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NCERT किताब विवाद: स्कूली शिक्षा को तर्कसंगत बनाना, पढ़ाई का बोझ कम करना, यही है मकसद या फिर कुछ और है मंशा

एनसीईआरटी की 11वीं और 12वीं कक्षा की किताबों में बहुत सारे बदलाव किए गए हैं. बदलाव के नाम पर पहले की किताबों में से कुछ शब्द या फिर कुछ पैराग्राफ या चैप्टर हटा दिए गए हैं. ये मुद्दा पिछले कुछ दिनों से चर्चा में है, लेकिन उस तरह की सुर्खियां या बहस देखने को नहीं मिल रही है. सतही ख़बरें बन रही है, लेकिन इसके पीछे के मंशा को समझने लायक चर्चा आम लोगों तक नहीं पहुंच पा रही है.

हम विस्तार से पहले उन बदलाव पर एक नज़र डालेंगे और ये भी जानेंगे कि एनसीईआरटी की ओर से इस बदलाव के लिए पीछे क्या कारण बताए गए हैं. किताबों के अध्याय में बदलाव को जानने के बाद समझने की कोशिश करेंगे कि एनसीईआरटी की दलील कितनी तर्कसंगत है या फिर इसके पीछे कुछ और मंशा है.

ऐसे तो बदलाव कई किए गए हैं, लेकिन हम उनमें से जो मुख्य बदलाव किए गए हैं, पहले उन पर एक नज़र डालते हैं. ये सारे उदाहरण कक्षा 11 और कक्षा 12 की राजनीति विज्ञान, इतिहास या समाजशास्त्र से जुड़ी किताबों से जुड़े हैं. 

उदाहरण नंबर 1 : महात्मा गांधी और हिंदू-मुस्लिम एकता से जुड़ा प्रकरण

पढ़ाई का बोझ कम करने के का हवाला देकर एनसीईआरटी ने  नई किताब में बदलाव के नाम पर महात्मा गांधी की हत्या और भारत की स्वतंत्रता के बाद उन्होंने जो किया उसके संदर्भों को राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तक से हटा दिया है.

कक्षा 12 और राजनीति विज्ञान की किताब..इस किताब का नाम है 'स्वतंत्र भारत में राजनीति' (Politics In India Since Independence). इस किताब के पहले अध्याय का नाम 'राष्ट्र निर्माण की चुनौतियां' है. इसमें 'महात्मा गांधी की शहादत' (Mahatma Gandhi’s sacrifice) के नाम से एक पेज हैं.  नई किताब में इस पेज का आखिरी पैराग्राफ गायब कर दिया गया है. इसके अलावा नई किताब में ..पुरानी किताब के इस पेज के तीसरे पैराग्राफ में मौजूद बहुत सारी पंक्तियां गायब कर दी गई है.

पुरानी किताब में इस पेज का तीसरा पैराग्राफ ऑरिजिनल में इस तरह था: 

"बहरहाल, गाँधीजी के कामों से हर कोई खुश हो, ऐसी बात नहीं थी. हिंदू और मुसलमान दोनों ही समुदायों के अतिवादी अपनी स्थिति के लिए गाँधीजी पर दोष मढ़ रहे थे. जो लोग चाहते थे कि हिंदू बदला लें अथवा भारत भी उसी तरह सिर्फ़ हिंदुओं का राष्ट्र बने जैसे पाकिस्तान मुसलमानों का राष्ट्र बना था-वे गाँधीजी को खासतौर पर नापसंद करते थे. इन लोगों ने आरोप लगाया कि गाँधीजी मुसलमानों और पाकिस्तान के हित में काम कर रहे हैं. गाँधीजी मानते थे कि ये लोग गुमराह हैं. उन्हें इस बात का पक्का विश्वास था कि भारत को सिर्फ़ हिंदुओं का देश बनाने की कोशिश की गई तो भारत बर्बाद हो जाएगा. हिन्दू-मुस्लिम एकता के उनके अडिग प्रयासों से अतिवादी हिंदू इतने नाराज थे कि उन्होंने कई दफे गांधीजी को जान से मारने की कोशिश की. इसके बावजूद गाँधीजी ने सशस्त्र सुरक्षा हासिल करने से मना कर दिया और अपनी प्रार्थना-सभा में हर किसी से मिलना जारी रखा. आखिरकार, 30 जनवरी 1948  के दिन ऐसा ही एक हिंदू अतिवादी नाथूराम विनायक गोडसे, गाँधीजी की संध्याकालीन प्रार्थना के समय उनकी तरफ चलता हुआ नज़दीक पहुँच गया. उसने गाँधीजी पर तीन गोलियाँ चलाईं और गाँधीजी को तत्क्षण मार दिया. इस तरह न्याय और सहिष्णुता को आजीवन समर्पित एक आत्मा का देहावसान हुआ."

