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Opinion: दिल्ली सरकार का हमेशा से सीमित अधिकार, नहीं हुआ कोई परिवर्तन, AAP का हंगामा 'पॉलिटिकल स्टंट'

दिल्ली सर्विस बिल लोकसभा के बाद राज्यसभा में भी पारित हो गया. अब यह विधेयक राष्ट्रपति महोदया के हस्ताक्षर के बाद कानून का रूप लेगा. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट में अभी भी इस मामले की सुनवाई चल रही है. आम आदमी पार्टी का हमेशा से आरोप रहा है कि केंद्र की सरकार एलजी के माध्यम से उसे जनहित के काम नहीं करने देती है. हालांकि, इस पर कई विशेषज्ञ ये भी मानते हैं कि दिल्ली की ऐसी स्थिति कोई आज की नहीं, पहले से ही है और वहां शक्तियों और प्रतिबंधों का दौर एक जैसा ही रहा है. वह पूर्ण राज्य नहीं है और वही असल मुद्दा है. 

हमेशा से दिल्ली में यही हालात

दिल्ली में 1990 से लगभग यही पोजीशन चली आ रही है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं आया है. आप किसी भी रिटायर्ड नौकरशाह से पूछेंगे, तो वह यही बताएंगे कि पहले भी एलजी के पास फाइल जाती थी और अभी भी जाएगी. ये हालात कोई 2015 से नहीं बदले हैं. अगर आप यह देखें कि शीला दीक्षित जो पूर्व मुख्यमंत्री थीं, उन्होंने भी 2015 में एक बयान दिया था. तब उन्होंने कहा था कि दिल्ली में वैधानिक तौर पर कई सत्ताकेंद्र हैं, इनमें एलजी हैं, दिल्ली पुलिस है, तो यहां पर सभी को मैनेज करके काम करना होता है. सेंट्रल गवर्नमेंट हो, स्टेट गवर्नमेंट हो या यूनियन टेरिटरी हो, वो सभी गवर्नमेंट लिमिटेड यानी सीमित हैं. लिमिटेड का मतलब हुआ कि संवैधानिक प्रावधानों के तहत ही शासन करना होता है, उसके कानूनों के तहत होता है.

अगर आप कहीं के मुख्यमंत्री बनते हैं, तो दिल्ली में भ्रम इसी वजह से होता है कि मुख्यमंत्री होने की वजह से सारे अधिकार वैसे ही मिलेंगे, जैसे अन्य राज्यों में होते हैं. हालांकि, दिल्ली तो कभी भी पूर्ण राज्य रहा नहीं. यह तो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र है, विश्व में यह कहीं नहीं है कि राजधानी भी हो और पूर्ण राज्य भी हो. अभी ऐसा कुछ हो गया है, यह कहना गलत है. जब भी आप कोई पद ग्रहण करते हैं तो आपको अधिकारों के साथ कर्तव्य का भी ध्यान होना चाहिए. आपको यह समझना चाहिए कि आपकी सीमित शक्तियां हैं. आप अपनी शक्ति को बढ़ा नहीं सकते हैं. आप यह नहीं कह सकते कि उनकी वजह से आप गवर्न नहीं कर पा रहे हैं. राजनीतिक बयानबाजी अलग है. 

असल मुद्दा है- दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है, वह तो बहुत बड़ी व्याख्या है. चुनी हुई सरकार को फंक्शन की सारी ताकत होनी चाहिए, ऐसा सुप्रीम कोर्ट ने कहा है. तो, संसद भी तो चुनी हुई सरकार ही है. अगर आप किसी लॉ को आधार बनाकर कुछ कहते हैं, तो उसमें कोई गलत नहीं है. यह तो कोई इंंकार नहीं कर सकता है कि संसद के पास कोई अधिकार नहीं है. जब तक संसद यह न तय कर ले कि दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाना है, तब तक इसमें कोई दिक्कत नहीं है. यह राजनीतिक मामला अधिक लगता है, कानूनी मसला कम है. 2015 के पहले जितनी सरकारें थीं, उनको ऐसी समस्या क्यों नहीं होती थी? कांग्रेस की 15 साल सरकार रही, तब केंद्र में एनडीए भी थी. बीजेपी की सरकार दिल्ली में रही, तब कांग्रेस केंद्र में थी. तब, रोजाना ऐसी दिक्कत क्यों नहीं होती थी? जहां तक ऑर्डिनेंस की पावर है, वह तो सेंट्रल एक्ज्क्यूटिव की है. 6 महीने के अंदर अगर वह एक्ट में या कानून में नहीं बदला, तो उसके लैप्स करने का भी खतरा है.

