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बीजेपी से समझौता या कुछ और… 8 साल में 10 दिग्गजों ने साथ छोड़ा फिर किस बूते अकेले चुनाव लड़ेंगी मायावती?

2019 लोकसभा चुनाव में मायावती ने सपा के साथ गठबंधन किया था. यूपी की 80 में से 38 सीटों पर बसपा ने कैंडिडेट उतारे, जिसमें से 10 पर पार्टी को जीत मिली. 2014 में बसपा को एक भी सीट नहीं मिली थी.

बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपने 67वें जन्मदिन पर 2024 की लड़ाई में एकला चलो का उद्घोष कर दिया है. मायावती के इस फैसले के बाद गठबंधन की कवायद में जुटी कांग्रेस सन्न है. पार्टी नेता दबी जुबान में बीजेपी के साथ इसे समझौता बता रहे हैं. 

2019 में सपा से गठबंधन कर 0 से 10 सीटों पर पहुंचने वाली मायावती के इस फैसले से राजनीति विश्लेषक भी हैरान हैं. 2007 के बाद मायावती की पार्टी का ग्राफ लगातार गिर रहा है. ऐसे में अकेले चुनाव लड़ने की रणनीति मायावती ने क्यों अपनाई है, इस पर भी सवाल उठ रहे हैं. 

न सेनापति, न जनाधार... 8 साल में 10 बड़े नेता छोड़ गए पार्टी
पिछले 8 साल में बसपा से राम अचल राजभर, लालजी वर्मा, ब्रजेश पाठक, इंद्रजीत सरोज, मिठाई लाल भारती, स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान, बृजलाल खाबरी, नसीमुद्दीन सिद्दकी और धर्मसिंह सैनी जैसे नेता पार्टी छोड़ चुके हैं. 2007 में जब बसपा की सरकार बनीं तो ये सभी मायावती के नवरत्नों में शामिल थे. 

2014 के बाद सभी एक-एक कर पार्टी छोड़ते गए. 2007 के बाद मायावती की जनाधार में भी भारी कमी आई है. 2007 में बसपा का वोट पर्सेंट 30 फीसदी से ज्यादा था, जो 2022 में 12 फीसदी के पास पहुंच गया है. 


बीजेपी से समझौता या कुछ और… 8 साल में 10 दिग्गजों ने साथ छोड़ा फिर किस बूते अकेले चुनाव लड़ेंगी मायावती?(  सभी आंकड़े विधानसभा चुनाव के हैं)

ऐसे में मायावती किस बूते अकेले दम पर चुनाव लड़ने की तैयारी में है?

1. कोर वोटर्स अब भी साथ- 1993 के बाद बसपा अभी सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. पिछले 3 साल में 3 बार पार्टी संगठन में फेरबदल हो चुका है. इसके बावजूद बसपा का कोर वोटर्स उसके साथ है. यूपी में जाटव समुदाय बसपा का कोर वोटर्स माना जाता है, जिसकी आबादी करीब 12 फीसदी है. 

2022 के चुनाव में भले मायावती की पार्टी सिर्फ 1 सीट जीती, फिर भी कोर वोटर्स साथ रहा. ऐसे में मायावती अपने कोर वोटर्स के बूते 2024 और 2027 के चुनाव में एकला चलना चाहती हैं. 

2. भाई-भतीजा को भी मैदान में उतारा- 2024 को लेकर मायावती ने पूरे यूपी को 7 सेक्टर में बांटा है और सभी जगहों पर प्रभारी नियुक्त किए हैं. मायावती ने पार्टी में नेताओं की कमी को देखते हुए भाई आनंद कुमार और भतीजा आकाश कुमार को मैदान में उतारा है. 


बीजेपी से समझौता या कुछ और… 8 साल में 10 दिग्गजों ने साथ छोड़ा फिर किस बूते अकेले चुनाव लड़ेंगी मायावती?(Photo- PTI)

मायवती ने भाई आनंद को बसपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और भतीजा आकाश को नेशनल कॉर्डिनेटर बनाया है. दोनों सभी सेक्टर प्रभारियों के साथ मिलकर मिशन बसपा के लिए काम कर रहे हैं. 

3. साइड लाइन मुस्लिम नेताओं को तरजीह- गुड्डू जमाली, इमरान मसूद और शाइस्ता परवीन. ये वो नाम है, जो कभी यूपी में मुस्लिम पॉलिटिक्स का चेहरा रहे हैं, लेकिन 2019 के बाद से ही साइड लाइन चल रहे हैं. मायावती ने पिछले दिनों तीनों नेताओं को पार्टी से जोड़ा है. 