लेकिन नई किताब में इस पैराग्राफ को कुछ इस तरह बना दिया गया:

"बहरहाल, गाँधीजी के कामों से हर कोई खुश हो, ऐसी बात नहीं थी. हिंदू और मुसलमान दोनों ही समुदायों के अतिवादी अपनी स्थिति के लिए गाँधीजी पर दोष मढ़ रहे थे.  इसके बावजूद गाँधीजी ने सशस्त्र सुरक्षा हासिल करने से मना कर दिया और अपनी प्रार्थना-सभा में हर किसी से मिलना जारी रखा. आखिरकार, 30 जनवरी 1948  के दिन ऐसा ही एक हिंदू अतिवादी नाथूराम विनायक गोडसे, गाँधीजी की संध्याकालीन प्रार्थना के समय उनकी तरफ चलता हुआ नज़दीक पहुँच गया. उसने गाँधीजी पर तीन गोलियाँ चलाईं और गाँधीजी को तत्क्षण मार दिया. इस तरह न्याय और सहिष्णुता को आजीवन समर्पित एक आत्मा का देहावसान हुआ."

आप देख सकते हैं कि नई किताब में से इन लाइनों को गायब कर दिया गया:

"जो लोग चाहते थे कि हिंदू बदला लें अथवा भारत भी उसी तरह सिर्फ़ हिंदुओं का राष्ट्र बने जैसे पाकिस्तान मुसलमानों का राष्ट्र बना था-वे गाँधीजी को खासतौर पर नापसंद करते थे. इन लोगों ने आरोप लगाया कि गाँधीजी मुसलमानों और पाकिस्तान के हित में काम कर रहे हैं. गाँधीजी मानते थे कि ये लोग गुमराह हैं. उन्हें इस बात का पक्का विश्वास था कि भारत को सिर्फ़ हिंदुओं का देश बनाने की कोशिश की गई तो भारत बर्बाद हो जाएगा. हिंदू-मुस्लिम एकता के उनके अडिग प्रयासों से अतिवादी हिंदू इतने नाराज थे कि उन्होंने कई दफे गांधीजी को जान से मारने की कोशिश की."

इतने विस्तार से और बार-बार लिखने का मकसद यही है कि हर लोग समझे कि किन लाइनों को गायब किया गया है और क्या उन लाइनों से छात्रों के ऊपर से पढ़ाई का बोझ कम हो जाएगा क्या. ऊपर के पैराग्राफ में जिन वाक्यों  को गायब किया गया है, अगर आप गौर से पढ़ें और चिंतन करें तो उन पंक्तियों के गायब होने से वो पैराग्राफ ही अधूरा सा रह जाता है. इससे छात्रों का बोझ तो कम होता नहीं दिखाई देता, लेकिन ये जरूर है कि उनमें विषय को लेकर भ्रम जरूर बना रहेगा.

पहले जो किताब 12वीं कक्षा के छात्र पढ़ते थे, उसमें महात्मा गांधी से जुड़े इस पेज पर आखिरी पैराग्राफ कुछ इस तरह से था:

"गांधीजी की मौत का देश के सांप्रदायिक माहौल पर मानो जादुई असर हुआ. विभाजन से जुड़ा क्रोध और हिंसा अचानक ही मंद पड़ गए. भारत सरकार ने सांप्रदायिक हिंसा फैलाने वाले संगठनों की मुश्कें कस दीं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों को कुछ दिनों तक प्रतिबंधित कर दिया गया. सांप्रदायिक राजनीति का ज़ोर लोगों में घटने लगा."

लेकिन 'महात्मा गांधी की शहादत' नाम के पेज से नई किताब में इस आखिरी पैराग्राफ को पूरी तरह से ही गायब कर दिया गया है.

उदाहरण नंबर 2:  गांधीजी के हत्यारे नाथूराम गोडसे से जुड़ा प्रकरण

कक्षा 12 और एनसीईआरटी की इतिहास की किताब ..किताब का नाम 'भारतीय इतिहास के कुछ विषय -भाग 3'. इसी किताब में एक चैप्टर है 'महात्मा गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन ( सविनय अवज्ञा और उससे आगे). इस अध्याय में उप शीर्षक 'आखिरी, बहादुराना दिन' आजादी के बाद गांधीजी के बारे में बताया गया है. इसी में महात्मा गांधी की हत्या से जुड़े प्रकरण को भी शामिल  किया गया है.

