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कर्नाटक चुनाव के बाद बढ़ा खरगे का कद, लेकिन 2024 चुनाव जीतने के लिए इस बड़ी रणनीति को अपना सकती है कांग्रेस

कर्नाटक में कांग्रेस की जीत से निश्चित ही खड़गे की हैसियत बढ़ी है. उनका गृहराज्य था और उन्होंने जीत दिलाने के लिए कर्नाटक में डेरा ही डाल दिया था. हालांकि, एक बात हमें नहीं भूलनी चाहिए कि कांग्रेस में आलाकमान की ही चलती है. आलाकमान का सीधा मतलब नेहरू-गांधी परिवार होता है. खासकर, 1971 के बाद तो यह बिल्कुल सच है. जब 1969 में इंदिरा गांधी ने पार्टी को तोड़ा तो शुरुआती वर्षों में तो कमजोर थीं, लेकिन बाद में वह ताकतवर होती चली गईं. उसके बाद 1991 से 1996 का वक्त ऐसा था, जब गांधी परिवार का रुतबा कमजोर हुआ था. उसी दौरान कांग्रेस इस परिवार की छाया से थोड़ी निकली थी. बाकी, कांग्रेस अध्यक्ष कोई भी हों, चलती तो नेहरू-गांधी परिवार की ही हैं. फिलहाल, उसके प्रतिनिधि सोनिया गांधी, राहुल गांधी और थोड़ी-बहुत प्रियंका गांधी हैं. प्रियंका थोड़ी-बहुत इसलिए कि वह कम सक्रिय भी हैं और उनका प्रभाव भी इन दोनों की तुलना में कम है, लेकिन वह भी मल्लिकार्जुन खड़गे से प्रभावी तो हैं ही. ठीक है कि उनका कद बढ़ा है, लेकिन उनका कद गांधी-नेहरू परिवार के बाद ही आंका जाएगा, यह नहीं भूलना चाहिए. 

खड़गे एक सजावटी पद पर सजावट के व्यक्ति बने रहेंगे, यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है. देखिए, अब भाजपा के पास संघ है. वह बीजेपी की धुरी है और उसके बिखराव को बांध कर रखता है. कांग्रेस की मजबूरी है कि गांधी-परिवार ही कांग्रेस की धुरी है, जो उसको बिखेरने से बचाती है. हम लोग लोकतंत्र की बहुत बात करते हैं, लेकिन वह नीचे से ऊपर की ओर नहीं आता है. यह कांग्रेस की मजबूरी है कि गांधी-नेहरू परिवार को उन्हें धुरी बनाकर रखना होता है. आप देखिए कि 1991 से 1996 तक जब पीवी नरसिंह राव की सरकार थी, तो फिर भी कांग्रेस बची रही, लेकिन उसके बाद खासकर 1995 से 1998 के दौर में कांग्रेस में खूब बिखराव हुआ. इसी वक्त गांधी-नेहरू परिवार राजनीति से दूर था. कई बार ये भी लगता है कि उस बिखराव के पीछे भी वही लोग थे, जो गांधी-नेहरू परिवार को मोर्चे पर लाना चाहते हैं. उस दिन भी मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा था कि वह राहुल गांधी से पूछकर फैसला करेंगे. इस बयान से ही बहुत कुछ साफ हो जाता है. 

