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बदलता रहा है पिछले 100 वर्षों से "गरीबी" की सीमा तय करने का पैमाना, दादाभाई नौरोजी से लेकर नीति-आयोग तक ने बदली है कसौटी

पोवर्टी यानी गरीबी को अगर देखें तो उसे कैसे डिफाइन (पारिभाषित) कर सकते हैं? गरीबी वह दशा है, जब कोई भी घर या व्यक्ति जिसके पास इतने वित्तीय साधन नहीं हों, जो कि न्यूनतम जीवन-स्तर अपना सके, तो उसे गरीब कहते हैं. दुनिया-जहान में इसी हिसाब से लोगों ने, विशेषज्ञों ने वस्तुओं और सेवाओं का एक बास्केट बनाया. यानी, किसी के पास न्यूनतम उतना तो होना ही चाहिए था. अगर वह उतना पा रहा है तो गरीबी रेखा से ऊपर है, अन्यथा नीचे. तो, जब बात वित्तीय संसाधनों की हुई तो सारा फसाद इसी बात पर हुआ कि उसे इनकम यानी की तरफ से लिया जाए कि व्यय की तरफ से? व्यक्ति कितना कमा पा रहा है, या वह कितना खर्च कर रहा है, यह बहस का मसला था. इस पर विशेषज्ञों ने कहा कि आय के कई स्रोत होते हैं, वह कई बार मौसमी भी होता है, जैसे कभी तो आपकी आय काफी हो जाती है, कभी बेहद कम. इसके उलट जो खर्च का हिसाब है, वह लगभग तय होता है, यानी उसमें वैरिएशन नहीं होता है. एक निश्चित रकम खर्च करनी ही होती है. इस तरह तय हुआ कि व्यय को ही आधार बनाया जाए. 

पुराना है "गरीबी" तय करने का इतिहास

1901 में जब दादाभाई नौरोजी ने 'पोवर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया' नामक किताब में पहली बार आंकड़ेबाजी की थी और इस पर एक सीरियस डिस्कशन और एस्टीमेट दिया था. उन्होंने इसके लिए एक फॉर्मूला निकाला कि जब इमिग्रैंट्स यानी प्रवासी जब जाते हैं तो उन्हें एक शांत जिंदगी के लिए कितनी रकम चाहिए? इसके लिए उन्होंने एक शब्द "क्वाइटीट्यूड" दिया था. तब उन्होंने 15 रुपए से 35 रुपए सालाना का हिसाब दिया था. यह 1867 के मूल्यों पर आधारित था. फिर नेहरू आए, उनके साथ 1938 में आई प्लानिंग कमिटी और तब जो आंकड़े निकले, वह सालाना की जगह महीने में गिने जाने लगे. अब जो हिसाब लगने लगे, तो कोई उसे महीने में बता रहा था, तो कोई सालाना. उसके बाद बांबे प्लान आया, 1944 में. उसने थोड़ा व्यवस्थित कर उसे 75 रुपए प्रति वर्ष कर दिए.

गरीबी नापने का जो इतिहास है, वह तो पुराना है, लेकिन 1962 में जो वर्किंग ग्रुप बनाया आजादी के बाद, तो उसमें भी यह सवाल आया कि मिनिमम बास्केट हम कैसे बनाएं? तभी, आईसीएमआर यानी इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के "न्यूट्रीशन एडवायजरी ग्रुप" ने भी इनको अपनी राय दी, जो कैलोरी से जुड़ी थी. इस समूह ने यह बताया कि एक औसत न्यूनतम पोषण का हिसाब कैलोरी के माध्यम से कैसे पता लगाएं? फिर, दांडेकर और रथ ने 1971 में अपना अध्ययन व्यक्तिगत स्तर पर प्रस्तुत किया. हालांकि, यह कोई सैंक्शन्ड स्टडी नहीं थी. फिर भी, उन्होंने बताया कि अगर कोई सामान्य आदमी 2250 कैलोरी पा जाए, तो वह न्यूनतम की अर्हता पूरी कर देता है. इसके बाद ही प्लानिंग कमीशन भी जागा और उसने 1979 में वाय के अलघ कमिटी बनाई. अब आप नयी कमिटी बनाएंगे, तो कुछ तो नया करना ही होगा न. इसलिए, इस कमिटी ने रूरल यानी ग्रामीण और शहरी पोषण को अलग किया. यह भी पहली बार तभी हुआ. 