महात्मा गांधी की हत्या वाला पैराग्राफ पहले ऐसे लिखा हुआ था:

"बहुत सारे भारतीयों को उनका यह सहृदय आचरण पसंद नहीं था. 30 जनवरी की शाम को गाँधी जी की दैनिक प्रार्थना सभा में एक युवक ने उनको गोली मारकर मौत की नींद सुला दिया. उनके हत्यारे ने कुछ समय बाद आत्मसमर्पण कर दिया. वह नाथूराम गोडसे नाम का ब्राह्मण था. पुणे का रहने वाला गोडसे एक चरमपंथी हिंदुत्ववादी अखबार का संपादक था. वह गाँधी जी को 'मुसलमानों का खुशामदी' कहकर उनकी निंदा करता था."

नई किताब में उसी पैराग्राफ को इस तरह से लिखा गया है:

"बहुत सारे भारतीयों को उनका यह सहृदय आचरण पसंद नहीं था. 30 जनवरी की शाम को गाँधी जी की दैनिक प्रार्थना सभा में एक युवक ने उनको गोली मारकर मौत की नींद सुला दिया. उनके हत्यारे ने कुछ समय बाद आत्मसमर्पण कर दिया. उसका नाम नाथूराम गोडसे था."

आप देख सकते हैं कि नई किताब में पुरानी किताब के इस पैराग्राफ में से गांधी जी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के बारे में इस लाइन को गायब कर दिया गया कि "पुणे का रहने वाला गोडसे एक चरमपंथी हिंदुत्ववादी अखबार का संपादक था. वह गाँधी जी को 'मुसलमानों का खुशामदी' कहकर उनकी निंदा करता था."

ये हम सब जानते हैं कि नाथूराम गोडसे गांधीजी का हत्यारा था और उसकी जितनी भी निंदा की जा सके वो कम है. उसके बावजूद गोडसे के बारे में जानकारी को हटाकर कौन सा बोझ बच्चों की पढ़ाई के ऊपर से कम किया जा रहा है. वो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का हत्यारा था और 12वीं के बच्चों को उसके बारे में जानने का पूरा हक़ है जिसने  हमारे बापू को हमसे छीन लिया.

एक और अहम बात है. पहले 12वीं की इतिहास की इस किताब में 6 चैप्टर थे. नई किताब में इनमें से दो चैप्टर 'औपनिवेशिक शहर' और 'विभाजन को समझना' गायब कर दिया गया है. 'विभाजन को समझना' ये वो चैप्टर था जिसमें बच्चों को 1947 के बंटवारे के बारे में बताया जाता था. बंटवारा क्यों और कैसे हुआ और इसके चलते 1946 से 1950 के बाद भी आम लोगों के क्या दर्दनाक अनुभव रहे. इन सारी बातों की जानकारी इस चैप्टर के जरिए बच्चों को दी जाती थी. इसमें उन हालातों का जिक्र था जो बच्चों को ये समझाने के लिए काफी था कि सांप्रदायिकता और नफरत का ज़हर मानवता के लिए कितना खतरनाक होता है. हालांकि अब 12वीं के छात्र इससे वंचित रह जाएंगे.

उदाहरण नंबर 3 : मौलाना अबुल कलाम आज़ाद से जुड़ा प्रकरण

कक्षा 11 और राजनीति विज्ञान की किताब..इस किताब का नाम है 'भारत का संविधान सिद्धांत और व्यवहार'. इसके पहले अध्याय का नाम है 'संविधान - क्यों और कैसे'. इस चैप्टर में संविधान सभा की समिति की बैठकों से मौलाना आज़ाद के नाम को हटाने के लिए एक पंक्ति को संशोधित किया गया है. जी हां, हम स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की ही बात कर रहे हैं.

इसमें संविधान सभा की कार्यविधि को बताने के लिए कुछ पंक्तियां हैं. लिखा गया है कि विभिन्न मुद्दों के लिए संविधान सभा की 8 मुख्य कमेटियां थीं. इसके आगे की पंक्ति को संशोधित करते हुए लिखा गया है कि "आमतौर पर, जवाहरलाल नेहरू, राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल या बी. आर. अंबेडकर इन कमेटियों की अध्यक्षता करते थे" (Usually, Jawaharlal Nehru, Rajendra Prasad, Sardar Patel or BR Ambedkar chaired these Committees.) 

