेपी का नेतृत्व जरूर यह सोचेगा कि राहुल कुछ न कुछ करेंगे, उनके सलाहकार जरूर कुछ उल्टा करवाएंगे और बीजेपी को चुनावी वर्ष में मुद्दा मिल जाएगा. 

अब, राहुल गांधी के आवास का मसला जरूर है, जो उनसे छीन लिया गया था. घरों का फैसला तो संसद की आवास समिति करती है कि कौन सा घर किसको अलॉट होगा? तो, यह फैसला तो उनको ही करना है. हालांकि, कांग्रेस की कोशिश तो वही रहेगी कि राहुल को तुगलक लेन का वही घर मिले, जिसमें वह रहते थे. अब नाक का सवाल तो यह कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए है, लेकिन आवास समिति तो देखभाल कर ही घर देगी. यह निश्चित है कि राहुल अपना वही बंगला चाहेंगे, लेकिन अंतिम फैसला संसदीय आवास समिति ही करेगी. 

बीजेपी भी राहुल की वापसी से खुश 

हालांकि, बीजेपी सशंकित भी है. राहुल गांधी से उसको डर भी है, लेकिन वह उनके बहाने राजनीति भी करती है, आक्रामक भी हो जाती है, यानी बीजेपी के वह “मसाला” भी हैं. दूसरे, कांग्रेस राहुल को प्रोजेक्ट करेगी. वैसे भी, कांग्रेस का यह रिकॉर्ड है कि वह जब भी विपक्ष में रही, उसने गांधी-नेहरू परिवार को ही प्रोजेक्ट किया. नरसिंह राव इसके अपवाद रहे, हालांकि उस दौर में भी प्रोजेक्शन परिवार पर ही रहा. जब तिवारी कांग्रेस बनी, तो वह सोनिया गांधी को स्थापित करने की ही कोशिश थी. 1998 में जब सोनिया गांधी अचानक अध्यक्षा बनीं, तो उसके पीछे की यही रणनीति थी. यह 1971 से ही कांग्रेस की नियति है. वह “परिवार” से आगे देख ही नहीं पाती है. कांग्रेस को देखिए तो अभी वह खासे उत्साह में है. मीडिया का एक धड़ा भी इसको वैसे ही प्रचारित कर रहा है. वैसे, कांग्रेस को उत्साह में होना ही चाहिए. हालांकि, नेता की सफलता इस पर निर्भर करती है कि वह कितना परिपक्व है, उसके सलाहकार कितने परिपक्व हैं? 

संसद सत्र के तो अब केवल चार दिन बचे हैं. शुक्रवार तो प्राइवेट मेंबर्स बिल का दिन होता है. तो, कुल मिलाकर साढ़े तीन दिनों का मामला है. उस पर तो बाकायदा घमासान होना ही है. हां, दिल्ली को लेकर जो अध्यादेश है, उस पर चर्चा हो ही रही है और उसका पारित होना महज औपचारिकता है, क्योंकि नंबर्स तो सत्ताधारी दल के पक्ष में ही है. राज्यसभा में तीन बड़े दलों ने (बीजद, बीआरएस, वाइएसआरकांग्रेस) निष्पक्षता छोड़कर सरकार का साथ देने की घोषणा पहले ही कर दी थी, इसलिए विपक्ष कितना भी हंगामा करे, विधेयक पारित होगा ही. सरकार ने इससे पहले भी धड़ाधड़ हंगामे के बीच विधेयक तो पारित करवाए ही हैं. 

विपक्ष में संयोजन पर होगा घमासान

इंडिया के नाम का जो विपक्षी गठबंधन बना है, उसमें राहुल गांधी के संयोजन का मसला भी उठ सकता है. एक बात हमें याद रखनी चाहिए कि नीतीश कुमार भले ही दौड़भाग कर रहे हों, लेकिन संयोजन के पीछे ममता बनर्जी का भी हाथ था. दिल्ली इस संयोजन की धुरी न बने, इसी के लिए ममता बनर्जी ने यह सलाह भी नीतीश कुमार को दी थी कि वह गठबंधन की पहली बैठक पटना में करें. य़ह भी याद रखना चाहिए कि वाजपेयी सरकार में ममता और नीतीश कुमार दोनों ही सरकार में थे. नीतीश की पार्टी उस समय समता पार्टी थी. तो, समता और ममता में लगातार लागडांट चलती थी, खासकर रेल मंत्रालय को लेकर. अब सोचिए कि ममता को कांग्रेस से कितनी परेशानी है कि वह नीतीश कुमार तक को स्पेस देने को तैयार हैं. ममता यह भी मानती हैं कि वह भविष्य की पीएम कैंडिडेट हैं. 1996 का अतीत सबके सामने है, जब देवगौड़ा घुड़दौड़ के विजेता बने और पीएम भी. 100 से भी कम सीट लाने वाले जनता दल को तब देश की कमान मिल गयी थी. 

यही वजह है कि अगर कांग्रेस को प्रोजेक्ट किया गया, तो इनकी उम्मीदें धूमिल पड़ती हैं. राहुल गांधी का संयोजक बनना इतना आसान नहीं है. राहुल में संयोजन का गुण भी नहीं दिखता. कुल मिलाकर लालू प्रसाद ही उनके एकमात्र समर्थक दिखते हैं, बाकी तो कोई खुलकर उनका नाम लेता नहीं है. राहुल में उतना धैर्य औऱ सबको साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति भी नहीं दिखती है. इस लिहाज से देखें तो विपक्ष में शरद पवार और नीतीश कुमार ही दो पक्के नेता दिखते हैं, इस लायक. ये दोनों भले ही मना कर चुके हैं, लेकिन ये लोग उस काम को पक्का करते हैं, जो काम मना कर चुके होते हैं. इनकी राजनीति इसकी गवाह है. पटना में जो बैठक हुई, उसमें कोई उस तरह नेता चुना नहीं गया, लेकिन बेंगलुरू की बैठक में आप देखिए तो कांग्रेस ने पूरा होल्ड रखा. अब महाराष्ट्र की बैठक में शरद पवार पूरा होल्ड रखना चाहेंगे. वह लगाम अपने हाथों में ही रखना चाहेंगे. तो फिलहाल, तीन नेता शरद पवार, नीतीश कुमार और ममता बनर्जी तीन नेता ऐसे हैं, जो लगाम अपने हाथों में रखना चाहते हैं, इसलिए फिलहाल राहुल के लिए तो राह आसान नहीं दिखती है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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