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उत्तराखंड का चौनी गांव हुआ जनशून्य, अंतिम परिवार के पलायन के साथ खत्म हुई पहाड़ी बसावट

Uttarakhand News: चमड़थल ग्राम पंचायत का यह गांव साल 2015 तक 15 परिवारों के सहारे टिका हुआ था, लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क और रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाएं न मिलने के कारण लोग एक-एक कर पलायन करते गए.

बागेश्वर जिले का चौनी गांव, जो कभी 25 परिवारों की हंसी-खुशी से गूंजता था, अब पूरी तरह वीरान हो चुका है. वर्ष 2025 में यहां के अंतिम रहवासी परिवार ने भी मजबूरी में गांव छोड़ दिया, जिसके बाद यह पूरा गांव जनशून्य हो गया. जिला मुख्यालय से मात्र 23 किलोमीटर दूर बसे इस गांव में आज सन्नाटा इतना गहरा है कि अपने कदमों की आवाज भी अजनबी सी लगती है. कभी बाखली में उठता चूल्हों का धुआं, बच्चों की खिलखिलाहट और खेतों में गूंजती हल की आवाजें अब केवल याद बनकर रह गई हैं.

चमड़थल ग्राम पंचायत का यह गांव साल 2015 तक 15 परिवारों के सहारे टिका हुआ था, लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क और रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाएं न मिलने के कारण लोग एक-एक कर पलायन करते गए. अंततः 2025 में आखिरी रहवासी महिला भी गांव छोड़ने को मजबूर हो गई. संवाद न्यूज एजेंसी की टीम ने जब गांव का जायजा लिया, तो आंगन में उगी झाड़ियां और बंद पड़े घर बताते हैं कि कैसे पलायन ने इस गांव को धीरे-धीरे निगल लिया. करीब 550 नाली उपजाऊ भूमि आज भी किसी के लौटने और हल चलाने का इंतजार कर रही है, लेकिन खेत सुनसान पड़े हैं. पुराने नक्काशीदार मकान हों या नए लिंटर वाले घर सभी पर ताले लटके हैं. कुछ घर खंडहर बन चुके हैं, तो बाकी खंडहर होने की कगार पर हैं.

ग्रामीणों की यादें और सरकार के प्रयास

गांव के वरिष्ठ नागरिक और सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य वंशीधर जोशी कहते हैं कि सुविधाओं के अभाव के लिए गांव से लेकर प्रदेश और देश की सभी सरकारें जिम्मेदार हैं. “मैं इसी गांव में रहते हुए क्षेत्र का पहला स्नातक बना था, लेकिन सुविधाओं के अभाव में मुझे भी गांव छोड़ना पड़ा. संघर्ष आज भी जारी है,” वे बताते हैं. इसी तरह गणेश चंद्र कहते हैं कि वर्षों तक गांव में सुविधाएं न मिलने के कारण लोग दिल्ली, लखनऊ और अन्य शहरों में बसते चले गए. “हमारा परिवार पिछले साल तक गांव में था, लेकिन अब हमने भी सड़क के नजदीक नया मकान बना लिया है.

” ग्रामीण ललिता प्रसाद जोशी का कहना है कि अगर सरकार रोजगारपरक योजनाएं, कीवी, माल्टा, अदरक, हल्दी की खेती या मत्स्य पालन जैसी गतिविधियों को बढ़ावा देती, तो हालात बदल सकते थे. बागेश्वर के सीडीओ आरसी तिवारी का कहना है कि राज्य सरकार पलायन रोकथाम योजनाओं पर काम कर रही है और कुछ गांवों में रिवर्स पलायन भी देखने को मिला है. “चौनी गांव के खाली होने के कारणों की जांच के लिए अधिकारियों की बैठक बुलाई जाएगी और गांव को फिर से बसाने का प्रयास किया जाएगा,” वे आश्वस्त करते हैं.

चौनी गांव में देवताओं की मौजूदगी और चेतावनी

चौनी गांव भले ही इंसानी जिंदगी से खाली हो चुका हो, लेकिन ग्रामीणों की मान्यता है कि यहां आज भी देवता बसते हैं. हर साल गर्मियों में पलायन कर चुके परिवार पूजा-अर्चना के लिए अपने पैतृक घरों में लौटते हैं. आठ-दस दिनों के लिए गांव में फिर चहल-पहल लौट आती है. झाड़ियां काटी जाती हैं, रास्ते साफ होते हैं और पुराने चूल्हों में फिर धुआं उठता है. लेकिन पूजा के बाद गांव फिर उसी खामोशी में डूब जाता है, जहां बंद घरों के ताले बारिश और धूप में धीरे-धीरे जंग खाते रहते हैं. चौनी आज सिर्फ एक गांव नहीं यह एक चेतावनी है कि अगर पहाड़ों में बुनियादी सुविधाएं और रोजगार नहीं पहुंचे, तो ऐसे वीरान होते गांवों की संख्या बढ़ती जाएगी.

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