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UP Election 2022: जानिए 2003 में बीजेपी ने सरकार बनाने में किस तरह की थी मुलायम की मदद

UP Election 2022 : मुलायम सिंह अगस्त 2003 में तीसरी बार यूपी के मुख्यमंत्री बने थे. सरकार में न बीजेपी शामिल थी और न समर्थन दे रही थी. लेकिन उसके सहयोग से बिना यह सरकार बच भी नहीं पाती, जानिए कैसे.

सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की एक फोटो पिछले 2 दिन से सोशल मीडिया पर वायरल है. यह तस्वीर उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू की पोती के रिसेप्शन की है. इसमें मुलायम और भागवत शामिल हुए थे. तस्वीर में दोनों सोफे पर बैठे नजर आ रहे हैं. इस तस्वीर के सामने आने के बाद से इसके राजनीतिक मायने निकाले जा रहे हैं. उत्तर प्रदेश बीजेपी ने इसे ट्वीटर पर पोस्ट करते हुए लिखा, 'तस्वीर बहुत कुछ बोलती है.' वहीं समाजवादी पार्टी ने इसे शिष्टाचार भेंट भर बताया है. इस तस्वीर के बहाने आइए हम आपको बताते हैं कि बीजेपी ने किस तरह एक बार मुलायम सिंह यादव को मुख्यमंत्री बनाने में मदद की थी. 

अलग हुईं मायावती और मुलायम की राहें

लखनऊ में जून 1995 में हुए गेस्ट हाउस कांड के बाद सपा और बसपा की राहें जुदा हो गई थीं. मायावती और मुलायम को दुश्मन के तौर पर देखा जाता था. इसके बाद मायावती बीजेपी के समर्थन से दो बार मुख्यमंत्री बनीं. दोनों ही बार बीजेपी और बसपा के रिश्ते में मधुर नहीं रहे.  

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उत्तर प्रदेश में 2002 में 14वीं विधानसभा के लिए चुनाव कराए गए. इसमें बीजेपी ने 88, बसपा ने 98, सपा ने 143, कांग्रेस ने 25 और रालोद ने 14 सीटें जीती थीं. किसी भी दल के पास सरकार बनाने का बहुमत नहीं था. इस वजह से यूपी में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. बाद में बीजेपी और रालोद ने समर्थन देकर 3 मई 2002 को मायावती की सरकार बनवा दी. सबसे बड़ा दल होने के बाद भी मुलायम सिंह यादव सरकार बनाने से चूक गए. 

मायावती को मिला बीजेपी का सहारा

सरकार बनाते ही मायावती अपने एजेंडे पर लौट आईं. इस बीच मायावती ने एक बीजेपी विधायक की शिकायत पर प्रतापगढ़ के कुंडा से निर्दलीय विधायक रघुराज प्रताप सिंह ऊर्फ राजा भैया को गिरफ्तार करवा लिया. उन पर पोटा की धाराएं लगाई गई थीं. बीजेपी ने इस गिरफ्तारी का विरोध किया. मायावती ने ताज कॉरिडोर के निर्माण में अडंगा लगाने का आरोप लगाते हुए तत्कालीन केंद्रीय पर्यटन मंत्री जगमोहन के इस्तीफे की मांग कर दी. इससे बीजेपी असहज हो गई. बीजेपी नेता मायावती की सरकार को गिराने की योजना बनाने लगे. 

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मायावती ने 26 अगस्त को कैबिनेट की बैठक में विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर दी. उन्होंने राज्यपाल विष्कुकांत शास्त्री को अपना इस्तीफा सौंप दिया. वहीं बीजेपी विधायकों ने राज्यपाल से मुलाकात कर मायावती सरकार से समर्थन वापसी का पत्र सौंप दिया. राज्यपाल ने यह कहते हुए विधानसभा भंग करने से इनकार कर दिया कि उन्हें समर्थन वापसी का पत्र पहले मिला है.  