मुस्लिम नेताओं के अलावा मायावती की नजर यूपी के पाल वोटरों पर भी है. पिछले दिनों मायावती ने विश्वनाथ पाल को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी थी. यूपी में करीब 2 फीसदी पाल वोटर्स हैं, जो बृज और रुहेलखंड में काफी प्रभावी माने जाते हैं.

बीजेपी से समझौता का आरोप, 3 प्वॉइंट्स...
मायावती के एकला चलो के पीछे की रणनीति को विपक्ष बीजेपी के साथ समझौता बता रही है. यह पहली बार नहीं है, जब मायावती पर बीजेपी को फायदा पहुंचाने का आरोप लग रहा है. इसकी 3 बड़ी वजह है...

1. दलित वोटरों के कन्फ्यूजन को दूर नहीं करना- 2022 के चुनाव में करारी हार के बाद मायावती का एक बयान आया. उन्होंने इसमें कहा कि आरएसएस के लोग दलित वोटरों में कन्फ्यूजन पैदा कर दिया. दरअसल, पूरे चुनाव में मायावती की पार्टी मजबूती से मैदान में नहीं उतरी.

खुद मायावती बहुत कम जगहों पर रैली में भाग ली. ऐसे में बसपा के दलित वोटरों में मायावती यह संदेश पहुंचाने में विफल रही कि उनकी पार्टी बीजेपी के खिलाफ मजबूती से चुनाव लड़ रही है. इस वजह से पश्चिमी यूपी में दलित वोटरों ने जमकर बीजेपी के पक्ष में मतदान किया. 

2. बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस पर हमलावर- मायावती आरक्षण और दलित मुद्दे पर बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस पर हमलावर रहती हैं. प्रेस कॉन्फ्रेंस हो या ट्विटर अक्सर कांग्रेस हाईकमान पर मायावती निशाना साधते रहती हैं. कांग्रेस ने जब पंजाब में दलित चरणजीत सिंह चन्नी को सीएम बनाया, तब भी मायावती ने इसे दिखावा बताया.

3. बीजेपी सरकार के खिलाफ सड़कों पर प्रदर्शन नहीं- बसपा पिछले 10 सालों से विपक्ष में है, लेकिन पार्टी ने अब तक जनता के मुद्दों को लेकर सरकार के खिलाफ कोई प्रदर्शन नहीं किया है. बड़े-बड़े मुद्दों पर जब बीजेपी घिरती है, तो मायावती चुप्पी साध लेती हैं. हालांकि, मायावती हमेशा बसपा के मिशन के तहत काम करने की बात कह कर इन मामलों से पल्ला झाड़ लेती हैं.

या वजह कुछ और?
क्या मायावती का एकला चलो की नीति से बीजेपी को फायदा होता है? वरिष्ठ पत्रकार अनिल चामड़िया इसे साजिश करार देते हैं. वे कहते हैं- राजनीति में सभी पार्टियों को चुनाव लड़ने का हक है. बसपा का गठन दलितों की आवाज उठाने के लिए हुआ था. इस दौरान मायावती जी ने बसपा में कई प्रयोग भी किए.

अनिल चामड़िया के मुताबिक बहुजन विरोधी ताकत पहले दलितों में जाति बंटवारा किया और अब उसके वोटर्स को कन्फ्यूज करती है. 

मायावती के अकेले चुनाव लड़ने की वजह से बसपा लगातार कमजोर होती गई, इसकी क्या वजह है? इस सवाल के जवाब में चामड़िया कहते हैं- चुनाव जीतने से ज्यादा जरूरी उद्देश्य पूरा होना है. बसपा प्रतीक के रूप में ही दलित मुद्दे उठा रही है, यही काफी है. 

मायावती की रणनीति का कितना असर होगा?
इस सवाल के जवाब में सपा विधायक राम अचल राजभर कहते हैं, '2022 में मायावती जी अकेले लड़ी थीं. परिणाम सामने है. 2024 के लिए भी उसी को आधार मान लीजिए. अंबेडकरनगर में भी बसपा की हार होगी.' राजभर अंबेडकरनगर जिले से आते हैं, जहां अभी बसपा के रितेश पांडे सांसद हैं. 

राजभर आगे कहते हैं, 'पूरा देश देख रहा है कि बीजेपी के खिलाफ यूपी में कौन लड़ रहा है. यहां सपा गठबंधन ही जनता के मुद्दे को उठा रही है. बसपा चुनाव लड़ने को लेकर गंभीर नहीं है. पिछले चुनाव में हमने इसे देखा है.'

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