पहले ये लाइन इस रूप में हुआ करती थी: "आमतौर पर, जवाहरलाल नेहरू, राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद या अंबेडकर इन कमेटियों की अध्यक्षता करते थे"

मौलाना आज़ाद शब्द को हटाने के पीछे एनसीईआरटी की तरफ ये कहा गया है कि कोविड 19 की वजह से छात्रों पर कंटेंट यानी पढ़ाई का बोझ कम करने के लिए पाठ्यक्रम को तर्कसंगत बनाया गया है. मतलब यहां से मौलाना आज़ाद शब्द हट जाने से छात्रों के ऊपर से पढ़ाई का बोझ कम हो जाएगा. ये बेहद ही हास्यास्पद तर्क है.

ऐसे ये बदलाव 2023-24 के एकेडमिक सेशन के लिए नहीं किया गया है. यही किताब 2022-23 के सेशन में भी बच्चों को पढ़ाई गई थी.

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद  कौन थे, शायद ये बताने की जरूरत नहीं है.  ये तथ्य हर जगह मौजूद है कि जब 1946 में संविधान सभा के लिए चुनाव हो रहा था, उस वक्त मौलाना आज़ाद ने उन चुनावों में कांग्रेस का नेतृत्व किया था. ये भी हम जानते हैं कि 1940 से 1946 तक वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष थे और बतौर कांग्रेस अध्यक्ष उन्होंने 1946 में उस प्रतिनिधिमंडल का भी नेतृत्व किया था जिसने कैबिनेट मिशन से बातचीत की थी. मौलाना आजाद कांग्रेस के टिकट पर संयुक्त प्रांत से चुनकर संविधान सभा के सदस्य बने थे. वे  संविधान सभा के पांच अलग-अलग कमेटियों के सदस्य भी थे और  पार्टी के एक वरिष्ठ नेता होने के नाते अलग-अलग समितियों में होने वाले आंतरिक राय मशविरा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे.

उदाहरण नंबर 4 : संघवाद में जम्मू-कश्मीर शब्द को ही गायब करने से जुड़ा प्रकरण

किताब वहीं ...कक्षा 11 और राजनीति विज्ञान की किताब.. किताब का नाम 'भारत का संविधान सिद्धांत और व्यवहार' बस अध्याय बदल जाता है. इस बार दसवें अध्याय में चलते हैं. इस अध्याय का नाम 'संविधान का राजनीतिक दर्शन' है. इस चैप्टर के तहत संघवाद यानी Federalism के विषय को समझाने की कोशिश की गई है.

पहले जो किताब थी उसमें इस टॉपिक की शुरुआत ऐसे होती है- "जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर से संबंधित अनुच्छेदों को जगह देकर भारतीय संविधान ने असमतोल संघवाद यानी asymmetric federalism जैसी अत्यंत महत्वपूर्ण अवधारणा को अपनाया है"

नई किताब में इसी लाइन को कुछ इस तरह से लिखा गया है- "पूर्वोत्तर से संबंधित अनुच्छेद 371 को जगह देकर भारतीय संविधान ने असमतोल संघवाद यानी asymmetric federalism जैसी अत्यंत महत्वपूर्ण अवधारणा को अपनाया है"

यानी इस लाइन से जम्मू-कश्मीर शब्द को गायब कर दिया गया है. जबकि किताब में संविधान के राजनीतिक दर्शन को समझाया जा रहा है और वो भी उस संदर्भ में समझाया जा रहा है जिन राजनीतिक दर्शन को ध्यान में रखकर संविधान सभा ने देश के संविधान का निर्माण किया.

इसी संघवाद के टॉपिक में नीचे पहले अनुच्छेद 370 का जिक्र कुछ इस तरह से था- "भारतीय संघ में जम्मू-कश्मीर का विलय इस आधार पर किया गया था कि संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत इस प्रदेश की स्वायत्तता की रक्षा की जाएगी."

नई किताब में से ये लाइन गायब कर दी गई है. ये बात सही है कि अगस्त 2019 में केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 के उन प्रावधानों को रद्द या निरस्त कर दिया, जिनके आधार पर जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा हासिल था. इसके साथ ही 31 अक्टूबर 2019 से जम्मू-कश्मीर राज्य को दो केंद्रशासित प्रदेशों में जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में बांट दिया गया.