मुलायम पर मेहरबान हुई बीजेपी

मुलायम सिंह यादव ने उसी दिन सरकार बनाने का दावा पेश किया. लेकिन उनके पास पर्याप्त समर्थन नहीं था. इसके अगले ही दिन बसपा में टूट हो गई. बसपा विधायकों के इस गुट ने मुलायम को समर्थन देने की घोषणा की. अपने विधायकों के इस कदम के विरोध में बसपा ने विधानसभा अध्यक्ष केशरीनाथ त्रिपाठी के पास याचिका दी. उसका तर्क था कि विधायकों का मुलायम सिंह यादव को समर्थन देने दलबदल कानून के तहत आता है. लेकिन विधानसभा अध्यक्ष ने उस पर कोई फैसला नहीं लिया. 

वहीं बीजेपी की संसदीय बोर्ड की 26 अगस्त को हुई बैठक में फैसला हुआ था कि उत्तर प्रदेश की विधानसभा भंग करने से बेहतर वहां राष्ट्रपति शासन लगाना होगा. बीजेपी चुनाव के लिए तैयार नहीं थी. यह भी कहा गया कि अगर मुलायम सिंह यादव की सरकार बनती हो, तो उसे बनने दिया जाए.

इसके बाद राज्यपाल ने मुलायम सिंह यादव को 29 अगस्त 2003 को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई. उन्हें कांग्रेस के 25, आरएलडी के 14 और 16 निर्दलीय विधायकों का समर्थन हासिल था. मुलायम सिंह को उनके धुर विरोधियों का समर्थन हासिल था. कहा जाता है कि मुलायम के विरोध की वजह से ही सोनिया गांधी 1999 में प्रधानमंत्री नहीं बन पाई थीं. आरएलडी के अजीत सिंह और मुलायम में 36 का रिश्ता था. मुलायम सिंह यादव को अयोध्या में कारसेवकों का हत्यारा बताने वाले कल्याण सिंह की पार्टी का भी समर्थन इस सरकार को हासिल था. सीपीएम के 2 विधायकों ने भी मुलायम सिंह की इस सरकार को समर्थन दिया था. 

सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा अध्यक्ष के फैसलों को पलटा

सितंबर 2003 में बसपा में एक और टूट हुई. उसके 37 विधायकों को विधानसभा अध्यक्ष ने लोकतांत्रिक बहुजन दल के रूप में मान्यता दी. जितनी तेजी विधानसभा अध्यक्ष ने बसपा विधायकों के इस गुट को मान्यता देने में दिखाई, उतनी तेजी ने वो 13 विधायकों के दलबदल पर बसपा की याचिका पर नहीं दिखाई थी. बीजेपी ने केशरीनाथ त्रिपाठी को तब तक विधानसभा अध्यक्ष रहने दिया, जबतक मुलायम सिंह यादव की सरकार टिक नहीं गई. 

विधानसभा अध्यक्ष के फैसलों को बसपा ने अदालतों में चुनौती दी थी. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मार्च 2006 में बसपा के 37 विधायकों के विभाजन और उन्हें अलग दल की मान्यता देने के विधानसभा अध्यक्ष के फैसले को खारिज कर दिया. इसके साथ ही अदालत ने विधानसभा अध्यक्ष को 13 विधायकों की सदस्यता पर अपने फैसले पर फिर से विचार करने को कहा. हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी में 2007 दिए फैसले में बसपा में टूट को अवैध बताया और विधानसभा अध्यक्ष के फैसले को पलट दिया. सुप्रीम कोर्ट ने बसपा के 13 विधायकों की सदस्यता खारिज कर दी थी. लेकिन यह फैसला केवल नजीर बन कर ही रह गया. मुलायम सिंह यादव 13 मई 2007 तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहे. और इसके बाद हुए चुनाव में बसपा को पूर्ण बहुमत मिला और मायावती पूरे 5 साल तक मुख्यमंत्री रहीं. 

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