कांग्रेस- उदारीकरण से रेवड़ी-कल्चर तक

देश में उदारीकरण जिस कांग्रेस ने लाने की कोशिश की, जिसने शुरुआत की, वही अब इस पर कदम पीछे खींच रही है. ये कांग्रेस में पहला बदलाव आ रहा है. आप 1980 से देखिए, जब मिसेज गांधी ने सत्ता में वापसी की थी, तो लाइसेंस-परमिट राज के बंधन ढीले किए थे. फिर, जब राजीव गांधी आए तो पीएसयू में धीरे-धीरे छूट देनी शुरू की थी. जब 1985 में कांग्रेस के 100 साल पूरे हुए, तो कांग्रेस के शताब्दी समारोह में भी राजीव गांधी ने दो अनुच्छेद भी लिखे थे, लेकिन कांग्रेसियों के दबाव में वह हटा दिया. हालांकि, 1991 के चुनाव में उन्होंने उदारीकरण की बात कही थी, वादा किया था. फिर, उदारीकरण को जो मनमोहन सिंह लाए, पीवी नरसिंह राव की सरकार में, वही कांग्रेस अब लोक-कल्याणकारी राज्य या समाजवादी राज्य की दिशा में लौट रही है. जिसे हम फ्रीबीज या रेवड़ी कहते हैं, कांग्रेस का जोर अब उस पर है. आप अगर उनके 'पांच वादे' याद कीजिए, तो यही था. हालांकि, मनरेगा भी उन्होंने ही शुरू किया था, 2004 में और आरटीआई का कानून भी वही लाए थे, भोजन का अधिकार जैसी योजना भी वही लाए थे. इसी तरह की योजनाएं कांग्रेस आगे लाएगी, जिसका असर कैसा पड़ेगा, यह तो अर्थशास्त्री बता ही रहे हैं, लेकिन सहूलियतों पर कांग्रेस का जोर रहेगा. जिस कांग्रेस ने उदारीकरण की शुरुआत की, उसका परचम फहराया, वही कांग्रेस अब अपने पुराने वामपंथी मित्रों की सोच की तरफ बढ़ेगी. राजस्थान में इन्होंने इसकी शुरुआत कर दी है, मध्यप्रदेश में भी कमलनाथ मुफ्त बिजली का चारा फेंक चुके हैं. 

कांग्रेस चाहेगी विपक्ष की धुरी बनना 

उदाहरीकरण भले इस दौर की जरूरत हो, चीन जैसा देश पूंजीवाद की तरफ बढ़ रहा है और वह इसमें भारत से कई गुणा आगे है, लेकिन कांग्रेस अपने वामपंथी मित्रों की तरफ लौट चुकी है. 1969 में जब कांग्रेस की सरकार बची तो वामपंथियों ने अपनी वैचारिकता को कांग्रेस पर मढ़ा था. अब वह दौर फिर लौटा है. राहुल से लेकर सोनिया तक जेएनयू ब्रिगेड से घिरे हुए हैं, तो कांग्रेस फिर से उसी दौर में लौटेगी. अब इसका असर क्या होगा, यह तो देखने की बात है. दूसरे, इसका असर नीतीश कुमार पर होगा. अब तक जो नीतीश कुमार विपक्ष की धुरी बनने की कोशिश कर रहे थे, तो कांग्रेस जान बूझकर खुद को नेपथ्य में रख रही थी, लेकिन कर्नाटक में जीत के बाद यह बदला है. शपथग्रहण समारोह में नीतीश कुमार को वह तवज्जो नहीं मिली, जिसकी वह उम्मीद कर रहे थे. तो, कांग्रेस अब खुलकर विपक्षी की धुरी बनेगी. नीतीश कुमार, केसीआर या शरद पवार को वह केंद्रीय स्थान नहीं देनेवाली है. 

रेवड़ी कल्चर की शुरुआत केजरीवाल ने तो की ही, लेकिन दिल्ली और पंजाब के अलावा उनका कहीं प्रभाव नहीं है. कांग्रेस का स्टाइल ही है कि वह भी किसी दूसरे को श्रेय देगी. कांग्रेस वैसे भी केजरीवाल को श्रेय नहीं देगी. अभी तो बहुत तेजी से कांग्रेस राहुल गांधी को पीएम कैंडिडेट के तौर पर तो नहीं बढ़ाएगी, क्योंकि राहुल गांधी का दो-तीन बार परीक्षण हो चुका है और वह बहुत बुरी तरह फेल भी हुए हैं. हां, चाटुकारिता का जो कांग्रेस का इतिहास है, उसके आधार पर राहुल को आज न कल तो कैंडिडेट बनाया ही जाएगा. 

(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है) 

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