ध्यान देने वाली बात है कि कक्षा 11 की किताब में जब बच्चों को भारतीय संविधान के राजनीतिक दर्शन के तहत संघवाद पढ़ाया जाता है तो वो उन परिस्थितियों से भी वाकिफ होते हैं, जिनकी वजह से कुछ विशेष प्रावधान संविधान में किए गए थे. अगर हम इस तरह के किसी भी लाइन को गायब करते हैं, तो उन चंद पंक्तियों से पढ़ाई का बोझ कम नहीं जो जाता, बल्कि उसके विपरीत बच्चों में बहुत ही कम उम्र में तार्किक सोच विकसित करने की प्रक्रिया पर ही हम एक तरह से कुठाराघात करने का प्रयास कर रहे हैं.

उदाहरण नंबर 5: मुगल दरबार से जुड़ा पूरा अध्याय ही गायब

कक्षा 12 और एनसीईआरटी की इतिहास की किताब ..किताब का नाम 'भारतीय इतिहास के कुछ विषय भाग 2'. इस किताब में पहले पांच चैप्टर हुआ करता था. आखिरी चैप्टर 'मुगल दरबार' के नाम से था. इसमें सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों के भारतीय इतिहास पर प्रकाश डाला गया था. इसमें खास तौर से पहले मुगल शासक बाबर से लेकर औरंगज़ेब तक के शासन व्यवस्था, उस वक्त के साहित्य, पांडुलिपियों, चित्रकला और उस वक्त के प्रशासनिक ढांचे के  बारे में जानकारी थी.

लेकिन कक्षा 12 की एनसीईआरटी की इस इतिहास की किताब में पांच की जगह अब चार चैप्टर ही रह गए हैं. आखिरी  चैप्टर 'मुगल दरबार' को इससे हटा दिया गया है. स्कूली शिक्षा के तहत इस चैप्टर के जरिए ही अब तक स्कूली छात्रों को मुगलकालीन समय के बारे में विस्तार से जानकारी मिला करती थी. लेकिन अब इसे हटा देने से इस वक्त के इतिहास से 12वीं कक्षा के छात्र वंचित रहेंगे.

उदाहरण नबंर 6: गोधरा और गुजरात दंगों से जुड़ा प्रकरण

इसी तरह के कुछ और भी बदलाव कक्षा 6 से लेकर 12वीं की किताबों में किया गया है.  एनसीईआरटी ने गोधरा के बाद के दंगों के संदर्भों को भी हटा दिया है.  कक्षा 6 से 12 तक की सभी एनसीईआरटी और सामाजिक विज्ञान यानी सोशल साइंस की पाठ्यपुस्तकों में 2002 के गोधरा दंगों के सभी संदर्भों को हटा दिया गया है. कक्षा 12वीं की समाजशास्त्र की किताब 'अंडरस्टैंडिंग सोसाइटी' से गोधरा और उसके बाद के दंगों का संदर्भ गायब कर दिया गया है. हटाए गए पैराग्राफ का संबंध वर्ग, धर्म और जातीयता से था, जिसमें ये बताने की कोशिश की गई थी कि रिहायशी इलाकों में अलगाव कैसे बढ़ता है. इसके लिए गोधरा में सांप्रदायिक हिंसा का हवाला दिया गया था. इसके जरिए ये बताने की कोशिश की गई थी कि इस घटना से कैसे हिन्दू और मुस्लिम समुदाय में अलगाव हुआ.

उदाहरण नबंर 7: आनंदपुर साहिब प्रस्ताव से जुड़ा प्रकरण

वैसे ही शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) ने हाल ही में कहा था कि  एनसीईआरटी ने 12वीं की राजनीति विज्ञान की किताब में आनंदपुर साहिब प्रस्ताव (Anandpur Sahib resolution) के बारे में 'भ्रामक जानकारी' डाली है. एसजीपीसी के प्रमुख हरजिंदर सिंह धामी ने कहा है कि 1973 का प्रस्ताव 1973 का संकल्प राज्य के अधिकारों और संघीय ढांचे को मजबूत करने पर केंद्रित था. उन्होंने कहा है कि कक्षा 12 की राजनीति विज्ञान की किताब 'स्वतंत्र भारत में राजनीति' में आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को लेकर भ्रामक जानकारी की वजह से किताब में सांप्रदायिक पहलू शामिल हो गया है. धामी का कहना है कि एनसीईआरटी ने 12वीं कक्षा के पाठ्यक्रम में कुछ पुरानी जानकारियों को हटा दिया है और कुछ नई जानकारियों को जोड़ा है. उन्होंने दावा किया है कि स्कूली किताबों में वर्तमान केंद्र सरकार के अनुरूप बदलाव किए जा रहे हैं. पाठ्यक्रम से अल्पसंख्यकों से जुड़ी बातों को समाप्त किया जा रहा है और मनमाना पाठ्यक्रम बनाया जा रहा है. उन्होंने आरोप लगाया है कि इसी कवायद के तहत 12वीं की किताब में आनंदपुर साहिब प्रस्ताव की ग़लत व्याख्या की गई है.