अध्यादेश को इन्होंंने चुनौती भी दी हुई है. अगर सुप्रीम कोर्ट ने मान लीजिए कि यह फैसला होल्ड भी कर दिया कि यह गलत है, हालांकि इसकी कोई संभावना नहीं है. मान लिया जाए कि कोर्ट गलत कह भी दे, तो भी केंद्र के पास हमेशा अध्यादेश को अमेंड करने की, सुधारने की संभावना है. मुख्य मुद्दा यह है कि दिल्ली पूर्ण राज्य है कि नहीं? दिल्ली के जो पड़ोसी राज्य हैं, यूपी-हरियाणा वगैरह, ऐसे हालात औऱ तो कहीं नहीं हैं. तो, केवल इस आधार पर कि हम चुनी हुई सरकार हैं, इसलिए सारे अधिकार हमें दो, यह थोड़ी दूर की कौड़ी लगती है. इस पर कोर्ट भी सोचेगी. कोर्ट को इस पर भी विचार करना होगा कि जो प्रावधान हैं, वह पूर्ण राज्य के नहीं हैं. फिर, जब सरकार बन गयी है तो आपको पूर्णता में स्वीकार करना होगा. कुछ चीजें स्वीकार कर कुछ को नकार देना तो ठीक नहीं है. 

आम आदमी पार्टी का हल्ला बेवजह

कोई भी जो पावर में आएगा, उसे यह पता होना चाहिए कि वह जो भी पद ग्रहण करने जा रहा है, उसकी शक्ति क्या है? अधिकांश लोगों के लिए 50 की उम्र तक 20-25 वर्षों का अनुभव हो जाता है. तो, उसे पता होता है कि शक्तियां क्या हैं और प्रतिबंध कौन से हैं? अब अगर कोई मुख्यमंत्री हमेशा रैंट (खीझ) करता रहेगा कि केंद्र उसको काम नहीं करने देता तो यह साफ तौर पर राजनीतिक मामला है. इससे पॉलिटिकल डिविडेंड भले आ जाए, गवर्नेंस नहीं आ पाएगा. सच्चाई यह है कि राजनीतिक महत्वाकांक्षा चूंकि इनकी बहुत है, पूरे देश में फैलने की इनकी इच्छा है तो इसीलिए ये दिखाना चाहते हैं कि दिल्ली में हमने इतना काम कर दिया. तभी तो ये वोट मांग पाएंगे. इसीलिए, ये लगातार इस पर द्वंद्व की स्थिति में हैं. इन्होंने एक राजनीतिक मसला बना दिया है. इससे पहले शीला दीक्षित सीएम थीं, मदनलाल खुराना थे, उन्होंने तो कभी इतना हल्ला नहीं किया. अब ये हमेशा चिल्लाते हैं कि एलजी ने कर दिया, केंद्र ने ये कर दिया, तो ये गलत बात है. केंद्र में तो जो भी सरकार रहेगी, वह कभी यह नहीं होने देगी कि दिल्ली को पूर्ण राज्य की शक्तियां मिल जाएं. दिल्ली में एंबेसी हैं, पूरा मंत्रिमंडल है, तो अगर इसको पूरी ताकत दे दी गयी तो फिर तो अराजकता हो जाएगी. यह तो पूरी दुनिया में कहीं नहीं है. 

2015 के पहले नहीं था विवाद

यूनियन टेरिटरी यानी केंद्र शासित प्रदेश जो हैं, उनमें यह मसला क्यों नहीं उठता? जब आप कोई पद संभालते हैं, तो आपको प्रतिबंध और शक्तियां दोनों दी जाती हैं, आपको पता भी होता है. फिर, ये क्यों हो गा कि आप अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए अराजकता की ओर बढ़ रहे हैं. जैसे, नगरपालिका का जो मेयर है या कॉरपोरेटर है, वह तो यह नहीं कहता कि उसकी शक्तियां सीमित हैं. अब, टैक्स कलेक्ट करने का अधिकार अधिकांशतः केंद्रीय सरकार के पास होता है, तो क्या सभी राज्य हमेशा इस बात को लेकर हल्ला मचाएंगे? निर्वाचित प्रतिनिधि तो पंचायत के भी हैं, तो वह क्या हमेशा यही रोना रोएंगे कि हमारी शक्तियां सीमित हैं. दिल्ली की सरकार में इनको भी 8 साल हो गए हैं, पर लगातार रोने के सिवा और क्या हो रहा है?

ये लिमिटेड गवर्नमेंट है, कैपिटल सिटी है, और ये पहले से ही पता है. दिल्ली के वोटर्स के लिए इस युद्ध से दिक्कत खड़ी हो रही है. दिल्ली में इससे पहले बहुत काम हुआ है. सिवाय मुफ्त की रेवड़ियों के, रोड हों चाहे फ्लाईओवर हैं, वो तो पहले हुए थे, 2015 के. जहां तक हल्ले की बात है, तो राज्य की सरकारें भी इस तरह के बयान देती रही हैं. हालांकि, यह तो पहले भी कहा जा चुका है कि इससे राजनीतिक लाभ भले हो जाए, शासन तो नहीं हो पाएगा. विक्टिमहुड से शायद पॉलिटिकल फायदा हो जाए, लेकिन इससे न तो कानूनी राय बदलेगी, न ही वोटर्स का फायदा होगा. दिल्ली वालों का इससे नुकसान होगा, बस. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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