बदलता रहा है गरीब तय करने का पैमाना

ग्रामीण क्षेत्र की कैलोरी 2400 और शहरी क्षेत्र की न्यूनतम मांग 2100 की मानी गयी. 1993 तक फिर शांति बनी रही और इस साल फिर सरकार ने लकड़ावाला कमिटी बनाई. उन्होंने कहा कि कैलोरी तो ठीक है, पर इसे हम प्राइस-इंडेक्स (मूल्य तालिका) से जोड़ेंगे. इससे हमारी सीपीआई (कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स) निकल आएगा. यह शहर और गांव के लिए अलग था. बाकी चीजें वैसी ही रहीं. अब इसमें दिक्कत ये हुई कि प्राइस ठीक नहीं निकलता था, इसकी विश्वसनीयता काफी कम हो गयी. 2005 में काफी गंभीर प्रयास के तहत तेंदुलकर कमिटी बैठी. उसने सबसे पहले कहा कि ये स्टेट के मुताबिक होता है. वे राज्यवार आंकड़े ले कर आए. साथ ही, रेफरेंस पीरियड के तौर पर इन्होंने मिक्स पीरियड का इस्तेमाल किया. जैसे कपड़ों का मामला आपका साल भर का कम खर्च है, लेकिन खाने का अधिक है. काफी जोड़घटाव के बाद आखिरकार 32 रुपए शहरी औऱ 26 रुपए प्रतिदिन ग्रामीण परिवेश में न्यूनतम के तौर पर निर्धारित किए गए. इसकी बहुत आलोचना भी हुई. 2014 में बनी रंगराजन कमिटी ने फिर से कई चीजों को रिवर्ट कर दिया. तो, इससे पता ये चलता है कि चीजें लगभग वही बनी रहीं, उसी में थोड़ी-बहुत छेड़छाड़ कर उसको परोसा गया. समय के साथ लोगों ने देखा कि यह केवल उपभोग यानी कंजम्पशन से नहीं नपता है, कई सारी चीजें उसको तय करती हैं, पूरा जीवन-स्तर तय होता है. 

अब "मल्टी डायमेंशनल पोवर्टी इंडेक्स" का जलवा

पहले हमारा दो ही डायमेंशन यानी आयाम था- कंजम्पशन और इनकम. अब संयुक्त राष्ट्र के एसडीजी (यानी सतत् विकास लक्ष्य) के तहत ये आ रहा है कि गरीबी कई आयामों की होती है, यूनीडायमेंशनल या टू-डायमेंशनल नहीं होती है. आप कई तरह से गरीब होते हैं, आपको अच्छा स्वास्थ्य नहीं मिल रहा, शिक्षा नहीं है, जीवन-स्तर खराब है, रिहाइश ठीक नहीं है तो आप गरीब हैं. तो, मल्टी-डायमेन्शनल जो स्टडी है, वह थोड़ी संपूर्ण है. इनका जो आयाम है, वह हेल्थ, एडुकेशन और जीवनस्तर के तीन बड़े खंडों को देखता है औऱ कुल मिलाकर 12 कारकों की देखभाल करता है. नीति आयोग ने भी इन्हीं को ही अपनाया है. तो, अभी जो रिपोर्ट आय़ी है, राज्यवार गरीबी को लेकर, उसमें भी यही हुआ है. चूंकि बिहार पहले से ही इस पूरी तालिका में सबसे नीचे था तो जरा भी सुधार होगा तो वह बहुत बड़ा "दिखता" है, पर सनद रहे कि वह दिखता मात्र है, है नहीं. बिहार में अगर अभी भी संख्या को देखें, तो बड़ी संख्या गरीबों की है. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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