बदलाव के पीछे एनसीईआरटी की दलील

एनसीईआरटी यानी  National Council of Educational Research and Training ने  जिन शब्दों, पैराग्राफ या अध्याय को हटाया गया है, इसके पीछे का कारण भी बताया है. एनसीईआरटी का कहना है कि इन किताबों में जो भी कंटेंट उनको एकेडमिक ईयर 2022-23 के लिए रैशनलाइज़ या पुनर्गठित किया था जो 2023-24 में भी जारी रहेंगे. सवाल उठता है कि इन किताबों को रैशनलाइज़ क्यों किया गया था. इस पर एनसीईआरटी का कहना है कि कोविड 19 को ध्यान में रखकर छात्रों पर सामग्री यानी कंटेंट भार को कम करने के मकसद से ऐसा किया गया. एनसीईआरटी ने बकायदा अपनी वेबसाइट पर इसकी जानकारी भी दी है. हर किताब में शुरुआत में ये बात कही भी गई है.


बदलाव को लेकर मंशा पर उठ रहे हैं सवाल

ऊपर उदाहरण के जरिए हर प्रकरण को लेकर विस्तार से ये बताना कि क्या पहले था और अब उसमें क्या हो गया या क्या हटा दिया गया..इसके पीछे ये कारण है कि पाठक सबसे पहले खुद से ही ये सोचें कि पूरा मु्द्दा क्या है.  उदाहरण देने के क्रम में कुछ बातों को रिपीट भी किया गया है ताकि इसे पढ़ने वालों को किसी भी तरह का भ्रम नहीं हो और वे हर तरह के कन्फ्यूजन  से बच सकें.

ऊपर जिन बदलाव का जिक्र किया गया है, अगर आप उन पर गौर से नज़र डालेंगे तो ज्यादातर लोगों को यहीं लगेगा कि क्या एक शब्द या पैराग्राफ हटाने से पढ़ाई का बोझ घट जाएगा. ज्यादातर लोग इसका नकारात्मक ही जवाब देंगे. दरअसल इनमें बदलावों में एक पैटर्न देख जा सकता है. ये सारे बदलाव किसी ख़ास विचारधारा की पसंद और नापसंद से जुड़े नज़र आते हैं. जैसे गांधी जी के महत्व को कम करना, या फिर गांधीजी के हत्यारे को लेकर कम जानकारी देना. इसी तरह से मौलाना आज़ाद के महत्व को कम बताना या फिर मुगल शासकों के बारे में चैप्टर ही गायब कर देना. हम ये जानते हैं कि अनुच्छेद 370 के उन प्रावधानों को रद्द कर दिया गया है, जिनसे जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा हासिल था. लेकिन संविधान के राजनीतिक दर्शन को समझाने के लिए संघवाद के तहत अनुच्छेद 370 का जिक्र उतना ही महत्व रखता है, जितना अनुच्छेद 371. हम इतिहास के तथ्यों को इसलिए जानते हैं ताकि वे परिस्थितियां समझ सकें जिसकी वजह से अनुच्छेद 370 या 371 को अपनाना पड़ा था.

इतिहास, राजनीति विज्ञान में शामिल तथ्यों की शुरुआती जानकारी छठी से 12वीं तक के छात्रों को आम तौर पर स्कूली किताबों के जरिए ही होती है. इनमें से कई छात्र ऐसे होते हैं, जो स्कूली शिक्षा के बाद इतिहास या राजनीति विज्ञान की पढ़ाई नहीं करते हैं. ऐसे में जो उन लोगों ने स्कूलों में पढ़ लिया, फिर उसे ही जीवन भर के लिए अटल सत्य मान लेते हैं.

विचारधारा के हिसाब से इतिहास तय करना सही नहीं

कोई भी ऐतिहासिक तथ्य किताबों के साथ ही श्रुतियों के जरिए भी पीढ़ी-दर पीढ़ी आगे बढ़ते हैं. जिनकी इतिहास और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई सिर्फ स्कूलों तक सीमित होती है, श्रुतियों के जरिए उनसे वो तथ्य अगली पीढ़ी में उसी दायरे में आगे बढ़ती है. किताबों से जो भी अंश या हिस्सा गायब किए गए हैं, आने वाली दो-तीन पीढ़ी के बाद उसके बारे में एक बड़ी आबादी जान ही नहीं पाएगी और वहीं सच मानकर चलेगी, जो एक ख़ास विचारधारा वाले लोग मनवाना चाहते हैं.

मनमुताबिक यूथ तैयार करने की कवायद

ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ और अपनी पसंद की बातों को ही स्कूली किताबों में जगह देना, किसी भी नजरिए से रैशनलाइज़ की प्रक्रिया नहीं मानी जा सकती. ये बच्चों के ऊपर बोझ कम करने का मामला दिखता ही नहीं है. मैंने ऊपर जिक्र किया है  कि कैसे बीच से कुछ लाइन को गायब कर देने से बच्चे तार्किक बनने की बजाय हमेशा भ्रमित रहेंगे. ये पूरी कवायद अपनी विचारधारा के मुताबिक यूथ तैयार करने की लग रही है. 

तीन-चार पीढ़ी बाद होता है सबसे ज्यादा असर

ऐसे भी एक ख़ास विचारधारा के लोग आने वाले 20 से 25 साल में भारत को विश्व गुरु बनाने के विमर्श को बढ़ावा दे रहे हैं और इसके लिए ये भी कहने से पीछे नहीं हट रहे हैं कि विश्व गुरु बनाने की प्रक्रिया में अगली तीन-चार पीढ़ी को  सजग बनाने की जरूरत है. इस तरह के बयान और स्कूली किताबों से ऐतिहासिक तथ्यों को गायब कर देने के बीच भी एक संबंध देखा जा सकता है. दरअसल अगली तीन-चार पीढ़ियों को वैसा बनाओ, जैसा हम चाहते हैं. यहां पर हम से तात्पर्य ख़ास विचारधारा से जुड़े लोगों से हैं. वे मनमुताबिक पीढ़ियां बनाना चाहते हैं, जो वहीं सच मानें जो उनके फायदे में हो, भले ही ऐतिहासिकता से उनका कोई सरोकार नहीं रहा हो.

इस विवाद से जुड़ा एक और पहलू है कि क्या स्कूली किताबों से मनमाफिक शब्दों या पैराग्राफ या चैप्टर को गायब कर इतिहास बदला जा सकता है. बहुत लोग तर्क देते हैं कि ऐसा संभव नहीं है, लेकिन मेरा मानना है कि ऐसा बिल्कुल संभव है. ये एक बहुत ही धीमी प्रक्रिया होती है, लेकिन बहुत असरकारक प्रक्रिया होती है. तीन-चार पीढ़ी के बाद इसका सबसे बेहतर परिणाम दिखता है और आज कल सोशल मीडिया के जमाने में इसे बहुसंख्यक लोगों तक पहुंचाना भी आसान है.

मानसिक तौर से गुलाम बनने का खतरा

ये दरअसल ऐतिहासिक तथ्यों को बदलने या फिर गायब करने तक ही सीमित नहीं है. ये दरअसल हमारे-आपके वैचारिक सोच को बदलकर उस पर कब्जा करने की एक प्रक्रिया है, जिसे लोग इतनी आसानी से नहीं समझ पाते हैं और जब तक कुछ लोगों को समझ आती है, तब तक बहुत देर हो जाती है. उन्हें पता ही नहीं चलता कि कब वे आजाद मुल्क में किसी ख़ास विचारधारा या मानसिकता के लिए मानसिक तौर से गुलाम बन गए हैं. इस पूरे प्रकरण को इस नजरिए से भी देखने की जरूरत है.

मीडिया में भी नहीं दिखी ख़ास दिलचस्पी

एक दिलचस्प पहलू ये हैं कि इस मुद्दे को उस तरह से फैलने नहीं दिया जा रहा है, जितना इस पर बहस होनी चाहिए थी. राष्ट्रीय मीडिया ख़ासकर टीवी पर तो इसको बहुत ही कम जगह मिली. न ही विस्तार से बताया गया कि क्या गायब किया गया है और उसके पीछे मंशा क्या है. ये भी कि भविष्य में उसका क्या असर पड़ेगा. मीडिया में टुकड़ों-टुकड़ों में कुछ बातें कही गई है. वहीं कुछ दिनों पहले हम देख चुके हैं कि मीडिया में मूत्र काल का कितना हौव्वा था. हैरानी की बात तो ये है कि इतने गंभीर मुद्दे को लेकर कमोबेश अधिकांश विपक्षी दल  और उनके नेता भी उदासीन ही नज़र आ रहे हैं.

अभिभावकों को भी पूरी जानकारी नहीं

जरूरी मुद्दा ये भी है कि क्या स्कूली किताबों में जिस तरह के बदलाव किए गए हैं, देश के लोगों को, स्कूली छात्रों को और उनके अभिभावकों को पूरी जानकारी है या नहीं. इस बदलाव के हिमायती वर्ग के लोग ये भी तर्क दे रहे हैं कि बदलाव राष्ट्रवाद के सिद्धांतों और देश भावना के अनुरूप किया जा रहा है. सिर्फ़ ये कह देना सही नहीं है कि राष्ट्रवाद के सिद्धांतों और देश की जरूरतों को ध्यान में रखकर इतिहास के किसी तथ्यों को जिन्हें पिछले कई दशकों से सार्वजनिक तौर से पढ़ाया जा रहा है, उन्हें हटा दिया गया है.

पाठ्यक्रम में बदलाव नई बात नहीं

पाठ्यक्रम में बदलाव कोई नई बात नहीं है. पाठ्यक्रम को तर्कसंगत बनाने में भी कोई बुराई नहीं है. बच्चों पर पढ़ाई का बोझ कम करना भी अपने आप में सही है. अगर ऐतिहासिक तथ्यों की अनदेखी की गई है और उसको लेकर पुख्ता तथ्य मौजूद हैं तो इतिहास या राजनीति विज्ञान या फिर समाजशास्त्र की किताबों में बदलाव को जायज ठहराया जा सकता है. अगर आपके पास किसी ऐतिहासिक घटना के बारे में प्रामाणिक जानकारी है और आप समझते हैं कि उसे अब तक नहीं बताया गया है, तो वैसी घटनाओं को पाठ्यक्रम में जरूर जगह मिलनी चाहिए. लेकिन यहां जितने भी उदाहरण दिए गए हैं, उनमें नए तथ्यों की गुंजाइश बिल्कुल नहीं दिख रही है. तर्कसंगत बनाने और कंटेंट का बोझ करने के नाम पर सिर्फ कुछ शब्द, कुछ पैराग्राफ, रेफरेंस या कुछ अध्याय गायब कर दिए गए हैं और सबमें एक बात कॉमन दिखती है. अगर आप समझने की कोशिश करें, तो जो भी तथ्य गायब किए हैं, वे सभी सत्ता से जुड़े लोगों और संगठनों की विचारधारा से मेल खाने वाले तथ्य नहीं हैं. यानी किसी ख़ास विचारधारा के महत्व को जबरन स्थापित करने के लिए स्कूली किताबों को जरिया बनाने का प्रयास दिख रहा है.

सुनहरा इतिहास की जगह सुनहरा भविष्य बनाने की जरूरत

आखिर में एक बात हम सबको अच्छी तरह समझने की जरूरत है कि किसी भी निर्वाचित सरकार का काम अतीत को सुनहरा दिखाने की नहीं होती, बल्कि भविष्य को सुनहरा बनाने की होती है. इतिहास, इतिहास होता है जो बीत चुका होता है. ऐतिहासिक तथ्यों को गायब कर या फिर मनमुताबिक ऐतिहासिक तथ्यों  को लोगों तक पहुंचाने से वर्तमान में मौजूद किसी शख्स या भविष्य में आने वाले किसी शख्स का पेट नहीं भर सकता. महात्मा गांधी के महत्व को कम करने की कोशिश और उनके हत्यारे के बारे में जानकारी को सीमित करने की प्रवृति भविष्य में किसी भी समाज के लिए बेहद ही खतरनाक साबित होगी. इस पर सरकार के साथ ही समाज के प्रबुद्ध लोगों और  आन जनता को भी गंभीरता से सोचने की जरूरत है. अगर ऐसा नहीं किया गया तो आने वाले वक्त में इसका खामियाजा सिर्फ़ और सिर्फ़ देश आम नागरिकों को ही भुगतना पड़ेगा.

(ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है, इसमें किताबों के उद्धरण एनसीईआरटी की पुरानी किताबों और नई किताबों से हूबहू लिए गए हैं.)  

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